जेट एयरवेज का अपने 1900 कर्मचारियों को निकालने और वापस लेने का मुद्दा कुछ इस कदर छाया कि इसने उसके और किंगफिशर एयरलाइंस के साथ आने से जुड़े बाकी सभी मुद्दों को ढक दिया।
कई लोगों की मानें तो इससे किसी भी हालत में बचा नहीं जा सकता था। हिंदुस्तानी कारोबारी जगत पर नजर रखने वालों को अच्छी तरह से 15 साल पहले का वह वाकया याद होगा, जब कोका-कोला ने पारले के कोल्ड ड्रिंक कारोबार का अधिग्रहण किया था।
तब मैनेजमेंट गुरू माइकल पोर्टर ने अपनी भारत यात्रा के दौरान कहा था कि यह प्रतिद्वंद्विता नीति के बारे में बड़े सवाल खड़े करता है। तब तो अपने मुल्क के पास प्रतिद्वंद्विता नीति भी नहीं थी। हालांकि, अब मुल्क में यह नीति है। अब तो एक प्रतिद्वंद्विता कमीशन भी मौजूद है।
हालांकि, अभी तक इसने पूरी तरह से काम करना शुरू नहीं किया है। इस सबके बावजूद भी न तो कमीशन और न ही सरकार की तरफ से हवाई बाजार पर 60 फीसदी से भी ज्यादा कब्जा रखने वाले इन दोनों एयरलाइंसों के इस कदम के बारे में कुछ भी कहा है।
असल में, अब उनका कुछ रूटों पर कब्जा काफी ज्यादा बढ़ जाएगा। इसका जाहिर तौर पर दूसरी एयरलाइन कंपनियों पर असर तो पड़ेगा ही पड़ेगा। कुछ ने तो खुले तौर पर कह भी दिया है कि ऐसे कदमों की वजह से उन्हें यह सेक्टर भी छोड़ना पड़ सकता है। आखिरकार, नुकसान उपभोक्ताओं को ही होगा। उन्हें इस वजह से टिकटों के लिए आज से भी ज्यादा रकम चुकानी पड़ सकती है। सस्ते टिकटों के दिनों को तो अब भूल ही जाइये।
यह बहस का मुद्दा है ही नहीं कि ये दोनों एयरलाइंस खतरे में हैं या नहीं या क्या उन्हें अपनी लागत कम करने की जरूरत है। हकीकत में रिपोर्टों की मानें तो केवल जेट और किंगफिशर को इस साल एक अरब डॉलर का चूना लग सकता है। यह उनके कारोबार के आकार को देखते हुए यह एक बहुत ही बड़ा घाटा है।
हालांकि, अब तेल कीमतों के घटने के बाद उनके घाटे में भी कम आ सकती है। हालांकि, इस बारे मे सही कदम उठाने की शुरुआत एयरलाइन कंपनियों की तरफ से ही होनी चाहिए। दोनों बाजार के बड़े से बड़े हिस्से के लिए लड़ रही हैं। इसलिए दोनों के कई हवाई जहाज आसमान के चक्कर काट रहे हैं, जिनमें खाली सीटों की तादाद काफी ज्यादा है।
मौजूदा समस्या के लिए जिम्मेदार हैं 2006 और 2007 में की गईं गलतियां। तब डेक्कन एविऐशन और सहारा एयरलाइंस पर खतरे के बादल काफी गहरे हो गए थे। इन दोनों के बंद होने से आसमान में भीड़ छंटती, लेकिन जेट ने सहारा को खरीद लिया और किंगफिशर ने डेक्कन को। इसी वजह से उनके हवाई जहाज हवा में ही रहे, जिसने इन्हें मुसीबत में डाल दिया।
ये दोनों एयरलाइंस कंपनियां अपनी मुसीबतों के लिए हवाई ईंधन की ऊंची कीमत को कोस रही हैं। उनका कहना है कि अपने मुल्क में हवाई ईंधन दूसरे देशों के मुकाबले काफी महंगा मिलता है और उसी की वजह से कुल लागत में 50 फीसदी से भी इजाफा हो जाता है।
उनकी बात एक हद तक सही भी है। भले ही उन्होंने सरकार से इस बारे में राहत की मांग की है, लेकिन उन्हें भी कदम उठाने चाहिए। बात बड़ी सीधी है, पांवों को उतना ही फैलाना चाहिए, जितनी बड़ी चादर हो।