एक समय था जब तृणमूल कांग्रेस और उसकी अगुआ ममता बनर्जी की महत्त्वाकांक्षा का दायरा पश्चिम बंगाल में गोरखा वोट हासिल करना था। विधानसभा की 294 सीट में से तथाकथित गोरखालैंड में नेपाली मूल के लोगों के मत दार्जिलिंग के आसपास की महज तीन सीट में ही मायने रखते हैं। बंगाल के गोरखाओं का राष्ट्रीय दलों को लेकर अलग रुख है क्योंकि वे बंगाल में सभी राजनीतिक दलों के ‘बंगालीपन’ से असहज महसूस करते हैं। उन्हें डर है कि कहीं उनकी अलग नेपाली पहचान (खास तौर पर भाषाई) खत्म न हो जाए। इसके संरक्षण के लिए इस क्षेत्र-तीन विधानसभा क्षेत्रों में बहुत से दल बने हैं। यहां जितने नेता हैं, उतने ही राजनीतिक दल हैं।
ममता ने 2021 के विधानसभा चुनावों से पहले गोरखाओं को इस बात के लिए आश्वस्त करने के लिए अभियान शुरू करने का फैसला किया कि उन्हें तृणमूल कांग्रेस से कोई डर नहीं है। उनकी अपील और कड़ी मेहनत भी काम नहीं आई। भाजपा ने दो और गोरखा जनमुक्ति मोर्चे ने एक सीट जीती। लेकिन ममता हार नहीं मान रही हैं। अब वह अपनी लड़ाई में खुखरी के साथ बोटी की भी मदद ले रही हैं। उन्होंने नेपाल में सत्तारूढ़ पार्टी नेपाली कांग्रेस का पिछले सप्ताह उनके राष्ट्रीय सम्मेलन को संबोधित करने का आमंत्रण स्वीकार किया। वह केंद्र सरकार के मंजूरी देने में देरी करने से सम्मेलन में शरीक नहीं हो पाईं। उन्हें आमंत्रित किए जाने से ही पता चलता है कि भारत और बाहर तृणमूल कांग्रेस को कितनी गंभीरता से लिया जा रहा है।
तृणमूल कांग्रेस गोवा के चुनाव काफी गंभीरता के साथ लड़ रही है। यह मेघालय में रातोरात कांग्रेस के 17 विधायकों में से 12 को अपने पाले में लाने में कामयाब रही। उसने वहां कांग्रेस से विपक्ष नेता का दर्जा छीन लिया। कांग्रेस में अंदरूनी कलह का फायदा उठाकर तृणमूल कांग्रेस ने पूर्व मुख्यमंत्री मुकल संगमा को अपने पाले में कर लिया। जब राज्य में विन्सेंट पाला को कांग्रेस प्रमुख बनाया गया था तो संगमा ने अपनी निराशा जाहिर कर दी थी। तृणमूल कांग्रेस ने त्रिपुरा में भी हलचल मचा दी है। इससे पहले महिला कांग्रेस की प्रमुख और असम की पूर्व सांसद सुष्मिता देव पार्टी छोड़कर तृणमूल कांग्रेस में शामिल हुई थीं। इसके बाद हरियाणा में कांग्रेस इकाई के पूर्व प्रमुख अशोक तंवर ने हरियाणा में तृणणूल कांग्रेस का झंडा उठा लिया।
इस महीने की शुरुआत में ममता ने समान विचारों वाली पार्टियों के नेताओं को जोडऩे के लिए एक दौरा किया था। उन्होंने राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) के नेता शरद पवार और शिव सेना के उद्धव ठाकरे एवं आदित्य ठाकरे से बातचीत की क्योंकि वह लगातार अन्य राजनीतिक दलों खास तौर पर कांग्रेस में प्रतिभाएं तलाश रही हैं। इसलिए नगर निगम नेताओं से लेकर मध्य स्तर के पार्टी कार्याधिकारियों और शीर्ष नेतृत्व तक, हर किसी, खास तौर पर कांग्रेस से आने वालों का तृणमूल कांग्रेस में स्वागत है। ममता के मुताबिक कांग्रेस आईसीयू में है।
क्या इन सभी कदमों के पीछे कोई रणनीति है?
अशोक यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान के सहायक प्रोफेसर और त्रिवेदी सेंटर फॉर पॉलिटिकल डेटा के सह-निदेशक गिलीज वर्नियर ने कहा कि तृणमूल कानूनी दृष्टि से राष्ट्रीय दल का दर्जा हासिल करने की कोशिश कर रही है। चुनाव आयोग ने उसे 2016 में राष्ट्रीय दल का दर्जा दिया था, लेकिन 2019 के लोक सभा चुनाव में इसके खराब प्रदर्शन के बाद चेताया था कि वह अपना यह दर्जा गंवा सकती है। वर्नियर को तृणमूल के राजनीतिक विस्तार में कई रुझान नजर आ रहे हैं। उन्होंने कहा कि यह विस्तार केवल छोटे राज्यों और वहां हो रहा है, जहां कांग्रेस कमजोर है। वह कहते हैं, ‘आपको तृणमूल राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश या गुजरात में कांग्रेस को टक्कर देती नजर नहीं आएगी।’ वह कहते हैं, ‘यह उन राज्यों में विस्तार करती है, जहां यह बिना अधिक खर्च के चुनाव लड़ सकती है या कांग्रेस समेत अन्य दलों के विधायकों को तोड़ सकती है। लेकिन यह भाजपा या कांग्रेस के समान सही मायनों में राष्ट्रीय पार्टी का निर्माण नहीं है।’
राजनीतिक परिवारों पर अपनी पीएचडी लिखने वाले सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के फेलो राहुल वर्मा का थोड़ा अलग मत है। वह कहते हैं, ‘इस समय उनका मुख्य लक्ष्य गोवा, मेघालय और त्रिपुरा में कांग्रेस के असंतुष्ट नेता हैं। दूसरा उनका जोर उत्तर-पूर्वी राज्यों पर है, जहां कुछ बंगाली आबादी है। यह तृणमूल कांग्रेस का मुख्य आधार बन सकता है। तीसरा, तृणमूल कांग्रेस जिन राज्यों को लक्षित कर रही है, उनमें 2022 और 2023 में विधानसभा चुनाव होने हैं।’
तृणमूल का भाजपा से सीधा मुकाबला है। लेकिन तृणमूल कांग्रेस विचारधारा के स्तर पर कांग्रेस जैसी पार्टियों से कितनी अलग है? अगर यह सोच में कांग्रेस से अलग है तो ऐसा क्यों है?
वेर्नियर कहते हैं कि तृणमूल कांग्रेस का यह दावा उसे अलग बनाता है कि उसके पास भाजपा को हराने का फॉर्मूला है। कांग्रेस छोड़कर तृणमूल कांग्रेस में जुडऩे वाले ज्यादातर ने ऐसा पार्टी में लोकतांत्रिक ढांचा बिखरने और इसकी जगह व्यक्तियों के लेने की कुंठा की वजह से किया। लेकिन क्या तृणमूल कांग्रेस अलग है? अगर ऐसा नहीं है तो क्या उसका हश्र कांग्रेस से जैसा नहीं होगा? वर्मा तृणमूल के भविष्य को लेकर सुनिश्चित नहीं हैं। लेकिन वह कहते हैं कि जब कोई राजनेता किसी पार्टी को छोड़कर दूसरी में शामिल होता है तो उसकी दो वजह बताई जाती हैं। इनमें उनकी मूल पार्टी अपनी घोषित विचारधारा से भटक रही है या आंतरिक लोकतांत्रिक ढांचा बिगड़ रहा है। वेनियर्स और वर्मा का मानना है कि ममता सेना के जनरल की तरह पार्टी की अगुआई कर रही हैं। वह केवल वही युद्ध लड़ रही हैं, जिन्हें वह जीत सकती हैं क्योंकि यह युद्ध जीतने में बहुत अहम है। ममता और तृणमूल के लिए युद्ध का मकसद केवल विजेता बनना ही नहीं है। इसका मकसद हारने वालों में विजेता बनना है।
