भारतीय रिजर्व बैंक के मुद्रास्फीति लक्ष्य को परिभाषित करने के संदर्भ में नियमों बनाम विवेक के गुण दोष को लेकर काफी जोरदार बहस जारी है।
रिजर्व बैंक अपनी मौद्रिक नीति संचालित करते समय इस लक्ष्य से बंधा रहेगा। मौद्रिक नीति नाम की कैंची, जिसे केंद्रीय बैंक ने खुद पर चलाया है, के पिछले रिकार्ड की समीक्षा को समझकर काफी हद तक इस अवधारणा को स्पष्ट किया जा सकता है।
वर्ष 2003 में फिस्कल रिसपॉन्सिबिलिटी ऐंड बजट मैनेजमेंट एक्ट (एफआरबीएमए) बनाया गया था जिसके नियम जुलाई, 2004 में तैयार किए गए थे। इस कानून के तहत 2007-09 तक केंद्रीय सरकार का राजकोषीय घाटा देश के कुल सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के तीन फीसदी से अधिक नहीं होना चाहिए।
साथ ही यह भी कोशिश होनी चाहिए कि इस तारीख तक राजस्व खाते पर होने वाला घाटा पूरी तरह से समाप्त हो जाए (यानी सरकार अब जो भी कर्ज ले वह सिर्फ निवेश के लिहाज से हो)। साथ ही इस कानून में हाउसकीपिंग और डेब्ट को लेकर कुछ उपबंध भी शामिल किए गए हैं। आरबीआई 31 मार्च, 2006 के बाद के किसी सरकारी प्रपत्रों को मूल्यांकन में शामिल न करे, इसका उल्लेख भी इस कानून में किया गया था।
जुलाई, 2004 में एफआरबीएमए कानून में संशोधन किया गया था और इसमें इन लक्ष्यों को हासिल करने की मियाद एक वर्ष बढ़ाकर 2008-09 कर दी गई थी। पर अगर आंकड़ों पर नजर दौड़ाएं तो पता चलता है कि राजस्व घाटे को पूरी तरह से खत्म कर पाना इतना जल्दी मुमकिन नहीं जान पड़ता।
साथ ही राजकोषीय घाटे को शून्य तक पहुंचाना भी तय किए गए लक्ष्य तक कठिन होगा। किसानों की कर्ज माफी, वेतन आयोग की सिफारिश और तेल और खाद्य पर अधिक खर्च से इस बात की गारंटी तो मिल जाती है कि बजट में जो अनुमान लगाया गया था, उसे पूरा कर पाना मुश्किल है।
हालांकि सरकार ने बजट की गणनाओं को सटीकता का अमली जामा पहनाने के लिए 2007-08 के लिए बजट के बाद 18,757 करोड़ रुपये के बांड्स की घोषणा की है। साथ ही ऐसी भी संभावनाएं हैं कि आने वाले समय में कुछ और बांड्स जारी किए जा सकते हैं।
नए वित्तीय नियमों को लागू करने के पहले तीन ऐसे मुद्दे हैं जिन पर ध्यान देना जरूरी होगा। पहला, लोक उपक्रमों के कर्ज को जो उन्होंने इस वजह से लिया था क्योंकि सरकार इनमें पूरी सब्सिडी नहीं चुका पाई थी, को पब्लिक सेक्टर की ऋण आवश्यकताओं (पीएसबीआर) में कुछ हद तक शामिल किया जाए। दूसरा, सरकार को अपने मध्यावधि राजकोषीय वित्तीय नीति बयान में बजट के बाद जारी किए गए बांड्स का खुलासा करना चाहिए।
यह काफी हद तक संबंधित जिंसों की कीमतों को तय करने में सहायक होंगे। साथ ही इस स्वर्णिम नियम की बाध्यता कि राजस्व बजट को संतुलित होना चाहिए और केंद्रीय सरकार का कर्ज कुल केंद्र सरकार के निवेश से अधिक न हो, में भी स्पष्टता लाने की कोशिश की जाए। हालांकि वित्तीय नियमों का पिछला रिकार्ड अब तक खासा प्रभावित करने वाला नहीं रहा है।
यूरोपीय यूनियन का स्टेबिलिटी ऐंड ग्रोथ पैक्ट (एसजीपी) भी सफल नहीं हो पाया था क्योंकि वहां भी बड़े सरप्लस या छोटे घाटों से निपटने के कारगर उपाय मौजूद नहीं थे। एसजीपी को तैयार करते वक्त जो सैद्धांतिक जुर्माने का प्रावधान रखा गया था, उन्हें भी सही समय पर लागू नहीं किया गया था। यूरोपीय यूनियन के मंत्रिमंडल ने राजनीतिक प्रतिष्ठा पर चोट पहुंचने की वजह से जुर्माना नहीं लगाने का निर्णय लिया था। पर पासा कुछ उल्टा ही पड़ गया और यह कानून सफल नहीं हो पाया।
अगर ब्रिटेन में चांसलर गॉर्डन ब्राउन के मामले पर नजर डालें तो पता चलता है कि उन्होंने सरकारी ऋण के वर्गीकरण को इस हद तक नुकसान पहुंचाया कि राजकोषीय नियमों का कोई खास महत्व नहीं रह गया। वर्ष 2005 में मैंने और विलियम बुटर ने भारतीय संदर्भ में यह सवाल उठाया था: अच्छे वक्त के दौरान भारत सरकार द्वारा खुद पर प्रति चक्रीय अनुशासन लागू कर पाना कितना मुश्किल होगा?
मजबूत वृद्धि प्रदर्शन और करों में जोरदार बढ़ोतरी (वास्तव में तो लक्ष्य से भी ज्यादा) को देखते हुए इसका जवाब यह है कि भारत सरकार को अपने ऊपर अनुशासन लगाना बहुत मुश्किल लगा। सरकार की ओर से इसका पालन करना राजनैतिक तौर पर बहुत महंगा तो नहीं है पर इस तरफ मतदाताओं का ध्यान कुछ कम ही है।
ताज्जुब है कि मीडिया तक को इसकी कुछ खास परवाह नहीं थी। असल में मोटे तौर पर महसूस किया जाता है कि बजटीय स्तर से खर्चे बढ़ाने वाले अनुपूरक विधेयकों के खारिज होने की संभावना है। राजकोषीय विवेक को विधायी रूप नहीं दिया जा सकता, इसे लागू किया ही जाना चाहिए। साथ ही इस पर पूरी सख्ती से अमल होना भी जरूरी है।
यह अवसरवादी सरकारों के लिए भी प्रोत्साहनकारी होना चाहिए। अहम बात यह है कि किसी सरकार के लक्ष्यों की चूक के लिए कोई विश्वसनीय और निषेधात्मक निहित लागत को विधायी रूप नहीं दिया हो, भले ही उसे ऐसा करना हो। उदाहरण के लिए एफआरबीएमए में संशोधन का उद्देश्य उसमें एक ऐसा उपबंध जोड़ने का है जिसमें यह प्रावधान शामिल हो कि अगर तय किए गए लक्ष्यों को सरकार पूरा नहीं कर पाती है तो संसद को ही भंग कर दिया जाए।
मेरा मानना है कि राजनेता इससे बचने या फिर इससे फायदा उठाने का कोई रास्ता निकाल ही लेंगे। मौजूदा साल में राजकोषीय घाटे की मांग को जो चीज प्रभावित करेगी, वह है सब्सिडी। इसके अलावा शेष भुगतान की कई अहम जटिलताएं भी इस पर असर डालेंगी।
एक मोटे अनुमान के अनुसार यह कहा जा सकता है कि कच्चे तेल के आयात पर एक डॉलर की बढ़ोतरी होती है तो वर्ष 2008-09 में चालू खाते का घाटा सकल घरेलू उत्पाद का करीब 0.1 फीसदी बढ़ जाता है। इस समय तेल पर भारतीय उपभोक्ताओं और उद्योगों का ईंधन बिल 70 डॉलर प्रति बैरल होने का अनुमान है।