भारत का कारोबार जगत 3 नवंबर को प्रधानमंत्री से मिला और उसने यह आश्वासन दिया कि वह अपनी तरफ से इस मौजूदा आर्थिक संकट से मुकाबला करने की पूरी कोशिश करेगा और वह भी कर्मचारियों की छंटनी के बगैर।
लेकिन पिछले कुछ हफ्तों में ऐसा कोई भी दिन नहीं बीता है जब किसी कंपनी द्वारा अपने कर्मचारियों को नौकरी से निकालने की खबरें नहीं आई हों। इन खबरों से भारत में हर रोजगार क्षेत्र से ताल्लुक रखने वाले कर्मचारियों का मनोबल कमजोर हुआ है और उन्हें अपने सर पर छंटनी की तलवार लटकी नजर आ रही है।
सेवा क्षेत्रों जैसे एयरलाइंस पर्यटन, बैंकिंग और बीमा कंपनियों से जुड़ी नौकरियों के लिए यह खबर तो और भी खतरनाक और डराने वाली है कि क्योंकि इन क्षेत्रों में उपभोक्ताओं की संतुष्टि सबसे महत्त्वपूर्ण होती है। जरा सोचिए, अगर इन क्षेत्रों के कर्मचारी खुद इस पसोपेश में होंगे कि पता नहीं कब उन्हें नौकरी से हाथ धोना पड़ सकता है तो वह उपभोक्ताओं की जरूरतों का ध्यान आखिर कैसे रख पाएंगे? और जब ग्राहक ही संतुष्ट नहीं होगा तो स्वाभाविक है कि संगठन का मुनाफा भी प्रभावित होगा।
मौजूदा वित्तीय संकट में कारोबारी संगठनों पर दबाव तो बहुत अधिक है और इस संकट की घड़ी में भी उन्हें अपने अस्तित्व को बनाए रखना है, पर अब सवाल यह है कि क्या इन संगठनों के पास अपने खर्च में कटौती के लिए कर्मचारियों की छंटनी के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं है?
जवाब शायद इतना उलझा हुआ भी नहीं है क्योंकि कई ऐसे रास्ते हैं जिनसे कंपनियां न केवल अपने खर्चे को कम कर सकती हैं बल्कि, अपने कर्मचारियों का मनोबल भी ऊंचा कर सकती हैं और इससे आखिरकार कंपनियों को ही फायदा होगा। वे मजबूती के साथ वित्तीय संकट से बाहर निकल पाएंगी।
अपने इस छोटे से आलेख में चलिए सबसे पहले मैं कुछ ऐसे ही उपाय सुझाने की कोशिश करता हूं। पहला तरीका तो हम बरसों पुरानी जापानी परंपरा से सीख सकते हैं। काईतारो हासेगावा अपनी जैपेनीज स्टाइल मैनेजमेंट (कोडांशा इंटरनेशनल लिमिटेड, टोक्यो, 1986) में कहते हैं कि जापानी सीईओ के लिए यह परंपरा है कि वे अपने संगठन द्वारा लिए जाने वाले ऋण की गारंटी व्यक्तिगत तौर पर लेते हैं।
किसी भी नए अध्यक्ष का पहला काम यही होता है कि वह ऐसे ऋणों की व्यक्तिगत गारंटी को सबसे पहले सुनिश्चित करें। हालांकि कानूनी तौर पर यह कोई बाध्यता नहीं है पर उसके बाद भी चोटी के अधिकांश अधिकारी इसे अपने व्यवहार में शामिल कर चुके हैं। अगर कंपनी दिवालिया होती है तो अध्यक्ष अपनी निजी संपत्ति को बेचेगा और उन लोगों को भुगतान करेगा जिनको कंपनी से पैसे मिलने हैं।
अपनी इस किताब में हासेगावा ने कोजिन के अध्यक्ष का उदाहरण दिया है। जब कोजिन दिवालिया हो गई थी तो अध्यक्ष ने देनेनशोफू में अपने भव्य आवास को कंपनी से लेनदारों के सुपुर्द कर दिया था। इस तरह हम देख सकते हैं कि जब कंपनी के लिए अच्छे दिन होते हैं तो उस दौरान शीर्ष प्रबंधन सबसे अधिक कमाता है पर जब कंपनी पर संकट के बादल छाते हैं तो सबसे पहले उन कर्मचारियों का ध्यान रखा जाता है जो निचले स्तर पर काम कर रहे होते हैं और कंपनी में जिनकी कमाई सबसे कम होती है।
संकट की घड़ी में सबसे पहले शीर्ष प्रबंधन अपनी तनख्वाह घटाएगा और उसके बाद एक एक कर के उनसे नीचे काम करने वाले लोगों की तनख्वाह कम की जाएगी। सबसे आखिर में सबसे कम कमाने वाले कर्मचारियों के वेतन पर कैंची चलाई जाएगी। अगर पाठकों को यह लगता है कि जापान में जो नुस्खे अपनाए जाते हैं वे हमारे देश में कारगर साबित नहीं होंगे तो मैं पश्चिमी देशों के दो और उदाहरण आपके सामने रखता हूं।
20 वीं शताब्दी की शुरुआत में जब कैडबरी मुश्किल हालात से गुजर रही थी तो सर जॉर्ज कैडबरी ने 6 महीनों तक कंपनी को अपने पैसे से चलाया। उन्होंने यह अनुमान लगाया कि उनके पास इतने पैसे हैं कि 6 महीनों तक कंपनी को उसी से चलाया जाए और एक बार फिर से कंपनी को मुनाफे में लाया जा सके।
उन्होंने यह भी भांप लिया था कि अगर इन 6 महीनों में भी कंपनी की हालत नहीं सुधरती तो भी उनके पास खुद के इतने पैसे होंगे कि वे लेनदारों, आपूर्तिकर्ताओं और कर्मचारियों को भुगतान कर कंपनी को बंद कर दें। उसके बाद ही कैडबरी के दिन फिर गए और आज भी पूरी दुनिया में कैडबरी को प्रतिष्ठित कंपनियों में गिना जाता है और कहना जरूरी नहीं होगा कि काफी हद तक इसका श्रेय सर जॉर्ज को जाता है।
दूसरा उदाहरण कुछ इस तरह का है। वर्ष 1982 में जब अमेरिका की 18 प्रमुख स्टील कंपनियों को कुल मिलाकर 3.2 अरब डॉलर का रिकार्ड नुकसान हुआ था तो उस दौरान भी कैलीफोर्निया में दो स्टील कंपनियों न्यूकर कॉरपोरेशन और चापैरल स्टील ने मुनाफा कमा कर दिखाया था। उनके मुनाफे का मूल मंत्र यही था कि उन्होंने वही किया जो किसी जापानी कंपनी ने किया होता। सबसे पहले शीर्ष प्रबंधन ने अपनी तनख्वाह को 50 फीसदी घटा दिया।
फिर उत्पादन डिविजन के लिए जिम्मेदार प्रशासनिक अधिकारियों ने अपनी तनख्वाह में 35 से 40 फीसदी की कटौती कर दी और तब सबसे आखिर में जाकर घंटे के हिसाब से काम करने वाले कर्मचारियों की तनख्वाह 20 से 25 फीसदी घटाई गई।
ऐसी संकट की घड़ी में भी किसी एक कर्मचारी तक को नौकरी से निकाला नहीं गया। पूरे संगठन ने इस संकट की घड़ी में अपनी कमर कस ली थी और उन्होंने मिलकर इससे मुकाबला किया। और याद रहे कि यह कैलीफोर्निया में हुआ था जापान में नहीं (उन पाठकों के लिए जो यह समझते हैं कि ऐसा केवल जापान में ही मुमकिन है)।
कर्मचारियों की छंटनी के बगैर कंपनी के खर्च में कटौती का उदाहरण हमें ताज होटल के समूह से भी मिलती है। सद्दाम हुसैन जब कुवैत गए थे तो उस दौरान पश्चिम एशिया पर भारी बमबारी की गई थी और इससे भारत के पर्यटन और होटल उद्योग पर सबसे अधिक असर पड़ा था। अगस्तसितंबर के दौरान यह संकट बढ़ा था और भारत में तब ही पर्यटन का मौसम शुरू हुआ था।
लोगों ने होटलों में अपनी बुकिंग रद्द करा दी। ताज समूह के लिए यह संकट का समय था। पर सीधे कर्मचारियों पर गाज गिराने के बजाय हमने कुछ अलग किया। सभी होटलों में खर्च में कटौती के लिए कार्यशालाएं आयोजित की गईं। इसमें कर्मचारियों से कहा गया कि वे अपनी अपनी तरफ से ऐसे सुझाव रखें जिनसे खर्च को कम किया जा सके।
कर्मचारियों को भरोसा दिलाया गया कि इस संकट से मिलकर मुकाबला किया जाएगा और किसी को भी काम से नहीं निकाला जाएगा। कर्मचारियों ने भी खर्च कम करने के हजारों सुझाव रखे और सब ने मिलकर इस संकट से मुकाबला किया। एक होटल में तो खाने के दाम 10 फीसदी तक घटा दिए गए और यह सुझाव रसोई में काम करने वालों की ओर से दिया गया था।
रिचर्ड बैश ने एक बार कहा था, ‘हर समस्या के साथ एक तोहफा जुड़ा होता है।’ माना कि आजादी के बाद भारत ने अब तक इतना बड़ा संकट नहीं देखा है पर अगर चाहें तो इसमें भी संभावना तलाशी जा सकती है।
जापानियों, न्यूकर, चापैरल, जॉर्ज कैडबरी और टाटा के उदाहरण हमारे सामने हैं। बस जरूरत है कि सच्चे नेता इनसे सीख लेते हुए आगे आएं और मुश्किलों का सामना मिलकर करें। इसके लिए सबसे पहले किसी भी कंपनी या संगठन के शीर्ष प्रबंधन को कमर कसनी होगी और आगे आना होगा। तभी वह अपने से निचले स्तर पर काम कर रहे कर्मचारियों से बेहतर प्रदर्शन की मांग कर सकते हैं।