सर्वोच्च न्यायालय ने संकेत दिया है कि किसानों के विरोध प्रदर्शन को हल करने के लिए एक समिति गठित की जाएगी। विरोध प्रदर्शन के कारण राष्ट्रीय राजधानी के बाहरी इलाके एकदम ठप हैं और समिति बनती है तो वह कारगर साबित हो सकती है। लेकिन यह योजना राजनीतिक नेतृत्व की ओर से आनी चाहिए थी, न कि न्यायाधीशों की ओर से। उच्चतम न्यायालय के तीन न्यायाधीशों के पीठ ने कहा कि इस समिति में देश भर के किसान संगठनों के प्रतिनिधियों के अलावा सरकार के कुछ प्रतिनिधि भी शामिल होंगे और यह कृषि कानूनों से जुड़े सवालों को हल करेगी। किसानों का विरोध इन्हीं कानूनों को लेकर है। निश्चित तौर पर नए कृषि कानूनों से उपजे वास्तविक मुद्दों के इर्दगिर्द रचनात्मक संवाद से हालात बेहतर बनाने में मदद मिलेगी। ऐसे में कहा जा सकता है कि एक लंबे गतिरोध की दिशा में बढ़ रहे किसान आंदोलन को हल करने की दिशा में यह एक कदम होगा।
इसके बावजूद कुछ बातें ऐसी हैं जो बेचैन करने वाली हैं। उदाहरण के लिए सरकार को बहुत पहले ही यानी किसान आंदोलन के शुरुआती दौर में ही चर्चा के लिए एक तयशुदा स्वरूप तैयार कर देना था। ऐसे प्रदर्शन जब काफी बड़ी परेशानी खड़ी कर दें तब उन्हें वैधता प्रदान करने के अलग खतरे हैं। पिछली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने इसकी कीमत उस समय चुकाई थी जब उसने भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के स्वयंभू नेताओं से बातचीत करने के लिए वरिष्ठ नेताओं को भेजा था। चाहे जो भी हो नए कानूनों के राजनीतिक और वितरण प्रभाव का प्रबंधन करना कार्यपालिका का काम है। ऐसा इसलिए क्योंकि सरकार ने मामले को हल करने में बहुत अधिक रुचि नहीं दिखाई और न्यायालय को समिति गठित करने का निर्णय लेना पड़ा। किसान नेता भी काफी हठ दिखा रहे हैं। केंद्रीय गृहमंत्री के साथ मुलाकात को लेकर उनकी नकारात्मक प्रतिक्रिया में यह स्पष्ट नजर आया। सरकार द्वारा गतिरोध समाप्त करने को लेकर जो लिखित प्रस्ताव दिए गए उन्हें भी नकार दिया गया। किसानों के लिए सरकार के प्रस्तावों में से कई अहम थे और किसानों की कुछ चिंताओं को हल करने में सक्षम थे। हां, ऐसा मशविरा कानून बनाने के पहले किया जाना चाहिए था लेकिन यदि अभी भी सरकार इच्छुक दिख रही है तो देर नहीं हुई है। सच यह है कि भले ही किसान इस समय सार्वजनिक चेतना के केंद्र में हैं लेकिन उन्हें समझना होगा कि ऐसे अशांतिकारक प्रदर्शन की अपनी सीमा है। खासतौर पर जब मामला कानून वापस लेने से जुड़ा हो।
सरकार को केवल प्रतीक्षा करनी है कि कब जनता का मिजाज प्रदर्शन के खिलाफ हो जाता है। उदाहरण के लिए अनिवार्य वस्तुओं की आपूर्ति में बाधा ने दिल्ली के निवासियों को परेशान करना शुरू कर दिया है। ऐसे में दोनों पक्षों के हित में है कि विवाद के असल मुद्दों पर तार्किक चर्चा की जाए। परंतु सरकार की ओर से कई तरह की बात होने से किसान उस पर यकीन नहीं कर रहे। प्रधानमंत्री ने हाल ही में देश को याद दिलाया कि लोकतंत्र, वार्ता और एक दूसरे को सुनने से ताल्लुक रखता है लेकिन उनके कुछ सहयोगी आंदोलनकारियों को टुकड़े-टुकड़े गैंग का बता रहे हैं। कहा जा रहा है कि प्रदर्शन में वामपंथी और माओवादी घुस आए हैं। इससे भ्रम बढ़ रहा है। यह किसी भी सरकार का दायित्व है कि उसके कानून जनता को स्वीकार्य हों और बिना अशांति के उनका क्रियान्वयन हो। ऐसे मामलों में न्यायालय निर्णय नहीं दे सकते। उन्हें यही देखना चाहिए कि कानून और संवैधानिक सिद्धांतों का पालन हुआ या नहीं। यदि कार्यपालिका किसानों के साथ बातचीत में समुचित प्रगति नहीं कर पाती और अदालत एक और मोर्चा खोल देती है तो यह सरकार के लिए दोहरी हार जैसा होगा।
