केंद्रीय वित्त मंत्रालय और ब्रिटेन की तेल कंपनी केयर्न एनर्जी के बीच अतीत से प्रभावी कर के विवाद के दशक भर पुराने मामले के निस्तारण को लेकर उच्चस्तरीय वार्ता के तीन दौर हो चुके हैं। गत वर्ष दिसंबर में एक पंचाट ने कहा था कि सरकार की मांग ब्रिटेन और भारत की द्विपक्षीय निवेश संधि का उल्लंघन करती है और अभी हाल ही में केयर्न एनर्जी ने पंचाट का निर्णय लागू कराने के लिए अमेरिका में विधिक प्रक्रिया शुरू की है। अब खतरा यह है कि केयर्न एनर्जी का 1.2 अरब डॉलर का बकाया चुकता करने के लिए कहीं विदेशों में भारत सरकार की कुछ संपत्ति जब्त न कर ली जाए। बहरहाल, सरकार पीछे हटने को तैयार नहीं दिख रही। कुछ रिपोर्ट में कहा गया है कि उसने केयर्न एनर्जी को यह विकल्प दिया है कि बकाया राशि का आधा हिस्सा चुकाने को तैयार है जिसमें ब्याज और जुर्माना शामिल नहीं होगा। जानकारी तो यह भी है कि भारत सरकार पंचाट के निर्णय के खिलाफ अपील करने पर विचार कर रही है और वह सर्वोच्च न्यायालय से कह सकती है कि वह यह घोषित करे कि निवेश संधि कर मांगों पर लागू नहीं होती। यह किसी प्रभुतासंपन्न सरकार का कदम कम और किसी अफसरशाह का रुख अधिक नजर आता है जो हरसंभव प्रयास कर रहा हो।
सरकार के लिए इकलौता उचित कदम यही होगा कि वह अतीत से प्रभावी कर मांग को पूरी तरह समाप्त करे। गत वर्ष के अंत में सरकार को वोडाफोन के खिलाफ भी मध्यस्थता में हार का सामना करना पड़ा था। उस मामले में सरकार की अतीत की तिथि से लागू कर मांग ने नीदरलैंड के साथ द्विपक्षीय निवेश संधि का उल्लंघन किया था। सरकार ने वोडाफोन मामले में अपील की थी और केयर्न के मामले में भी वह ऐसा करती नजर आ रही है। लेकिन यह गलती होगी। वोडाफोन हो या केयर्न, इसमें जो समय लगेगा और निवेश के माहौल पर इसका जो असर होगा वह किसी भी वित्तीय लाभ की तुलना में बड़ा नुकसान साबित होगा। चूंकि सरकार पहले ही बार-बार यह कह चुकी है कि वह अतीत से प्रभावी कर मांग में उस तरह यकीन नहीं करती जैसे कि पिछली सरकार करती थी। ऐसे में कर के मामले में संप्रभु अधिकार प्रवर्तन के उसके दावे केवल भ्रम बढ़ाएंगे और निवेश के माहौल पर बुरा असर डालेंगे।
केयर्न कोई अविश्वसनीय कंपनी नहीं है। भारत में अपने कारोबार के दौरान कंपनी देश के हालिया इतिहास की सबसे बड़ी ऊर्जा खोजों में से एक में शामिल रही थी। कर संबंधी मसलों ने पहले ही भारत को लेकर उसकी धारणा को प्रभावित किया है और वोडाफोन की तरह वह भी शायद ही भारत में कोई निवेश करना चाहे। निजी निवेश के लिए जूझ रहे देश के लिए यह नीति आत्मघाती है।
सरकार ने कारोबारी सुगमता और कर प्रशासन सुधार को उचित ही वरीयता दी है। मध्यस्थता के इन निर्णयों को अतीत की विरासत के रूप में देखा जाना चाहिए जबकि हालिया कारोबारी सुधारों के दौर में इनसे निजात मिल जानी थी। जैसा कि प्रधानमंत्री ने हाल में संसद में कहा उस भावना के अनुसार भी देखें तो सुधारोन्मुखी रहने के लिए बेहतर होगा कि देश में निवेश करने वाली कंपनियों के पीछे इस तरह न पड़ा जाए कि वे अपने निर्णय पर पछताएं। अतीत की तिथि से कर की मांग देश का संप्रभु अधिकार हो सकता है लेकिन इसमें दो राय नहीं कि इससे नीतिगत स्थिरता नष्ट होती है और निवेशकों के मन में आशंका पैदा होती है। फिलहाल सरकार जिस तरह इस राशि को वसूल करने का प्रयास कर रही है, उससे कारोबारी सुगमता की सारी बातें खोखली नजर आती हैं।
