ओटीटी प्लेटफॉर्म सोनी लिव पर हाल ही में प्रसारित वेब सीरीज ‘हर्षद मेहता: फाइनैंशियल मार्केट्स स्कैंडल्स’ उस घटना पर आधारित है जिसने नब्बे के दशक की शुरुआत में पूरे देश को हिलाकर रख दिया था। यह घोटाला भारत की वित्तीय व्यवस्था में कुछ बड़े सुधारों का सबब बना। प्रतिभूति घोटाला असल में फंडों की हेराफेरी का मामला था। एक अनुमान के मुताबिक 1991-92 के दौरान 3,500 से लेकर 5,000 करोड़ रुपये तक की हेराफेरी अंतर-बैंक सरकारी प्रतिभूति (जी-सेक) बाजार से शेयर बाजार तक की गई थी। इस फंड का इस्तेमाल स्टॉक कीमतों में कृत्रिम तेजी दिखाने के लिए किया गया था।
भारत सरकार एवं देश की संसद ने इस घटना के बाद तीन चरणों में प्रतिक्रिया दी थी। पहले चरण में हमें पूंजी बाजार के नियमन के लिए भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) के गठन के साथ ही दो नए प्रतिभूति ढांचागत संस्थान- नैशनल स्टॉक एक्सचेंज और नैशनल सिक्योरिटीज डिपॉजिटरीज लिमिटेड भी सामने आए। दूसरे चरण में हमें एक आधुनिक डेरिवेटिव बाजार मिला जो जोखिम कम करने एवं कीमत खोज को बेहतर करने के लिए था। तीसरे चरण में हमें सेबी एवं फारवर्ड मार्केट्स कमीशन का सम्मिलन देखने को मिला। इसका मकसद भारत में सभी संगठित वित्तीय कारोबारों को मिलाकर एक्सचेंज एवं नियामकीय संस्थानों का एक समूह तैयार करना था।
इस सफर में हम कहीं 1992 के शेयर घोटाले की असली वजह ही भूल गए। उस समस्या के मूल में अंतर-बैंक जी-सेक बाजार था। उस समय भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) अपने सार्वजनिक ऋण कार्यालय विभाग (पीडीओडी) के माध्यम से सार्वजनिक ऋण का प्रबंधन करता था। इस मामले पर गठित संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) ने कहा भी था कि पीडीओडी सरकारी प्रतिभूतियों में लेनदेन की अनियमितताओं के संबंध में अपनी जिम्मेदारी निभाने में नाकाम रहा। पीडीओडी की वजह से बैंकर रसीद (बीआर) का दुरुपयोग भी हुआ। जेपीसी ने निष्कर्ष निकाला कि बीआर के दुरुपयोग की जड़ें पीडीओडी के ठीक से काम न करने में निहित थीं और आरबीआई का भी पर्यवेक्षण असरदार नहीं रहा। समिति ने यह भी कहा था कि ‘आरबीआई के भीतर निगरानी की व्यवस्था केवल स्वरूप में मौजूद थी और उसमें असर एवं सार दोनों का ही अभाव था’। यह काफी बड़ा कलंक है।
केंद्रीय बैंक के सार्वजनिक ऋण प्रबंधन से कई तरह की समस्याएं होने से आर्थिक एवं वित्तीय नीति पर तमाम नकारात्मक प्रभाव देखने को मिलते हैं। हितों का एक टकराव अल्पावधि ब्याज दर निर्धारण (जो कि मौद्रिक नीति का अंग है) एवं सरकार की तरफ से बॉन्ड की बिक्री के बीच होता है। अगर केंद्रीय बैंक एक प्रभावी ऋण प्रबंधक होने की कोशिश करता है तो यह बॉन्ड को ऊंची कीमतों पर बेचना चाहेगा, यानी ब्याज दरों को नीचे रखेगा। इससे मौद्रिक नीति में एक मुद्रास्फीतिकारी पूर्वग्रह पैदा होता है। वैसे आरबीआई को मुद्रास्फीति निर्धारण का कानूनी रूप से दायित्व सौंपकर इस समस्या का आधा समाधान कर दिया गया है। लेकिन सरकार के ऋण प्रबंधक के रूप में आरबीआई रूपी आधी समस्या तो अब भी बरकरार है।
सार्वजनिक ऋण की देखरेख करने वाले आरबीआई के पास बैंक नियमन का भी दायित्व होना हितों का एक और टकराव है। जब आरबीआई बॉन्ड बिक्री का अपना दायित्व अच्छी तरह निभाने की कोशिश करता है तो वह बैंकों पर अपनी नियामकीय ताकत का इस्तेमाल कर उन्हें अधिक सरकारी बॉन्ड रखने के लिए बाध्य भी कर सकता है। बैंकों के रूप में बंधक खरीदार होने से सरकारी प्रतिभूतियों के एक मजबूत एवं तरल बाजार की वृद्धि व्यावसायिक कारोबार एवं अटकल-आधारित कीमत तय होने से प्रभावित होती है। आरबीआई के लिए सामान्य समय में बंधक खरीदारों को सरकारी बॉन्ड बेचना काफी आसान है लेकिन 2020 जैसे असामान्य वक्त में बॉन्ड के स्वैच्छिक खरीदारों का विविधीकृत समूह न होने से घाटा बढऩे लगता है।
एक तरल एवं सक्षम सरकारी बॉन्ड बाजार बनाने में मिली नाकामी ने कॉर्पोरेट बॉन्ड बाजार के विकास को भी प्रभावित किया है जिसके लिए एक कारोबार-लायक एवं सीमा-योग्य सरकारी बॉन्ड प्रतिफल वक्र की बुनियाद की दरकार होती है। जब केंद्रीय बैंक सरकारी प्रतिभूति बाजारों के लिए बाजार ढांचे को नियंत्रित करता है तो इससे एक और संघर्ष पैदा होता है जहां इन व्यवस्थाओं का मालिक या प्रशासक खुद बाजार में सहभागी भी है।
ऋण प्रबंधन के काम को आरबीआई से अलग करना इन टकरावों को दूर करने के लिए अहम है। इस प्रारूप में आरबीआई मौद्रिक नीति यानी घरेलू कारोबार चक्र को स्थिर रखने के लिए अल्पावधि ब्याज दर में संशोधन पर ध्यान केंद्रित करता है। ऋण प्रबंधन कार्यालय सरकार के निवेश बैंकर के रूप में काम करता है जो बॉन्ड की बिक्री करता है और अपने ग्राहक (वित्त मंत्रालय के बजट प्रभाग) के साथ करीबी तालमेल कर दूसरे पोर्टफोलियो प्रबंधन कार्यों में संलग्न होता है। इनमें से हरेक एजेंसी की एक साफ तवज्जो होती है, विशेषीकृत पेशेवर दक्षता का निर्माण होता है और हितों के टकराव को न्यूनतम किया जाता है।
यह कोई नया विचार नहीं है, यह बौद्धिक स्पष्टता तो 1990 के दशक की शुरुआत से ही मौजूद रही है। वित्तीय क्षेत्र के सुधार पर गठित नरसिम्हन समिति (1991) ने एक ही संस्थान द्वारा ऋण प्रबंधन एवं बैंक नियमन दोनों ही काम करने से जुड़े टकरावों की साफ तौर पर पहचान की थी। ऋण प्रबंधन को मौद्रिक प्रबंधन से अलग करने पर गठित कार्य समूह ने दिसंबर 1997 में आरबीआई को सौंपी अपनी रिपोर्ट में इन दोनों कार्यों को अलग करने और ऋण प्रबंधन का काम देखने के लिए एक कंपनी बनाने की अनुशंसा की थी। आरबीआई की वार्षिक रिपोर्ट 2000-01 में ऋण एवं मौद्र्रिक प्रबंधन से जुड़े कार्यों को मध्यम अवधि में अलग करने और ऋण प्रबंधन को आरबीआई के दायरे से पूरी तरह बाहर करने की बात कही गई थी।
ऋण बाजार सुधारों की दिशा में पहला महत्त्वपूर्ण कदम मौजूदा सरकार ने वर्ष 2015 में एक मसौदा कानून संसद में लाकर उठाया था लेकिन बाद में इसे वापस भी ले लिया गया। ऐसा लगता है कि उसके बाद से इस सवाल पर मुख्यधारा की सोच ही अलग हो गई है। आरबीआई को इस बारे में पूरी स्पष्टता है कि उसे केवल 4 फीसदी मुद्र्रास्फीति लक्ष्य पर ही ध्यान केंद्रित करना चाहिए और बाकी सभी दायित्वों से मुक्त हो जाना चाहिए। मसलन, सेंटर फॉर एडवांस्ड फाइनैंशियल रिसर्च ऐंड लर्निंग के प्रमुख रहे प्रोफेसर अमत्र्य लाहिरी ने अपने एक लेख में कहा है कि भारत के वित्तीय ढांचे को नए सिरे से बनाने के लिए तीन सुधारों की जरूरत है जिनमें से एक यह है कि आरबीआई को सार्वजनिक ऋण प्रबंधन की अपनी भूमिका से निजात पाने की जरूरत है। उन्होंने ऊर्जित पटेल और विरल आचार्य की हालिया किताबों का भी उल्लेख किया। आरबीआई के मौजूदा गवर्नर के रूप में हमारे पास एक ऐसे व्यक्ति हैं जो ऊपर वर्णित सभी संघर्षों से असल में निपटते रहे हैं और उनके बीच तालमेल बिठाने की मुश्किल कवायद में लगे रहे हैं।
इन कारकों का यह सम्मिलन बताता है कि इस समस्या पर गौर करने एवं उसके समाधान का यह एक बढिय़ा वक्त है।
(लेखक भारत सरकार के सेवानिवृत्त सचिव और एनसीएईआर के प्रोफेसर हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं)
