आखिरकार 25 दिन की देरी से ही सही, आर्यन खान जेल से बाहर आ चुके हैं। इस मामले के बारे में हम जितना जानते हैं, उससे यही पता चलता है कि उनकी गिरफ्तारी, जेल में बंद करने और उन पर इतने कठोर कानून के तहत मामला दर्ज करने को उचित ठहराने की कोई वजह नहीं है। बहरहाल उनके इस प्रकरण से समीर दाऊद/ज्ञानदेव वानखेडे के रूप में हमें एक और ‘सितारा’ मिल गया है।
कुछ लोगों के लिए वह आरक्षण में धोखाधड़ी करने वाले व्यक्ति हैं जिन्होंने नौकरी में अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित जगह हथियाई और अपना मुस्लिम होना छिपाया। इसमें कोई दिक्कत नहीं सिवाय इस बात के कि उन्हें जाति आधारित आरक्षण नहीं मिलता। दूसरों के लिए वह एक मुस्लिम और एक दलित हैं जिन्हें कुलीन तबका परेशान कर रहा है क्योंकि वह उनके पीछे पड़े।
कुछ लोगों के लिए वह ब्लैकमेल करने वाले हैं जिन्होंने चर्चा और कथित तौर पर वसूली के लिए अमीर और प्रसिद्ध लोगों को निशाना बनाया, खासकर बॉलीवुड के लोगों को। दूसरों के लिए वह एक साहसी व्यक्ति हैं जिन्होंने अपना काम करना तय किया चाहे सामने कितने ही प्रभावशाली लोग हों।
हम पक्ष नहीं ले सकते, न ले रहे हैं। क्योंकि हमारे पास तथ्य नहीं हैं। आप अभी देश के कितने आईएएस अधिकारियों के नाम ले सकते हैं? अपने परिजन या दोस्तों के नहीं बल्कि हाल में सुर्खियों में रहने वाले अधिकारियों में से? या आईपीएस अधिकारियों के? या फिर भारतीय राजस्व सेवा (आईआरएस) के अधिकारियों के जिनसे हमारा आम जीवन में न के बराबर पाला पड़ता है। मैं शर्तिया कह सकता हूं कि यदि आपको किसी आईआरएस अधिकारी का नाम याद होगा तो वह हैं समीर वानखेडे। वह वर्तमान ही नहीं बल्कि काफी लंबे समय में देश के सबसे प्रसिद्ध आईआरएस अधिकारी हैं। आईएएस और आईपीएस जैसी दो अन्य अखिल भारतीय सेवाएं भी हाल के दिनों में किसी अच्छी वजह से सुर्खियों में नहीं रहीं।
पूर्व नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक विनोद राय ने कांग्रेस नेता संजय निरुपम पर 2जी मामले में गलत आरोप लगाने के लिए माफी मांगी। उन्होंने 2007 में इस कथित घोटाले में 1.76 लाख करोड़ रुपये के नुकसान की बात कही थी। जाहिर है यह राशि अतिरंजित थी। लेकिन उस वक्त माहौल था कि उनसे तर्क करने पर भ्रष्टाचार समर्थक ठहराया जा सकता था। अब वह किस्सा सामने आ चुका है और वह दूरसंचार क्षेत्र की मुश्किलों की बड़ी वजह है। कोयले के साथ भी ऐसा ही हुआ।
अब आईपीएस अधिकारियों की बात करते हैं। जिस मुंबई ने हमें वानखेडे जैसा जोनल नारकोटिक्स प्रमुख दिया, जो अब अपने बचाव में उस युवा का बयान उद्धृत कर रहा है जिसे उन्होंने ऐसे अपराध का आरोपी बनाया है जिसके साबित होने पर 10 वर्ष की जेल भी हो सकती है (उनका कहना है कि आर्यन ने भी उनके खिलाफ जबरन वसूली का इल्जाम नहीं लगाया है), उसी मुंबई ने ऐसा पुलिस आयुक्त भी दिया है जो फरार है। पूरी महाराष्ट्र पुलिस अपने सबसे वरिष्ठ अधिकारियों में से एक को नहीं तलाश पा रही है और उसके खिलाफ गैर जमानती वारंट जगह-जगह चिपकाए जा रहे हैं। यदि आईपीएस, आईआरएस और आईएएस हमारी अफसरशाही की त्रयी हैं और परमवीर सिंह, समीर वानखेडेे और विनोद राय जैसे नाम इन बुरी सुर्खियों में उनके प्रतिनिधि हैं तो इससे क्या पता चलता है? हमने यह क्रम जानबूझकर चुना। आईपीएस का नाम शीर्ष पर क्योंकि वह फरार है और उन पर कई आपराधिक आरोप हैं। आईआरएस इसके बाद क्योंकि वह गिरफ्तारी से बचने के लिए अदालत की शरण में हैं और उन्हें अपने आचरण को लेकर कई सवालों के जवाब देने हैं। आईएएस सबसे अंत में क्योंकि विनोद राय के बारे हम इतना जानते हैं कि उन पर कोई वित्तीय आरोप नहीं है।
तीनों अपनी-अपनी तरह से अफसरशाही को लेकर बुरी तस्वीर ही पेश करते हैं। हमारे लाखों प्रतिभाशाली युवा वर्षों तक इन सेवाओं में प्रवेश के लिए तैयारी करते हैं। उनके मातापिता आनी जमीन और पालतू पशु इस आशा में बेच देते हैं कि एक दिन हमारा बच्चा यूपीएससी निकालेगा। इसके बाद दिलों में गर्व और आंखों में चमक लिए अकादमियों में दाखिल होते हैं। उनमें काफी आदर्शवाद होता है और यह मैं इन अकादमियों में नए भर्ती युवाओं से बातचीत के आधार पर कह रहा हूं। मेरा नजरिया कभी सबको चोर मानने का नहीं बल्कि हमेशा इसके उलट रहा है। परमवीर सिंह के अलावा उसी पुलिस सेवा में हजारों अन्य लोग हैं जो बहुत कम सरकारी वेतन के बावजूद अपना काम ईमानदारी और गंभीरता से करते हैं। यही बात आईआरएस और आईएएस पर भी लागू होती है। बस हम उनके बारे में जानते नहीं।
एक बार फिर पहेलीनुमा सवाल: कैबिनेट सचिव, खुफिया ब्यूरो के निदेशक और केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड के चेयरपर्सन के पदों पर काम कर चुके छह पूर्व अधिकारिेयों के नाम बताइए। यदि प्रत्येक पद के छह पूर्ववर्तियों यानी कुल 18 नाम याद किए तो मैं आपकी सराहना करुंगा लेकिन दुख की बात है कि आपको केवल तीन नाम याद आएंगे जो आज सुर्खियों में हैं। हो सकता है कुछ लोगों को उस युवा आईएएस का नाम याद आ जाए जिसने हरियाणा में पुलिस से किसानों का सर फोडऩे को कहा था या फिर छत्तीसगढ़ के उस अधिकारी का जिसने लॉकडाउन का उल्लंघन करने पर एक व्यक्ति का कैमरा तोड़ दिया था। अच्छे लोगों पर किसी का ध्यान नहीं जाता जबकि वे पेशेवर और नियमों का पालन करने वाले होते हैं।
लोगों ने सन 1993 में आई मेहुल कुमार की फिल्म तिरंगा का एक दृश्य खोज निकाला है जहां राज कुमार अपनी जेब से दो कागज निकाल कर एक भ्रष्ट पुलिस अधिकारी के सामने रखते हैं और कहते हैं कि एक जेल से मेरी रिहाई का कागज है और दूसरा तुम्हारी गिरफ्तारी का। दृश्य को यह कहते हुए साझा किया जा रहा है कि आर्यन खान वानखेडे से ऐसा कह रहे हैं।
फिल्म के इस दृश्य को तलाश कर देखिए। राज कुमार पुलिस अधिकारी से पूछते हैं कि तुम इस सेवा में आए, यह वर्दी पहनी तो क्या शपथ ली थी तुमने? फिर वह शपथ पढ़कर सुनाते हैं जो अखिल भारतीय सेवा में शामिल होने वाला अधिकारी अनिवार्य रूप से लेता है: ‘मैं शपथ लेता हूं कि मैं भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखूंगा…मैं अपने पद के दायित्वों का पूरी ईमानदारी, वफादारी और निष्पक्षता के साथ निर्वहन करूंगा।’
हमने जिन अधिकारियों का जिक्र किया क्या वे इस शपथ के प्रति ईमानदार थे? यह सवाल हम इन अधिकारियों पर छोड़ते हैं। यह सवाल इन सेवाओं के अन्य अधिकारियों को भी खुद से पूछना चाहिए जो छात्रों को राजद्रोह और यूएपीए के तहत बंदी बना रहे हैं क्योंकि उन्होंने किसी क्रिकेट टीम का समर्थन किया या ग्रेटा थनबर्ग की टूलकिट साझा की या किसी ऐसे व्यक्ति पर आरोप लगा दिए जिन्हें उनके राजनीतिक आका उसे ‘ठीक’ करना चाहते हैं। 2021 में उनकी स्थिति सात दशक पहले के सोवियत सेवक लावें्रती बेरिया से कम नहीं है जो हर उस आदमी को गिरफ्तार कर लेता था जिससे स्टालिन को चिढ़ थी। स्टालिन पूछते कि तुम फलां आदमी को किस आरोप में पकड़ोगे तो वह कहता कि आप आदमी का नाम बताइए, आरोप मैं लगा दूंगा।
पुराने आईसीएस अधिकारियों में एसएस खेड़ा का नाम याद कीजिए जो बहुत कम चर्चा में रहे। वह सन 1962-64 में देश के पहले सिख कैबिनेट सचिव भी रहे। उन्होंने 1947 में मेरठ में विभाजन के दंगे रोकने के लिए टैंकों का इस्तेमाल किया था। वह नाम कमाने के इच्छुक अफसरशाहों को पसंद नहीं करते थे। वह मानते थे कि अखबार में एक बार नाम छपना आपके ऊपर एक काला धब्बा है। दो बार नाम छपना यानी आपकी एसीआर खराब होना और फोटो छपने का अर्थ है नौकरी से निकाले जाने की तैयारी। छह दशक में चीजें बदल गई हैं। लेकिन हमने यह भी देखा कि नाम और शोहरत की भूख ने कुछ अधिकारियों के साथ क्या किया।
