पिछले एक दशक या उससे भी ज्यादा समय से जहां अनाज के उत्पादन में ठहराव सा आ गया है, वहीं मक्के की फसल ने नई-नई ऊंचाइयों को छू रही है।
पिछले 10 साल में इसका उत्पादन हर साल 4.5 फीसदी की जबरदस्त रफ्तार से बढ़ रहा है। इस साल तो मक्के का 1.85 करोड़ टन उत्पादन हुआ है। इसकी वजह सिर्फ उस क्षेत्र का इजाफा नहीं है, जहां मक्के की खेती की जाती है। इस रिकॉर्ड उत्पादन की असल वजह तो उत्पादकता में हुई बढ़ोतरी है।
नामी-गिरामी कृषि विज्ञानी एम.एस.स्वामीनाथन ने तो इसे एक लघु क्रांति की संज्ञा तक दे डाली है, जिसके जनक भारतीय वैज्ञानिक हैं। इन वैज्ञानिकों ने मक्के की ऐसी संकर किस्में (हाईब्रिड वैराइटी) बनाईं जो ना केवल अच्छी पैदावार देती है, बल्कि पौष्टिकता के मामले में भी बेहतर है।
स्वामीनाथन और दूसरे कृषि वैज्ञानिकों ने इस महीने की शुरुआत में ट्रस्ट फॉर एडवांसमेंट ऑफ एग्रीकल्चर साइंसेज (तास) और मक्का शोध निदेशालय की दिल्ली में आयोजित एक परिचर्चा में हिस्सा लिया था। इस परिचर्चा में इन सभी ने एक स्वर में यह बात कही कि मक्के की नई संकर किस्मों में भरपूर मात्रा में उम्दा किस्म का प्रोटीन मौजूद है, जो देश पर छाए अनाज संकट के बादलों को दूर कर सकता है।
इस बात में कोई शक नहीं है कि मक्का एक जबरदस्त फसल है, जिसे उतना सम्मान नहीं मिला जितने की वह हकदार थी। यह इंसानों के लिए तो एक बेहतरीन खाना है ही। इसके अलावा, यह मुगियों, मछलियों और मवेशियों के लिए एक बेहतरीन खाने के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता है। साथ ही, इसे स्ट्राच और दूसरे उत्पादों के निर्माण में भी इसका इस्तेमाल औद्योगिक कच्चे माल के रूप में होता है।
अमेरिका और दूसरे कुछ मुल्क में इसे बॉयोफ्यूल बनाने में भी काम में लाया जाता है। लोगों का मक्के की तरफ से मुंह मोड़ने की बड़ी वजह इसमें घटिया क्वालिटी के प्रोटीन का होना था। इसमें दो अहम अमिनो एसिड्स, लाइसिन और ट्राईपोटोफैन मौजूद नहीं थे। मक्का का उत्पादन करने वाले लंबे समय तक इस मुद्दा का जिक्र आते ही बगलें झांकने लगते थे।
दरअसल, किसी चीज में प्रोटीन की क्वालिटी और उसमें मौजूद प्रोटीन की मात्रा के बीच उल्टा संबंध होता है। मतलब कि अगर किसी चीज में प्रोटीन की मात्रा अच्छी होती है, तो उस प्रोटीन की क्वालिटी काफी घटिया होती है। इसलिए मक्के की फसल में प्रोटीन की क्वालिटी को सुधारने के लिए उसमें मौजूद प्रोटीन की मात्रा को काफी कम करने की जरूरत थी।
इस दिक्कत पर अब विजय पाई जा चुकी है। मैक्सिको की इंटरनैशनल रिसर्च सेंटर फॉर मेज एंड व्हीट (सीआईएमएमवाईटी) के नामी मक्का वैज्ञानिक सुरिंदर वसल ने मक्के के डीएनए में ‘ओपेक 2’ नाम का एक ऐसे जीन को डालने में सफलता हासिल कर ली है, जिससे उसमें प्रोटीन की क्वालिटी में काफी सुधार आ जाता है। वह भी उसमें प्रोटीन की मात्रा कम किए बगैर।
इसकी वजह से भारत और दुनिया भर में पौष्टिकता से भरपूर मक्के की संकर किस्मों के रिसर्च में काफी तेजी आ गई, जिससे इस क्षेत्र में जैसे क्रांति ही आ गई। मजे की यह है कि मक्के की बेहतरीन सिंगल क्रास हाइब्रिड फसलों में से कुछ का विकास भारत में ही सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों ने किया है। इसे भी अहम बात यह है कि इन सभी किस्मों का किसानों ने बढ़ चढ़ कर इस्तेमाल किया।
दरअसल, मक्के को भविष्य में खाद्यान्न फसलों में शुमार किए जाने की सोच चल रही है, उसके पीछे दो वजहें हैं। पहली तो यह कि यह रबी और खरीफ, दोनों मौसमों में उगाया जा सकता है। हकीकत तो यह है कि रबी के मौसम में मक्के का औसत उत्पादन खरीफ सीजन के उत्पादन का करीब 2.3 गुना होता है। रबी के मौसम में एक हेक्टयर में औसतन 3.8 टन मक्के का उत्पादन होता है, जबकि खरीफ सीजन में प्रति हेक्टयर 1.66 टन का औसत उत्पादन होता है।
वैसे देश का साल भर का औसत उत्पादन लगभग दो टन प्रति हेक्टयर है। दूसरी बड़ी वजह मक्के की तेजी से बढ़ती डिमांड है, जिसकी वजह से किसानों को खूब फायदा हो रहा है। इसी वजह से तो किसान इसकी तरफ खिंचे चले आ रहे हैं। आज की तारीख में मक्के की 60 फीसदी उत्पादन का इस्तेमाल मवेशियों और मुर्गियों के लिए चारे के तौर होता है।
मक्के की डिमांड तो बढ़ने वाली है, इसे तय ही माना जा रहा है। इसके पीछे बड़ी वजह यह है कि पोल्ट्री उद्योग का विकास प्रतिवर्ष 11 से 12 फीसदी की रफ्तार से बढ़ाकर अगले कुछ सालों में 15 फीसदी प्रतिवर्ष हो जाएगा। इसकी वजह चिकन और अंडे की बढ़ती डिमांड है। नए जीन से लैस मक्के की संकर फसल से पैदा होने वाला क्वालिटी प्रोटीन मक्का (आमतौर पर इसे क्यूवीएम के नाम से जाना जाता है) से अब लोगों और मवेशियों को कम कीमत पर अच्छी पौष्टिकता हासिल हो पाएगी।
बिहार सरकार ने एक अनोखी पहल के तहत स्कूली बच्चों को दिए जाने वाले मिड डे मिल में क्वालिटी प्रोटीन मक्का शामिल करना शुरू कर दिया है। पश्चिम बंगाल सरकार ने भी क्यूपीएम हाइब्रिड बीजों के उत्पादन और उनके वितरण के लिए पूरी योजना बना ली है। इन बीजों की मदद से सूबे में मक्के की औसत पैदावार करीब सात टन प्रति हेक्टयर हो जाएगी। जाहिर सी बात है, दूसरे राज्यों को भी ऐसे ही कदम उठाने चाहिए।
हालांकि, इसके लिए पहले सरकार को प्राथमिकता के आधार पर अपनी कुछ नीतियों में बदलाव करना चाहिए। आज की तारीख में भी ज्यादातर हाइब्रिड बीजों का उत्पादन सार्वजनिक क्षेत्र में होता है, जहां बीजों के उत्पादन की क्षमता काफी सीमित है। इसलिए बीजों के उत्पादन और वितरण में निजी क्षेत्र को भी शामिल करना ही पड़ेगा। इसके क्यूपीएम वैराइटी वाले मक्के की मार्केटिंग अलग से करनी चाहिए, ताकि उनकी कीमतों पर नियंत्रण रखा जा सके।