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  लेख  बोलती रेखाओं से यूं होती बयां सियायत की दास्तां
लेख

बोलती रेखाओं से यूं होती बयां सियायत की दास्तां

बीएस संवाददाता बीएस संवाददाता —November 21, 2008 10:40 PM IST
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दक्षिण एशियाई देशों में राजनेता जनता के भले के लिए काम नहीं करते, बल्कि वे कार्टूनिस्टों का भला करते हैं।


पिछले हफ्ते जब काठमांडू में दक्षिण एशियाई देशों के कार्टूनिस्टों की पहली कांग्रेस आयोजित हुई तो इस बात पर सर्वसम्मति बन गई कि इन देशों के राजनेता ऐसा ही करते हैं। इस कांग्रेस में भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश के 40 कार्टूनिस्ट शामिल हुए।

यह ‘कटाक्ष’ इस आयोजन में बड़ा आम हो गया। हिमाल साउदेशियन ने इसको आयोजित किया था। इस दौरान क्षेत्र में राजनीतिक कार्टूनिंग पर एक गोष्ठी भी आयोजित की गई। जिसमें कई कार्टूनिस्टों और विद्वानों ने अपना पक्ष रखा।

कांग्रेस में नेपाली कार्टूनों की प्रदर्शनी को दिखाया गया। साथ ही मरहूम कार्टूनिस्ट अबू अब्राहम के काम का प्रदर्शन भी किया गया। इस कांग्रेस में भारतीय कार्टूनिस्ट मंजुला पद्मनाभन ने भी शिकरत की जो अपने स्ट्रिप कार्टून ‘डबल टॉक (जिसमें सुकी का कैरेक्टर होता है।)’ के लिए जानी जाती हैं।

कार्टूनिस्ट हैं खास

वह कहती हैं, ‘ कार्टूनिंग तनाव को कम करने वाला काम है। हम सब मौत के खतरे से अच्छी तरह वाकिफ होते हैं और कार्टूनिंग इस तरह के तनाव को कम करने में मदद करती है। ‘ हालांकि, वह यह बात भी स्वीकार करती हैं कि कार्टूनिस्ट होने के लिए यह जरूरी नहीं है कि कार्टूनिस्ट बहुत ही मजाकिया स्वभाव का हो। वह कहती हैं, ‘आम तौर पर वे इससे बिल्कुल उलट स्वभाव के होते हैं।’

सुधीर तेलंग जाने माने कार्टूनिस्ट हैं। काफी अरसे तक ‘द हिंदुस्तान टाइम्स’ से जुड़े रहे हैं। फिलहाल एशियन एज के साथ हैं। उनका मानना है कि इस क्षेत्र में आने वाले वक्त में कार्टूनिस्टों की प्रजाति ही विलुप्त हो सकती है। तेलंग इसकी वजह क्षेत्र में राजनीतिक गतिविधियों को मानते हैं।

उनकी राय है कि मौजूदा दौर के राजनीतिक नेता असल में ‘कार्टून’ ही हो गए हैं। ‘ऐसे में असली कार्टूनों को कार्टून थोड़े ही बनाया जाएगा’ उनका कहना है।

राजनीति पर कटाक्ष

जहां तक देश में राजनीतिक कार्टूनिंग की बात है तो इस विधा से कुछ बड़े नाम जुड़े रहे हैं। इनमें खास तौर से शंकर, ओ वी विजयन, अबू अब्राहम, कुट्टी और राजिंदर पुरी जैसे नाम खासतौर से लिए जा सकते हैं।

इन लोगों ने न केवल कार्टून बनाकर ख्याति अर्जित की बल्कि संपादकीय और मौलिक लेखन में इनका बड़ा नाम रहा है। इनमें से कई यह कहते मिल जाएंगे कि भारतीय मीडिया के इतिहास में कई बार में कार्टून, लफ्जों पर भारी पड़े हैं।

जहां तक आजाद भारत के राजनीतिक इतिहास की बात है तो इसमें तीन बड़ी महत्त्वपूर्ण घटनाएं हुई हैं जिन्होंने पूरे परिदृश्य पर ही अपनी छाप छोड़ी है। पहली घटना आपातकाल के रूप में हुई, दूसरी बाबरी मस्जिद विध्वंस और तीसरी घटना गुजरात में गोधरा कांड के बाद भड़की हिंसा के रूप में हुई।

यह वह दौर था, जब कार्टूनिस्टों के कार्टून भारी भरकम संपादकीयों पर भारी पड़ रहे थे। घृणा और नफरत की राजनीति और तानशाही के दौर में उनकी पेंसिल से खिंची रेखाओं ने भारी भरकम लेखों की तुलना में ज्यादा प्रभाव छोड़ा। आप इनके काम से अंदाजा लगा सकते हैं कि अपने मनोभावों को व्यक्त करने के लिए इन लोगों ने कितनी बखूबी से अपनी कला का इस्तेमाल किया।

संपादकीय कार्टूनिस्ट ‘कटाक्ष’ वाले राजनीतिक संदेश देने में कामयाब रहे। बावजूद कुछ सीमाओं के इन्होंने अपने काम के साथ हमेशा न्याय किया। कार्टूनों में राजनेताओं पर व्यंग्य और कटाक्ष के बाणों की बौछार होती रही।

यह कांग्रेस हिमाल के संपादक कनक मणि दीक्षित की अगुआई में आयोजित की गई। दीक्षित की भूमिका भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं रही। उन्होंने कमेंट्री और आलोचना के अधिकार की रक्षा करने में खासी अहम भूमिका अदा की है।

मुश्किलें भी हैं राह में

 इस कांग्रेस में कई अहम मुद्दे उठे। मसलन, दक्षिण एशिया के अधिकांश हिस्से में अभी भी कायम मीडिया सेंसरशिप का मसला। इसके अलावा स्थानीय भाषाओं के माध्यम में कार्टूनिंग करने का मामला भी इस कांग्रेस में जोर शोर से उठा।

कार्टूनिस्टों की कई बातों में एक ही सुर नजर आए। नेपाल के दुर्गा बराल (‘वात्स्यायन’), बांग्लादेश के अरिफुर रहमान और पाकिस्तान के  फ्राइडे टाइम्स के कार्टूनिस्ट सबीर नजर का मानना है कि इस क्षेत्र में राजनीति पर कार्टून बनाना न केवल गंभीर काम है बल्कि बहुत जोखिम भरा भी है।

कई बार सरकार से खतरा रहता है तो वहीं दूसरे राजनीतिक दलों की धमकियां भी मिलती रहती हैं। अलगाववादियों (असम, मणिपुर और पेशावर जैसी जगहों पर)के साथ-साथ धार्मिक संगठनों के हमले का भी डर बना रहता है। इस परिप्रेक्ष्य में दिल्ली के कार्टूनिस्ट इरफान का ही उदाहरण लें। इरफान एक दिन अचानक गायब हो गए और कुछ दिनों के बाद उनका शव रहस्यमय परिस्थितियों में पाया गया।

इस गुत्थी को आज तक नहीं सुलझाया जा सका। बांग्लादेश के कार्टूनिस्ट अरिफुर रहमान को कट्टपरपंथियों से लगातार धमकियां मिलती रही हैं। इन चरमपंथियों के फरमान की नाफरमानी की वजह से अरिफुर रहमान इनके निशाने पर रहते हैं। लेकिन रहमान पर इसका कोई फर्क नहीं पड़ा और वह अपने काम को बदस्तूर जारी रखे हुए हैं।

अपने बेबाक अंदाज के लिए मशहूर पाकिस्तान के कार्टूनिस्ट रफीक अहमद (‘फीका’) कहते हैं कि वह ऐसे माहौल में पले-बढ़े हैं जहां पर ड्रॉइंग करना किसी ‘पाप’ से कम नहीं समझा जाता। रफीक, कराची के अखबार के अखबार डॉन के लिए कार्टून बनाते हैं। कुछ लोगों की नजर में रफीक अब हर रोज ‘पाप’ कर रहे हैं। लेकिन उनका कहना है, ‘मैं अखबार में केवल इसलिए हूं क्योंकि संपादक कार्टून नहीं बना सकता।’

अंदाज में माहिर

कई राजनीतिक कार्टूनिस्ट अपनी योग्यता के चलते संपादकीय टीमों के लिए लिए किसी बड़ी सौगात से कम नहीं हैं। ये कार्टूनिस्ट मौजूदा माहौल के साथ-साथ आने वाले दौर का अंदाजा लगाने की काबिलियत रखते हैं।

इनके भावों को समझने के लिए बहुत लंबे और उबाऊ लेखों को पढ़ने की जरूरत नहीं है। इनके कार्टून में बहुत भाव छिपा होता है। इन लोगों के पास आने वाले वक्त को पहचानने की भी खास काबिलियत होती है।

ओ वी विजयन की ही बात करें। उन्होंने द हिंदू अखबार में 1970 में ही हिंदुवादी राजनीति के फासिस्ट चरित्र वाला कार्टून बनाया था। इसका मतलब यही है कि जो घटना असल में 20 साल घटी उसका अंदाजा विजयन ने 20 साल पहले ही लगा दिया था।

अबू की बात करें, 70 के दशक में द इंडियन एक्सप्रेस में छपे उनके कार्टूनों में इंदिरा गांधी के हर रूप का दर्शन मिल जाता है। मससन, राजनीति में जबरदस्ती आने वाली एक मासूम लड़की से तानाशाह बनने वाली लौह महिला तक।

कार्टूनिस्टों की बात हो और आर. के. लक्ष्मण की बात न हो, ऐसा तो हो नहीं सकता। लाल कृष्ण आडवाणी ने 1989 में जब मेटाडोर को अपने ‘रथ’ का रूप देकर अपनी रथ यात्रा शुरू की थी। उनकी रथ यात्रा की परिणति 1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के रूप में हुई।

आर. के. लक्ष्मण ने जब अपने कार्टूनों में आडवाणी को उकेरना शुरू किया तो उनका आकार सामान्य था और उनके सर पर मुकुट का आकार भी सामान्य था। लेकिन वक्त के साथ-साथ लक्ष्मण के कार्टूनों में आडवाणी के सर का आकार बढ़ता गया और उनके मुकुट का आकार सिकुड़ता गया। इस महत्त्वाकांक्षी नेता की हसरतें बढ़ने के साथ-साथ यह सिलसिला भी चलता रहा।

कार्टूनिस्ट लक्ष्मण ने धीर गंभीर प्रकृति के ‘प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री’ को कॉमिकल बना दिया। और उनको वापस अपने असल रूप में नहीं लौटाया। अभी तक यही बात समझी जाती रही है कि किसी भी समाचार पत्र के संपादकीय विभाग में कार्टूनिस्ट का ओहदा बड़ा ही उपेक्षित सा होता है। यही बात फोटोग्राफरों के बारे में भी लागू होती है।

बदलाव की बयार

दरअसल, इस बदलाव की शुरुआत इक्कीसवीं सदी के शुरुआती वर्षों से हुई। जब द इंडियन एक्सप्रेस ने उनी के कार्टून को संपादकीय पृष्ठ पर तीसरे संपादकीय के तौर पर देना शुरू किया।

इसके बाद द हिंदू ने भी एक्सप्रेस वाला रास्ता ही अख्तियार किया। डिजाइन के लिहाज से अखबार की कायापलट होने के बाद द हिंदू ने संपादकीय पृष्ठ पर केशव और सुरेंद्र का कार्टून छापना शुरू कर दिया।

नेपाल टाइम्स के संपादक कुंदा दीक्षित का कहना है, ‘नेपाल में पिछले कुछ दशकों के दौरान बहुत सारी चीजें बदली हैं। मैं अपने अखबार में कार्टूनिस्टों से उसी तरह से पेश आता हूं जिस तरह मैं किसी लेखक या स्तंभकार से पेश आता हूं। मेरे कहने का मतलब यही है कि मैं लेखक और कार्टूनिस्ट में कोई फर्क नहीं करता।’

इस कांग्रेस में एक और बात सामने आई। अधिकतर लोगों का यही मानना था कि सबसे खराब बात ‘सेल्फ सेंसरशिप’ की है। कई लोगों का मानना था कि कुछ स्थितियों में डर के कारण आंतरिक स्तर पर ऐसे फैसले लिए जाते हैं जिनके चलते कुछ चीजें जनता के सामने आने से रह जाती हैं।

इस बात को लेकर बड़ा सवाल उठा कि इस क्षेत्र में अब किस तरह की कार्टूनिंग बची रह गई है। कांग्रेस में शामिल ज्यादातर लोगों का यही मानना था कि बदलते दौर के साथ समाचार पत्रों का व्यवसायीकरण होता जा रहा है।

और ये लोगों के मनोरंजन के माध्यम में तब्दील होते जा रहे हैं, ऐसे में कार्टूनिंग की विधा भी बदलती जा रही है। कार्टूनिस्ट को राजनीतिक पत्रकार के बजाय मजाकिया लहजे वाला व्यक्ति (ह्यूमरिस्ट) ही समझा जाता है।

…ऐसे बनता है इतिहास

पिकासो ने ऐसा कहा था, ‘कलाकारों का यह काम नहीं है कि वे राजनीति और समाज की गड़बड़ियों को दूर करें।’ मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि समाज और राजनीति में फैली अव्यवस्था और गंदगी को कार्टूनिस्ट दूर कर सकते हैं।

ज्यादातर कार्टूनिस्ट नैतिक मूल्यों में यकीन रखते हैं और वे राजनीति और सामाजिक व्यवस्था को भी नैतिकता के पैमाने से देखते हैं। ब्रिटेन के दी गार्जियन समाचार पत्र के लिए काम करने वाले कार्टूनिस्ट अबु अब्राहम भी कोई अपवाद नहीं थें।

वे ब्रिटेन में 12 साल रहने के बाद भारत वापस आए। उनके दिमाग के किसी कोने में एक जागरूक विचारधारा जरूर थी जिसका इस्तेमाल उन्होंने अगले 12 सालों तक इंडियन एक्सप्रेस जैसे अखबार में काम करते हुए किया।

इंडियन एक्सप्रेस में अखबार और कार्टूनिस्ट का यह बेजोड़ मेल भारतीय मीडिया के लिए बेहद यादगार पल बन गया था। इस तरह का केवल एक ही रिश्ता कायम हो पाया और वह रिश्ता था कार्टूनिस्ट आर. के. लक्ष्मण और टाइम्स ऑफ इंडिया।

वाटरगेट स्कैंडल के बाद जब राष्ट्रपति को अपना पद छोड़ना पड़ा उस वक्त वर्ष 1972 में अबु ने बेहतर कार्टून बनाया। उन्होंने व्हाइट हाउस की तस्वीर बनाई और एक वाक्य में लिखा ‘रिचर्ड निक्सन लाइड हियर 1964-72’ इससे जबरदस्त संदेश और कुछ नहीं हो सकता था।

उन्होंने 1981 में भारतीय चुनाव में जाति आधारित वोट बैंक पर कटाक्ष करते हुए बहुत बेहतर कार्टून बनाया था। उनके उस कार्टून में एक बैलेट बॉक्स था जिस पर  ‘कास्ट योर वोट हियर’ के बजाय लिखा था, ‘वोट योर कास्ट(जाति)हियर’।

अबु के कार्टून में आदमी को उस तौर पर पेश किया जाता था मानो उसमें किसी जानवर के शरीर से मिलती-जुलती खासियत होती ही है। मिसाल के तौर पर उन्होंने अपने कार्टून में इंदिरा गांधी की लंबी नाक को कार्टून में सारस की चोंच या फिर मुर्गी की कलगी की तरह दिखाया था।

 वहीं अपने कार्टून में उन्होंने जगजीवन राम के चेहरे को चौड़े मुंह वाली मछली, मोरारजी देसाई को लोमड़ी और नम्बूदरीपाद को उल्लू  के तौर पर पेश किया गया था। मुझे याद है अबु का वह इंटरव्यू जो उन्होंने 1969 में भारत लौटने पर दिया था।

वह एक संडे सप्लीमेंट में काम करने के लिए भारत आए थे। तब मैंने यह इंटरव्यू पढ़ा था। उस वक्त मैं कॉलेज में था। वह अपने काम की प्रक्रिया पर जो टिप्पणी करते थे, उसका बहुत गहरा असर होता था।

जब उनसे पूछा जाता था कि उनके कार्टून बनाने का तरीका क्या होता है, तब उनकी प्रतिक्रिया भी बहुत यादगार थी, ‘मंम हर चीज को बहुत विस्तार से देखता हूं। जैसे, एक हाथी के बारे में सोचें तो वह एक सुअर का ही बड़ा रूप है जिसकी नाक बड़ी लंबी है।’

अपने फन के माहिर उस्ताद

बोस्निया और हर्जेगोविना के ह्यूसजिन हानुसिच (ह्यूले) को दक्षिण एशिया कार्टून प्रतियोगिता का विजेता घोषित किया गया था। प्रतियोगिता की घोषणा जून में हुई थी। इस प्रतियोगिता को लेकर दक्षिण एशिया के साथ ही पड़ोसी मुल्कों मसलन ईरान, तुर्की, अजरबैजान, चीन और फिलीपीन्स के लोगों में जबरदस्त उत्साह देखा गया।

प्रतियोगिता में इस क्षेत्र के लोगों ने 376 आवेदन भेजे। ब्राजील, अमेरिका और रूस के कार्टून कलाकारों ने भी आवेदन दिए। फैसले का जिम्मा सौंपा गया था नेपाल टाइम्स के  संपादक कुंदा दीक्षित, पत्रकार, लेखक और कार्टून इतिहासकार मधुकर उपाध्याय को। मुझे भी इसमें शामिल किया गया।

सबके काम की समीक्षा करके यह फैसला लिया गया कि दूसरा पुरस्कार संयुक्त रूप से तुर्की के ऑक्टे बिंगोल को और ईरान के जमाल रहमती को दिया जाए। बेहतरीन कार्टून के चयर्नकत्ताओं का ऐसा मानना था कि दक्षिण अफ्रीका के कार्टूनों में थोड़ी गहराई और विचारों की सूक्ष्मता की कमी झलकती है। 

आश्चर्य यह कि विजेता वह बना जो दक्षिण एशिया क्षेत्र का नहीं था। हालांकि इंट्री में जो भी कार्टून शामिल थे, उनमें कुछ अलग बात जरूर थी। मिसाल के तौर पर ह्यूले के कार्टून में एक चित्रकार की झलक की इस क्षेत्र में कोई सानी नहीं हैं।

वे अपने कार्टून में रंगों का इस्तेमाल करते हैं जिससे दृश्यों को लोग अपनी संवेदना से भी जोड़ें, उनमें कोई शब्द या कैप्शन का इस्तेमाल भी नहीं है। विनिंग इंट्री कार्टूनों में से कोई भी ऐसा नहीं था जिसमें कैप्शन का सहारा लिया गया हो।

जमाल रहमती ने अपनी क्षमता का बेहतरीन इस्तेमाल करते हुए रेखाओं के जरिए विरोध की वास्तविकता को बखूबी पेश किया और ऑक्टे बिंगोल ने किसी संगठन में असंगठित भाव को देखकर लगता था मानो ये कार्टूनिस्ट विचारक और दार्शनिक भी होते हैं।

प्रतियोगिता का मकसद भी इस क्षेत्र में कार्टून के लिए एक मंच बनाना था जहां कार्टून के लिए इंटरैक्टिव वर्कशॉप भी आयोजित की जाए। दक्षिण एशिया के कार्टूनिस्टों में समान तरह के भाव दिखते हैं और वे एक ही तरह की प्रतीकात्मक भाषा बोलते नजर आते हैं।

देश की ललित कला अकादमी से जुड़े लोगों का कहना है कि कार्टून को बड़ी कला का दर्जा नहीं दिया जाता और मीडिया संगठन कुछ राजनीतिक कार्टूनिस्टों का ही इस्तेमाल करते हैं। देश में विभिन्न क्षेत्रों के कार्टून  संग्रहालय बनाने की बात भी होनी चाहिए।

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