वामपंथी पार्टियों ने कहा है कि अगर उनकी वजह से सुधार प्रक्रियाओं की रफ्तार थमी है तो इसके लिए उनका शुक्रिया अदा किया जाना चाहिए क्योंकि अगर ऐसा नहीं होता तो मौजूदा वैश्विक संकट की मार देश की अर्थव्यवस्था पर और ज्यादा पड़ती।
पार्टी ने दावा किया है कि मजदूरों का पैसा (बचत) ऋण योजनाओं में लगे होने की वजह से बचा हुआ है क्योंकि उन्हें शेयर बाजारों में निवेश नहीं किया गया। पर वामपंथियों के ये दावे इस तथ्य को गलत ठहराते हैं कि देश की अर्थव्यवस्था में इस वैश्विक संकट को झेलने की सीमित क्षमता है क्योंकि पिछले चार सालों में कोई सुधार हुआ ही नहीं है।
सच्चाई तो यह है कि अगर सभी क्षेत्रों में सुधार के लिये उठाये गए कदमों के जरिये परिचालन क्षमताओं को मजबूत बनाया जाता तो हमारी अर्थव्यवस्था शायद इस संकट का बेहतर तरीके से सामना कर पाती। अगर हम बिजली व्यवस्था का उदाहरण ही लें तो पाएंगे कि बिजली व्यवस्था में काफी समय से कोई सुधार नहीं होने की वजह से बिजली की किल्लत देखने को मिल रही है।
अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की ऊंची कीमतों के कारण घरेलू बाजार में पेट्रोलियम उत्पादों की बढ़ी हुई लागत का बोझ लोगों पर नहीं डालने की वजह से नकदी की कमी वाली स्थिति भी देखी गई और यही वजह है कि तेल कंपनियों को आयात के लिए बैंकों से ऋण के भरोसे रहना पड़ा।
बैंकों के पास ऋण लेने वालों की लंबी कतार लगी थी। वामपंथी पार्टियों के विरोध के वजह से ही श्रम कानूनों में कोई संशोधन नहीं किया जा सका। अगर इन कानूनों में बदलाव हुआ होता तो मजदूरों की छंटनी के समय भी उन्हें तीन गुना ज्यादा फायदा होने की गुंजाइश होती।
हालांकि कई ऐसे सुधार कार्यक्रम हैं जो चलाए तो जाने चाहिए थे पर ऐसा हो नहीं सका और इनकी सूची काफी लंबी है। अगर शेयर बाजारों की चर्चा करें तो भी वामपंथी पार्टियां सार्वजनिक क्षेत्र में विनिवेश के मामले में सरकार के रास्ते में आ गई थी और वह भी तब जबकि शेयर बाजार अपनी बुलंदी पर था।
यह भारत के लोगों के लिए सीधा सीधा नुकसान है। और अगर अब मौजूदा समय में घरेलू निवेशकों के सामने मुश्किल समय है क्योंकि विदेशी संस्थागत निवेशकों ने बाजार से पैसा निकालना शुरू कर दिया है तो इसका एक ही जवाब हो सकता है कि बाजार में कारोबारी गहराई का अभाव है।
दूसरे शब्दों में कहें तो अगर घरेलू संस्थागत निवेशकों की अधिकता होती तो खुद ब खुद एफआईआई का महत्त्व घट जाता और इस तरह शेयर बाजार इस संकट से बेहतर तरीके से निपट पाता।
और पहली बार जब योजना बनाई गई थी उस समय निवेश को मंजूरी दी गई होती तो भी शेयर बाजारों से मिलने वाला रिटर्न बढ़िया ही होता क्योंकि आज शेयरों के भाव उन भावों से दोगुने हैं जब यूपीए सरकार ने शासन की बागडोर संभाली थी।
हालांकि सारा दोष वामपंथी पार्टियों के मत्थे मढ़ना फिर भी सही नहीं होगा क्योंकि खुद कांग्रेस सुधारों को लेकर बहुत उत्साहित नहीं थी। यह अलग बात है कि अब सरकार पुरानी गलतियों से सबक लेने का विचार कर रही है पर अब भी ऐसे स्पष्ट संकेत नहीं मिलते कि सरकार इस संकट के लिए दूरगामी कदम उठाने की तैयारी कर रही है।