महबूबा मुफ्ती का शुक्रिया कि उन्होंने इस सप्ताह के स्तंभ के लिए विषय सुझा दिया। जम्मू कश्मीर के प्रमुख संगठन पीएजीडी ने जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा नई दिल्ली में आयोजित सर्वदलीय बैठक का निमंत्रण स्वीकार किया तो उन्होंने कहा कि कश्मीर समस्या को निर्णायक रूप से हल करने के लिए भारत को पाकिस्तान से बात करनी चाहिए। उन्होंने प्रश्न किया, ‘अगर भारत तालिबान से बात कर सकता है तो पाकिस्तान से बात करने में क्या गलत है?’
सवाल अच्छा है लेकिन पहली बात यह कि भारत को तालिबान से बात क्यों करनी चाहिए? दोनों में कोई लगाव तो है नहीं। भारत उस शर्मिंदगी को कभी नहीं भूलेगा और न माफ करेगा जो उसे तब हुई थी जब तालिबान ने आईसी-814 विमान का अपहरण किया था। तालिबान भी भारत की कोई परवाह नहीं करेगा क्योंकि उसका नाभिनाल पाकिस्तान से जुड़ा हुआ है और भारत काबुल में निर्वाचित सरकार का समर्थक है। तो अब क्या बदल गया है?
इस बात ने हमें पूर्व के बजाय पश्चिम की ओर नजर डालने पर मजबूर किया। चीन, क्वाड, हिंद प्रशांत क्षेत्र तथा अन्य वजहों से हम साल भर से पूर्व पर ही केंद्रित हैं। परंतु अब भारत के लिए पश्चिम का रणनीतिक महत्त्व पूर्व से अधिक है। अमेरिका के लिए भारत के पश्चिम का इलाका रणनीतिक रूप से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हो गया है।
भारत तालिबान से इसलिए बात कर रहा है क्योंकि वह जीत रहा है। अपने शुरुआती दौर में मुजाहिदीन यानी रूढि़वादी, ग्रामीण और अशिक्षित अफगानों के रूप में उसने सोवियत संघ को उस समय हराया जब वह अपनी शक्ति के शिखर पर था। उन्होंने ऐसा अमेरिका, पाकिस्तान, सऊदी अरब, चीन आदि की मदद से किया। अब तालिबान के रूप में उन्होंने दुनिया की इकलौती महाशक्ति को पराजित किया है। उसने ऐसा पाकिस्तान की सहायता से किया। यही कारण है कि वर्षों से अमेरिकी यह जान ही नहीं पाए कि उनका लक्ष्य क्या था? क्या वह अल कायदा को नष्ट करना चाहता था?
जब तक उसने ऐसा किया तब तक अल कायदा का बड़ा हिस्सा आईएसआईएस में तब्दील हो चुका था। जब उसने अंतत: ओसामा बिन लादेन को मारा तब वह अपने अतीत की छाया भर बचा था। यहां तक कि अल कायदा के उसके सिपहसालार उसके पत्रों का जवाब तक नहीं दे रहे थे। उनमें से एक ने बगदाद में आईएसआईएस की शाखा शुरू कर दी थी। अमेरिका जीत की घोषणा करके कब वापस लौटता? यदि उसका लक्ष्य अफगानिस्तान को आतंक के अभयारण्य के तौर पर नष्ट करना था तो यह होने वाला नहीं था क्योंकि इसके लिए पाकिस्तान में भी ऐसा करना जरूरी था। यह सफाया केवल अफगानिस्तान की सीमा से लगे हिस्से में नहीं करना पड़ता बल्कि रावलपिंडी में सैन्य मुख्यालय में बैठे अधिकारियों के सोच से भी करना पड़ता।
इस विषय पर कई किताबें लिखी जा चुकी हैं कि कैसे आईएसआई और पाकिस्तानी सेना ने अमेरिका के साथ दोहरा खेल खेला। उन्हें पाकिस्तान की मदद के बिना अल कायदा के खिलाफ सफलता नहीं मिलती। ऐसे में वे पाकिस्तान पर दबाव नहीं बना सकते थे कि वह तालिबान से रिश्ते समाप्त करे। तालिबान को मौतों और विध्वंस से कोई फर्क नहीं पड़ता और उनके अधिकांश अड्डे पाकिस्तान के अंदरूनी इलाकों में हैं जो अमेरिकी ड्रोन की निगाह से दूर हैं। यही कारण है कि अमेरिका अपनी सबसे लंबी लड़ाई हार कर लौट रहा है।
अपनी इज्जत बचाने के लिए वह यही कर सकता है कि अफगानिस्तान को अपेक्षाकृत स्थिर स्थिति में छोड़ा जा रहा है और तालिबान की इस बात पर यकीन किया जा सकता है कि वह आतंकी नेटवर्क को नहीं पनपने देगा। अमेरिका नहीं चाहेगा कि भारत अफगानिस्तान में दखल दे या वह दोबारा भारत-पाकिस्तान की प्रतिद्वंद्विता का अखाड़ा बने। इसलिए उसके लिए भी अच्छा है कि भारत और तालिबान बात कर रहे हैं। भारत उस हकीकत को स्वीकार कर रहा है। वह ऐसा नहीं कर सकता कि पूर्व में अमेरिका को क्वाड सहयोगी बनाए और पश्चिम में इसके खिलाफ काम करे। भारत के तालिबान से संपर्क की यही वजह है। इसके अलावा भारत और पाकिस्तान को आपसी रिश्ते भी बेहतर करने होंगे। यदि वे नियंत्रण रेखा पर एक दूसरे के खिलाफ खड़े रहेंगे तो उनके मतभेद अफगानिस्तान के मुद्दे पर भी निकलेंगे। चूंकि तालिबान सत्ता में है तो उस हालत में आईएसआई उन्हें भारत के खिलाफ इस्तेमाल कर सकता है। न तो भारत और न ही अमेरिका चाहता है कि अफगानिस्तान में नया घटनाक्रम पाकिस्तान की जीत बने।
इससे समझा जा सकता है कि भारत-पाकिस्तान के बीच संघर्ष-विराम क्यों है। अमेरिका की मदद और उसके आग्रह के कारण इस दिशा में प्रयास पहले से जारी थे। हालांकि उसे तीसरे पक्ष का हस्तक्षेप नहीं कहा जा सकता क्योंकि मित्र हमेशा एक दूसरे की परवाह करते हैं।
कश्मीर में यह नया कदम तार्किक है। दोनों पक्ष यानी मोदी-शाह सरकार और नए कश्मीरी नेता दोनों पक्ष जोखिम त्यागने को तैयार हो गए। केंद्र सरकार के लिए देशद्रोही गुपकार गैंक अब साथी देशभक्त हैं जिन्हें साथ लिया जा सकता है। कश्मीर घाटी में कोई बड़ा और जबरिया जनांकीय बदलाव न तो संभव है और न ही आसान है। दोनों पक्षों ने अतिवाद छोड़ दिया है। गुपकार गठजोड़ अब अनुच्छेद 370 की वापसी की मांग पर नहीं अड़ा है और केंद्र सरकार ने भी पुराने और विश्वास गंवा चुके परिवारों को खारिज करने की जिद छोड़ दी है। आशा है कि जम्मू कश्मीर में जब नया नेतृत्व मजबूत हो जाएगा तो वह उसे पूर्ण राज्य का दर्जा मिल जाएगा।
यह पाकिस्तान के लिए भी अच्छा अवसर है। फाइनैंशियल एक्शन टास्क फोर्स (एफएटीएफ) की चुनौती अभी समाप्त नहीं हुई है। शुक्रवार की बैठक में भी यही निर्णय लिया गया कि पाकिस्तान को अभी संदेहास्पद ही माना जाएगा। इसके और अमेरिकी दबाव के बीच पाकिस्तान के लिए अब यह संभव नहीं कि वह कश्मीर से परे भारत पर आतंकी हमले करे। कश्मीर में ऐसा करने पर उसे तत्काल जवाब मिलेगा। यह उसके लिए फायदेमंद नहीं होगा।
भारत के सामने घाटी की भी हकीकत है। अनुमान था कि केंद्र के शासन के बाद आतंकवाद समाप्त हो जाएगा लेकिन यह और मजबूत हुआ है क्योंकि लोगों में नाराजगी बढ़ी है। गत सप्ताह मैंने बेहतरीन पत्रकार और लेखक राहुल पंडिता की किताब ‘द लवर बॉय ऑफ बहावलपुर’ पढ़ी। उन्होंने पुलवामा मामले को हल करने के बारे में काफी चौंकाऊ नजरिया दिया है। उन्होंने यह भी कहा है कि जैश ए मोहम्मद समेत तमाम पाकिस्तानी गिरोहों के ‘पैदल सिपाही’ कश्मीरी युवा हैं। ऐसे में यथास्थिति ठीक नहीं।
पश्चिम में थोड़ा दूर नजर डालें तो ईरान में बदलाव हो रहे हैं। इब्राहीम रईसी घोषित रूढि़वादी और कट्टरपंथी हैं। उन्हें खामेनई का संभावित उत्तराधिकारी माना जाता है। परंतु बाइडन प्रशासन चाहेगा कि उनके पास इतनी राजनीतिक पूंजी हो कि वे परमाणु सौदा बहाल कर सकें। ऐसा हुआ तो ईरान के लिए बाजार और तेल आपूर्ति का मार्ग प्रशस्त हो जाएगा। यह इस क्षेत्र में सबके लिए अच्छा होगा। भारत में कश्मीर से लेकर समूचे मध्य एशिया से ईरान तक के लोग व्यापक जनांकीय, जातीय तथा धार्मिक आधार पर संबद्ध हैं।
बड़ी तस्वीर ऐसे बदल रही है। कोई बड़ा देश नहीं चाहता कि वह दो मोर्चों पर घिरा रहे। जो बाइडन ने सबसे पहले व्लादीमिर पुतिन के साथ बैठक की क्योंकि वह जानते हैं कि अमेरिका एक साथ रूस और चीन से नहीं उलझ सकता। मैंने पढ़ा कि उन्होंने पुतिन को वह दिया जो वह चाहते थे: यानी बतौर एक अन्य महाशक्ति मान-सम्मान। इसी तरह मोदी के लिए गलवान के बाद दो मोर्चों वाली स्थिति खतरनाक है। ऐसे में पाकिस्तान के साथ बेहतर रिश्ते रणनीतिक जरूरत बन गए।
आखिर में हम महबूबा के सवाल की ओर लौटते हैं। भारत महबूबा से इसलिए बात कर रहा है क्योंकि वह तालिबान से बात कर रहा है। और भारत पाकिस्तान से भी बात कर रहा है। केवल इस बात पर नहीं कि वह एजेंडे में क्या चाहती हैं।
