सर्वोच्च न्यायालय के पास देश में चुनावी चंदे की विकृत हो चुकी व्यवस्था को सुधारने का अवसर है। उसके पास अपनी गलती में सुधार करने का भी मौका है।
सर्वोच्च न्यायालय के पास देश की चुनावी चंदे की खराब व्यवस्था को सुधारने का एक और अवसर है। यह उसके लिए भूल सुधार का एक मौका भी है। हर प्रकार के राजनीतिक भ्रष्टाचार की जड़ में चुनावी चंदा है। इसकी शुरुआत 1952 में पहले आम चुनाव के समय हुई थी। बीते 65 वर्षों में भारतीयों की तीन सबसे समझदार पीढि़यां भी इसका तोड़ निकालने में विफल रहीं।
आखिरकार 1 अप्रैल, 2017 को केंद्रीय बजट ने इसे वैधानिक बना दिया। इसके बाद पांच अहम वर्षों के दौरान एक नई राष्ट्रीय और दो दर्जन से अधिक राज्यों की सरकारें चुनी गईं, गिरीं या दोबारा चुनी गईं लेकिन यह व्यवस्था वैसी ही बनी रही।
अब मोदी सरकार द्वारा 2017-18 के बजट में की गई गोपनीय चुनावी बॉन्ड की व्यवस्था को दी गई चुनौती को आखिरकार सर्वोच्च न्यायालय ने सुनवाई के लिए चुन लिया है। अप्रैल 2019 के आरंभ में सर्वोच्च न्यायालय के तीन सदस्यों वाले उच्चाधिकार प्राप्त पीठ ने एक अंतरिम आदेश पारित किया था। पीठ में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई, दीपक गुप्ता और संजीव खन्ना शामिल थे।
उक्त आदेश अत्यधिक कमजोर और लचर प्रकृति का था। शीर्ष न्यायालय पर कोई भी प्रश्न उठाते हुए हमें अपने शब्द चयन में खासी सावधानी बरतनी होती है लेकिन इस मामले में तो खासतौर पर ऐसा करना होगा। क्योंकि अंतरिम आदेश से ऐसा लगा कि इस मामले को लंबे समय के लिए लंबित किया जा रहा है। उस बात को साढ़े तीन वर्ष का समय और तीन मुख्य न्यायाधीशों का कार्यकाल तो पहले ही बीत चुका है। संभावना यही है कि जब तक यह सुनवाई जोर पकड़ेगी तब तक पांचवें मुख्य न्यायाधीश का कार्यकाल आ जाएगा।
अदालतों से मिलने वाली तारीखों का अंतहीन सिलसिला पहले ही हमें परेशान करता आया है। इसने बॉलीवुड की फिल्मों को भी खूब मसाला दिया है। सनी देओल की 1993 में आई फिल्म दामिनी के संवाद ‘तारीख पे तारीख’ को तो अब हमारे शीर्ष न्यायाधीश भी दोहराया करते हैं।
हालांकि यह मामला सामान्य देरी से इतर प्रतीत हुआ। मैं पूरी विनम्रता से कहना चाहता हूं कि यह मामला जोखिम से बचने का ज्यादा लगा। मसलन यह बहुत ज्यादा गड़बड़ लग रहा है इसे बाद के लिए छोड़ दो। चाहे जो भी हो कई राज्यों में 2019 के आम चुनाव के पहले चरण के मतदान एक रोज पहले हो चुके थे। पीठ ने अपने अंतरिम आदेश में कहा था कि निश्चित रूप से पारदर्शिता होनी चाहिए। उन्होंने हमें पारदर्शिता दी भी लेकिन वह सीलबंद लिफाफे में थी।
उन्होंने कहा कि हर दल को इन गोपनीय चुनावी बॉन्ड के जरिये मिलने वाले चंदे के बारे में निर्वाचन आयोग को 30 मई, 2019 तक जानकारी देनी होगी। यह तय करने का काम निर्वाचन आयोग पर छोड़ दिया गया कि इनका खुलासा कब, कैसे और कहां करना है। प्रभावी तौर पर देखा जाए तो उन्होंने गेंद निर्वाचन आयोग के पाले में डाल दी। चुनाव आयोग उन ब्योरों को दबा गया। जो काम करने में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश घबरा गए उसे सेवानिवृत्त अफसरशाह करेंगे, यह सोचना भी मूर्खता थी।
भय थोड़ा कठोर शब्द है लेकिन मैंने तो एक प्रचलित मुहावरे का ही इस्तेमाल किया है। हम चीन के दिग्गज नेता रहे तंग श्याओ फिंग के शब्द भी इस्तेमाल कर सकते हैं। सन 1988 में पेइचिंग में राजीव गांधी के साथ बैठक में उन्होंने चीन के साथ सीमा विवाद पर बात करने से यह कहते हुए इनकार कर दिया था कि, ‘हमारी पीढ़ी में शायद उतनी बुद्धिमता नहीं है कि हम सीमा जैसे जटिल मुद्दे को हल कर सकें। इसलिए इसे भविष्य की किसी समझदार पीढ़ी के लिए छोड़ देते हैं और उस बारे में बात करते हैं जिस बारे में हम कर सकते हैं।’
यह बात अधिक तार्किक प्रतीत होती है कि अप्रैल 2019 के अंतिम आदेश में ऐसे ही विचार नजर आए। सवाल यह है कि क्या अब न्यायाधीशों की ऐसी पीढ़ी आई है जिसमें वैसी बुद्धिमता हो। जब 2017-18 के बजट में तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली चुनावी बॉन्ड लाए थे तब उन्होंने कहा था कि यह केवल आंशिक सुधार है। उन्होंने कहा था कि यह चुनावी फंडिंग से काले धन को बाहर करने की दिशा में पहला कदम है। यह कहना उचित ही था क्योंकि उस वक्त तक अमीर व्यक्ति, कारोबारी, संपत्ति कारोबारी, खनन कारोबारी, अपराधी, तस्कर, ठग आदि कोई भी अपनी पसंद के राजनीतिक दलों को जमकर चंदा दे सकते थे। अब वे भारतीय स्टेट बैंक से बॉन्ड खरीद सकते थे, जाहिर है केवल वैध कमाई से ही।
इसमें एक और फायदा यह था कि इस बॉन्ड की मदद से दिए जाने वाले राजनीतिक चंदे पर कर राहत है। इससे राजनीतिक दलों को भी मदद मिली क्योंकि उन्हें मिलने वाली राशि कर रियायत वाली थी यानी यह वैध पैसा था। परंतु अगर यह पारदर्शिता की ओर पहला कदम था तो भी अगला कदम न उठाने की प्रवृत्ति ने हालात को और अधिक मुश्किल बना दिया।
दानदाताओं जो आमतौर पर कारोबारी होते हैं वे भारतीय स्टेट बैंक जाकर एक चेक या बॉन्ड के समकक्ष चुनावी बॉन्ड खरीद सकते हैं। वे इन्हें अपनी पसंद के राजनीतिक दल को दे सकते हैं। वह पार्टी उसे दिए गए बैंक खाते में जमा कर सकती है। दानदाता को किसी को यह बताने की आवश्यकता नहीं है उसने बॉन्ड किसे दिया है। पाने वाले को भी यह खुलासा करने की जरूरत नहीं है कि बॉन्ड किसे दिया गया।
ऐसे में पहला चरण जहां चुनावी चंदे को काले धन से सफेद की दिशा में लाता है, वहीं दूसरा कदम गोपनीयता सुनिश्चित करता है। मामला अभी भी ऐसा ही था कि पैसा पूरी तरह रुचि रखने वाले पक्षकारों के बीच अंधेरे में हस्तांतरित होता था और मतदाताओं को कभी पता नहीं चलता कि किसने, किसे कितना पैसा दिया। नागरिकों और संस्थानों भी यह पता नहीं चलता कि इस तरह के भुगतान से कोई निर्णय प्रभावित तो नहीं हुआ। कोई भी गोपनीय योगदान अभी भी शंकाओं को जन्म देगा और उसे रिश्वत माना जा सकता है। अब हालात पहले से अधिक बुरे हैं। पूरी तरह वैध चुनावी भ्रष्टाचार। मतदाता या नागरिकों को यह पता नहीं होता कि कौन किसे भुगतान कर रहा है कि और क्या इसकी वजह से कोई निर्णय लिए जा रहे हैं। मिसाल के तौर पर किसे पता कि किसी क्षेत्र मसलन स्टील क्षेत्र में अचानक शुल्क वृद्धि क्यों की गई जबकि हम इस संभावना को नकार नहीं सकते कि औद्योगिक समूह ऐसे बॉन्ड बड़ी मात्रा में खरीद रहे हैं।
इसके अलावा बाहर भले ही किसी को कुछ न मालूम हो लेकिन तंत्र यानी व्यवस्था को तो सब पता रहता है। आखिर सरकारी बैंक होने के नाते स्टेट बैंक को अच्छी तरह पता होता है कि किसने बॉन्ड खरीदे और किस राजनीतिक दल ने कितने बॉन्ड जमा किए। बॉन्ड क्रमांक मिलाकर आसानी से जानकारी निकाली जा सकती है कि कौन दोस्त है और कौन दुश्मन। ऐसे में उस वक्त की सरकार को यह अच्छी तरह पता होगा कि किसे पुरस्कृत करना है और किसे दंडित करना है।
अब आप समझ गए होंगे कि हम क्यों कह रहे हैं कि 1 अप्रैल, 2017 को हम चुनावी भ्रष्टाचार के खिलाफ 65 वर्ष पुरानी जंग हार गए और कैसे नए चुनावी बॉन्ड ने व्यवस्था को सुधारने के बजाय रिश्वत को वैधानिक बना दिया।
राजनीतिक वर्ग से हमारी आकांक्षाओं और अपेक्षाओं को देखते हुए किसी को यकीन नहीं होगा कि भाजपा सरकार आने वाले सुधारों के अपने वादे पर कायम रहेगी। वास्तव में जिस बात ने सबसे अधिक निराश किया वह था सर्वोच्च न्यायालय का वह रुख कि इस जटिल मुद्दे को आगे की किसी समझदार पीढ़ी पर छोड़ दिया जाए।
तब से पांच वर्ष बीत चुके हैं, भारत की चुनावी चंदा व्यवस्था अब इस ‘सुधार’ के पहले की तुलना में अधिक दोषपूर्ण हो गई है। क्या भारत देश के सबसे प्रतिष्ठित संस्थान पर यह भरोसा कर सकता है कि वह स्पष्टता लाएगा और इस दौरान अपनी गलती में सुधार करेगा?