बीमा कंपनियां सामान्य तौर पर मोटर दुर्घटना दावा न्यायाधिकरण (एमएसीटी) द्वारा तय की गई रकम पीड़ित व्यक्ति को चुकाकर नुकसान की भरपाई करती हैं, लेकिन बीमा करने वाली कंपनी कई मामलों में बेबस होती है।
मोटर वाहन अधिनियम के मुताबिक, न्यायाधिकरण की कार्यवाही में बतौर पक्षकार हिस्सा लेने के संबंध में बीमा कंपनियों को सीमित अधिकार मिले हुए हैं। बीमा कंपनियों के लिए यह अनुचित है क्योंकि अंतत: उसे ही मुआवजे की रकम चुकानी पड़ती है।
चूंकि कानून कुछ हद तक असंतुलित है, ऐसे में न्यायाधिकरण नियमित रूप से बीमा कंपनियों की तरफ से कार्यवाही में वकालत करती है क्योंकि इन्हें इसकी अनुमति नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में नैशनल इंश्योरेंस कंपनी बनाम मेघजी नारन सोराटिया के मामले में दिए फैसले में इस असंगति पर चर्चा की थी।
न्यायालय ने संसद, कानूनी आयोग और अन्य को इस समस्या पर गंभीरता से विचार करने को कहा है। सेक्शन 149 और 170 के मुताबिक, नुकसान की भरपाई के लिए दावा करने वाला व्यक्ति बीमा कंपनी को कार्यवाही में नहीं बुला सकता। ज्यादा से ज्यादा वह कंपनी का नाम और पता उपलब्ध करा सकता है। बीमा करने वाले को बुलाने की जिम्मेदारी न्यायाधिकरण पर है।
इसके बाद भी बीमा कंपनियां अपने बचाव के लिए कुछ ही बातें कह सकती हैं। वे आरोप लगा सकती हैं कि वाहन मालिक ने अनुबंध की शर्तों का उल्लंघन किया था, पॉलिसी वैध नहीं थी क्योंकि बीमा कंपनियों के सामने सच्चाई का खुलासा नहीं किया गया था, बीमा कंपनियों के खिलाफ दूसरे पक्षकारों के बीच मिलीभगत थी या मालिक दावा करने में नाकाम रहे।
जब दुर्घटना होती है तो ऐसे में मामलों में शामिल होने वाला मुख्य व्यक्ति ड्राइवर होता है। लेकिन वह भी दावे की बाबत होने वाली कार्यवाही में हिस्सा लेने में कम दिलचस्पी रखता है। अगर उसकी असावधानी भरे कृत्य से किसी की मौत हो गई है या वह घायल हो गया है तो वह मुआवजे के दावे से ज्यादा चिंतित आपराधिक परिणाम को लेकर होता है।
सामान्य तौर पर वह न्यायाधिकरण के सामने अपना बचाव करने के लिए वित्तीय रूप से अक्षम होता है। ऐसे में वाहन मालिक को उसका बचाव करना होता है। अगर मालिक न्यायाधिकरण के सामने हार जाता है तो यह जिम्मेदारी बीमा कंपनी की बनती है कि वह न्यायाधिकरण द्वारा दिए गए फैसले से उन्हें संतुष्ट करे।
लेकिन बीमा कंपनी विवाद में नहीं कूद सकती और स्वत: दावे पर संघर्ष कर सकती है। कार्यवाही में बीमा करने वालों को हिस्सा लेने की अनुमति देने से पहले न्यायाधिकरण को देखना होता है कि उपरोक्त चारों परिस्थितियां मौजूद हैं या नहीं।
कई मामलों में न्यायाधिकरण की कार्यवाही में वाहन मालिक उदासीन रवैया अख्तियार कर लेते हैं। वे प्रभावी रूप से अपने दावे के संबंध में बातें सामने नहीं रखते यानी बचाव नहीं करते, गवाहों की जांच नहीं करते आदि। वे आत्मसंतुष्ट होते हैं क्योंकि उनकेपास बीमा कवर होता है और वे इस बात को जानते हैं कि बीमा कंपनियां दायित्व का वहन कर लेंगी।
सर्वोच्च न्यायालय के मुताबिक, बीमा कंपनियों को व्यवहार में मालिकों को मामले में संघर्ष के लिए उकसाना होगा और आवश्यक सबूत सामने रखने होंगे। एक समान फैसले वाले दो मामलों पर सर्वोच्च न्यायालय के गौर फरमाने के बाद एक सी समस्याएं ही सामने नजर आईं। पहले मामले में ड्राइवर और मालिक दोनों ही अनुपस्थित रहे और नोटिस मिलने केबाद भी न्यायाधिकरण के सामने हाजिर नहीं हुए।
दूसरे मामले में ड्राइवर का नाम मिटा दिया गया। हालांकि मालिक अदालत में उपस्थित हुए, लेकिन दावों के लिए संघर्ष नहीं किया। न्यायाधिकरण ने बीमा करने वालों को हस्तक्षेप की अनुमति दी, लेकिन अपील पर गुजरात उच्च न्यायालय ने तकनीकी आधार पर बीमा करने वालों को अनुमति देने से इनकार कर दिया।
अंतत: बीमा करने वालों ने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। इन दो मामलों के जरिए कानून के असंतोषजनक पहलू सामने आए। सर्वोच्च न्यायालय ने उल्लेख किया है कि किन-किन परिस्थितियों में बीमा कंपनियां अपने आपको शर्मिंदगी की स्थिति में पाती हैं। क्या होता है जब ड्राइवरमालिक जवाब दाखिल करते हैं, लेकिन कार्यवाही में प्रभावी रूप से हिस्सा लेने में नाकाम रहते हैं?
क्या होता है जब ड्राइवरमालिक के वकील मौजूद रहते हैं, लेकिन आधे-अधूरे जांच का सहारा लेते हैं? क्या होता है जब ड्राइवरमालिक बचाव के लिए सबूत पेश नहीं करते हैं? क्या होता है जब अच्छी तरह योजना बनाकर मिलीभगत की जाती है, जो आंखों को नजर नहीं आती?
ऐसी परिस्थितियां न्याय का गला घोंट सकती हैं। कोर्ट ने रेखांकित किया है कि ऐसे कई दावे हैं जिन्हें ड्राइवरमालिक ने पुलिस और यहां तक कि डॉक्टर से मिलीभगत कर पेश किए गए हैं। ऐसी स्थितियों में बीमा कंपनियां दुविधा में घिरी हो सकती हैं। उन्हें हस्तक्षेप करने में सक्षम नहीं होने के बाद भी अधिनिर्णय के दायित्व और मुआवजे के आकलन की प्रक्रिया को देखना होगा।
ऐसे में मोटर वाहन अधिनियम को दो प्रावधान पर नजर डालने की दरकार है। वर्तमान में ऐसा लगता है कि बीमा करने वाला वाहन मालिक की दया पर निर्भर है क्योंकि न्यायाधिकरण के पास अधिकार है कि वह उसे बुलाए या नहीं और अगर बुलाए तो कुछ निश्चित परिस्थितियों में।
क्या बीमा करने वालों को सीधे यानी न्यायाधिकरण की अनुमति के बिना इसमें शामिल होने की अनुमति दी जानी चाहिए? सर्वोच्च न्यायालय के मुताबिक, इस सवाल पर कानून बनाने वालों को ध्यान देना चाहिए। यह कानून दो दशक पुराना है, और पिछले अनुभव को देखते हुए इसमें संशोधन करना बुध्दिमानी भरा कदम हो सकता है।
