मौजूदा आम चुनाव लोकसभा क्षेत्रों के नए सिरे से परिसीमन के बाद होने वाले पहले चुनाव हैं।
बीते दिनों कुछ राज्यों में भी नई व्यवस्था के तहत चुनाव हुए हैं और ऐसा माना जा रहा है कि इसका असर नतीजों पर भी पड़ा है। क्या राष्ट्रीय स्तर पर भी ऐसा ही होगा या नहीं? इसमें कोई शक नहीं है कि चुनाव के नतीजों का सूक्ष्म विश्लेषण करने के बाद इस तथ्य का पता चल जाएगा।
लेकिन, परिसीमन की अवधारणा और सिद्धांत के संबंध में ही कई बड़े मसले हैं। जाहिर तौर पर परिसीमन का बुनियादी मकसद यह सुनिश्चित करना है कि भौगोलिक रूप से परिभाषित विभिन्न जनसांख्यिकीय क्षेत्रों को समान प्रतिनिधित्व मिल सके।
आधुनिक लोकतंत्र का मुख्य आधार ‘एक व्यक्ति-एक वोट’ हो सकता है लेकिन इसे प्रतिनिधित्व संरचना में बदलने के कई तरीके हैं। भौगोलिक निर्वाचन क्षेत्र इनमें से एक है लेकिन दुनिया भर में भौगोलिक निर्वाचन क्षेत्र व्यापकता शायद प्रतिनिधित्व के अन्य तरीकों के मुकाबले उसकी श्रेष्ठता पर आधारित है।
भौगोलिक संसदीय क्षेत्र के ढांचे में दो बुनियादी सिद्धांत लागू करने की जरूरत है। पहला, प्रत्येक विधायी सीट के सदस्य द्वारा मोटे तौर पर बराबर संख्या में लोगों का प्रतिनिधित्व किया जाना चाहिए। दूसरा, प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र के ‘हित’ तुलनात्मक रूप से एक समान हों।
अगर पहला सिद्धांत ठीक से लागू नहीं हुआ तो क्षैतिज असंतुलन बढ़ेगा जबकि दूसरे सिद्धांत के लागू नहीं होने पर ऊर्ध्वाधर असंतुलन बढ़ेगा। एक असमान संसदीय क्षेत्र में एक समूह के हित बाकी जनता पर हावी हो जाते हैं।
निश्चित तौर से इसका कोई सटीक समाधान नहीं है। इन दोनों सिद्धांतों के आधार पर विभिन्न देशों ने अपनी विधायी प्रणाली को श्रेणीबद्ध करने के लिए अलग-अलग तरीके अपनाए हैं। उदाहरण के लिए अमेरिका ने सीनेट में प्रत्येक राज्य को समान प्रतिनिधित्व देकर क्षैतिज व्यवस्था अपनाई है।
ब्रिटेन ने ऊर्ध्वाधर संतुलन को तरजीह देते हुए छोटे और एक समान निर्वाचन क्षेत्रों को अपनाया है। हाउस ऑफ कॉमंस के 635 सदस्य हैं, जो करीब 10 करोड़ लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जबकि लोकसभा में 543 सदस्य हैं जो ब्रिटेन के मुकाबले 10 गुने से अधिक लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
इस नजरिए से देखें तो प्रतिनिधित्व के भारतीय मॉडल में कुछ उल्लेखनीय कमजोरियां हैं। हालांकि हम अपनी चुनावी प्रक्रिया की मजबूती और सच्चाई पर गर्व कर सकते हैं, लेकिन इस बात को लेकर जायज चिंताएं बनी हुई हैं कि क्या पूरी प्रक्रिया ऐसे नतीजे दे रही है जो क्षैतिज और ऊर्ध्वाधर संतुलन के उद्देश्य को पूरा करते हों।
हाल में परिसीमन की कवायद कई उल्लेखनीय संख्यात्मक बाधाओं के साथ पूरी की गई है। पहली, लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में सीटों की संख्या एक प्रमुख मुद्दा था। पहली लोकसभा में 489 सीटें थीं जो करीब 36 करोड़ लोगों का प्रतिनिधित्व करती थीं। इसके बाद 1971 और 1977 में सीटों की संख्या को बढ़ाकर क्रमश: 518 और 542 कर दिया गया।
अंतिम बढ़ोतरी 1989 में की गई। इस बार सीटों की संख्या बढ़कर 543 हो गई और तब से यह यथावत बनी हुई है। पूरे समय के दौरान सीटों की संख्या में करीब 11 प्रतिशत की वृद्धि हुई है जबकि इस दौरान आबादी तीन गुनी हो चुकी है। इसी तरह राज्य विधानसभाओं में भी सीटें तुलनात्मक रूप से स्थिर बनी हुई हैं।
अब जरा राज्यों के बीच लोकसभा सीटों के बंटवारे को देखिए। अगर इन 543 सीटों को राज्यों के बीच उनकी जनसंख्या के आधार पर बांटा जाए तो उत्तर प्रदेश को मौजूदा 80 सीटों के मुकाबले 8 सीटों का और फायदा होगा जबकि तमिलनाडु मौजूदा 39 सीटों में से 6 को खो देगा।
निश्चित तौर से अगर इस नियम को सही सही लागू किया जाए तो कई ऐसे छोटे राज्य और केंद्र शासित प्रदेश हैं जो एक सीट पाने के योग्य भी नहीं हैं, लेकिन बड़ा मुद्दा यह है कि तमिलनाडु जैसे राज्यों ने अपनी आबादी को नियंत्रित करने में उल्लेखनीय सफलता हासिल की है, उन्हें इसका खामियाजा उठाना पड़ेगा। इसलिए कोई आश्चर्य नहीं है कि तमिलनाडु सर्वाधिक प्रखरता के साथ इस बात की वकालत कर रहा है कि प्रत्येक राज्य के लिए लोकसभा सीटों की संख्या में कोई फेरबदल नहीं होना चाहिए।
समानता की कसौटी को सख्ती से लागू करें तो प्रतिनिधित्व अनुपात (सीटों में हिस्सेदारीजनसंख्या में हिस्सेदारी) के लिहाज से राज्य का देश में दूसरा स्थान है, 1.18 है। यह अनुपात केरल में सबसे अधिक 1.19 है। केरल ने भी जनसंख्या नियंत्रण के उपायों को प्रभावी ढंग से क्रियान्वित किया है। कमतर राज्यों की बात करें तो उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश दोनों में यह अनुपात 0.91 है, लेकिन निम्नतम अनुपात 0.9 हरियाणा में हैं।
कोई यह दलील दे सकता है कि जनसंख्या आंकड़े शामिल होने के कारण राज्यों के बीच यह अंतर बहुत अधिक प्रासंगिक नहीं है। मौजूदा आवंटन समान प्रतिनिधित्व और प्रभावशाली जनसंख्या नीति को प्रोत्साहन के विरोधाभासों के बीच संतुलन स्थापित करता है। इस सिद्धांत को वित्त आयोग जैसे दूसरे संघीय तंत्रों में अपनाया गया है। लेकिन क्षैतिज संतुलन का सवाल अभी भी बना हुआ है।
यहां तक कि मौजूदा बंटवारे में भी सीटों के आकार में भारी अंतर है, क्या किसी खास भौगोलिक संसदीय क्षेत्र के हित विधायी प्रक्रिया और इससे बढ़कर पूरी प्रशासनिक व्यवस्था को प्रभावित कर रहे हैं? अब ऊर्ध्वाधर संतुलन की बात करते हैं। चूंकि एक लोकसभा क्षेत्र का औसत आकार 20 लाख लोग से अधिक है, ऐसे में समान हित का होना मुश्किल है, यहां तक कि असंभव सपना है।
समानता के लिए एक उपयोगी लेकिन अधूरा उपाय यह है कि आबादी को गांवों और शहरों के बीच बांट दिया जाए। इनमें से प्रत्येक समूह कुछ साझा हितों को दर्शाते हैं। हाल में हुए परिसीमन में सीधे तौर पर इस मुद्दे का मुकाबला किया गया। इस आधार पर राज्यों में लोकसभा और विधानसभा के निर्वाचन क्षेत्र फिर से तय किए गए।
खबरों के मुताबिक इसके परिणामस्वरूप विधानसभा की 40 प्रतिशत सीटाें में शहरी आबादी प्रभावशाली हो गई है। इससे लोगों द्वारा गांवों से शहरों की ओर हो रहे तेज पलायन का पता चलता है। देश में 1971 से 2001 के बीच कुल आबादी में शहरी आबादी की हिस्सेदारी 20 प्रतिशत से बढ़कर 28 प्रतिशत हो गई है। महाराष्ट्र और तमिलनाडु जैसे राज्यों में शहरी आबादी की हिस्सेदारी 40 प्रतिशत से अधिक हो गई है।
इस संदर्भ में परिसीमन का प्रभाव राज्यों के विधानसभा के चुनावों में अपेक्षाकृत अधिक देखने को मिलेगा। नए लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों विविधता काफी अधिक हो सकती है। अगर नई सीमाओं को लंबे समय तक यथावत बनाए रखा जाएगा तो शहरों की आबादी में बढ़ोतरी के कारण लोकसभा के स्तर पर उर्ध्वाधर संतुलन अभी दूर की कौड़ी है।
परिसीमन लोकतंत्र में प्रभावी प्रतिनिधित्व और प्रशासन को हासिल करने की कवायद का अभिन्न हिस्सा है। भारत में ऊर्ध्वाधर संतुलन को आंशिक रूप से हासिल कर लिया गया है लेकिन क्षैतिज संतुलन के मोर्चे पर कई चुनौतियां बरकरार हैं। सीटों की संख्या में बढ़ोतरी और राज्यों के बीच आवंटन जैसे मसलों पर विचार करने की जरूरत है।
(लेखक स्टैंडर्ड ऐंड पुअर्स में एशिया-प्रशांत क्षेत्र के मुख्य अर्थशास्त्री हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
