दिल्ली मेट्रो रेल कार्पोरेशन (डीएमआरसी) के मुखिया ई श्रीधरन ने योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया को लिखे एक पत्र में कहा है कि हैदराबाद में सार्वजनिक–निजी भागीदारी (पीपीपी) मॉडल में ढेरों खामियां हैं।
उनका मानना है कि सरकार के स्वामित्व वाला मॉडल बेहतरीन है और हैदराबाद मॉडल बड़े राजनीतिक घोटाले की वजह बन सकता है। इस मॉडल से जमीन के आवंटन से अकूत कमाई होगी और विवाद बढ़ेगा।
उन्होंने इसका उल्लेख किया है कि मेटास कंसोर्टियम सरकार को 30,300 करोड़ रुपये देने के लिए सहमत हो गया है, जो परियोजना की संपूर्ण अवधि के लिए होगा (अगर वर्तमान कीमत के लिहाज से देखें तो यह 1,240 करोड़ रुपये है)।
सरकार ने मेट्रो को 296 एकड़ भूमि दी है जिसका प्रयोग विकास के लिए किया जाएगा। श्रीधरन का कहना है कि बाद की जरूरतों के लिए और 1,000 करोड़ रुपये की जरूरत होगी।
ज्यादातर लोग, जिन्होंने पत्र पढ़ा है (इसका मजमून बहुत ही उदारता पूर्वक मीडिया को लीक कराया गया है) वे मानते हैं कि इनमें से किसी ने भी डीएमआरसी के लिए आवेदन नहीं किया है– इसके बावजूद वित्त मंत्रालय इन तर्कों से बहुत प्रभावित है।
वह योजना आयोग के माध्यम से पीपीपी के इस मॉडल की सक्रिय रूप से जांच कर रहा है। दिल्ली मेट्रो की वार्षिक रिपोर्ट को ध्यान से पढ़ने पर यह स्पष्ट होता है कि जो तर्क दिए गए हैं, वे खुद के अनुभव के आधार पर हैं।
डीएमआरसी में केंद्र और राज्य की हिस्सेदारी 50-50 प्रतिशत की है, जिसके चलते वास्तव में किसी भी सरकार का इस पर मालिकाना हक नहीं है। इसके चलते जवाबदेही और जांच पड़ताल के मामले में तमाम दिक्कतें आती हैं।
आइये डीएमआरसी और हैदराबाद की योजना की तुलना करते हैं और देखते हैं कि किस बात को लेकर डीएमआरसी के प्रमुख चिंतित हैं।
डीएमआरसी ने 2006-07 में कुल 6,648 करोड़ रुपये कर्ज लिए, जिसकी औसत ब्याज दर 1.44 प्रतिशत थी। 3702 करोड़ रुपये की इक्विटी पर कोई लाभांश नहीं मिला। अगर आप बाजार की ब्याज दरों पर कल्पना करें तो इतनी ही इक्विटी की वापसी देनी होगी।
इसका मतलब यह हुआ कि डीएमआरसी को सालाना 1,000 करोड़ रुपये से ज्यादा की सब्सिडी मिल रही है। इसको मिले कुल धन में करीब 90 प्रतिशत जापान की जेबीआईसी से सब्सिड़ी दरों पर मिला है, लेकिन विनिमय दरों का खतरा बना हुआ है, (जो इस तरह की दीर्घकालिक परियोजनाओं में ज्यादा प्रभावी होता है) जो समुद्रपारीय व्यापार में भारत सरकार पर पड़ता है।
इस पूंजी निवेश पर डीएमआरसी ने कभी भी कोई एक्साइज, कस्टम और सेल्स टैक्स नहीं दिया। आप मान सकते हैं कि इससे 20 प्रतिशत की बचत होती है, जो 2,000 करोड़ रुपये के करीब आता है या 12 प्रतिशत ब्याज दर के हिसाब से देखें तो यह 240 करोड़ रुपये प्रतिसाल की एक और छूट मिलती है।
इसको बिजली की भी आपूर्ति व्यावसायिक दरों की आधी दर पर मिलती है, जिससे 25 करोड़ रुपये प्रतिसाल की एक और बचत होती है। इन सबके बावजूद डीएमआरसी का वार्षिक राजस्व 543 करोड़ रुपये है, जिसमें से 252 करोड़ रुपये तो केवल रियल एस्टेट कारोबार से आते हैं।
इसकी तुलना हैदराबाद के मामले से करें, जहां मेटास को सभी फंड व्यावसायिक दरों पर लेने हैं और अगर उतना ही किराया रखा जाए, जितना डीएमआरसी लेती है तो कुल वर्तमान मूल्य 1240 करोड़ रुपये होगा। इस तरह से पीपीपी के माध्यम से बचत स्वाभाविक है।
लेकिन अगर आप श्रीधरन के तर्कों को मानें तो मेरे और उनके तर्कों में बहुत अंतर है। इसमें 269 एकड़ जमीन का कोई जिक्र नहीं किया गया है जो रियल एस्टेट के रूप में हैदराबाद मेट्रो को मिल रही है, जिसे श्रीधरन परिवार की कीमती संपत्ति की बिक्री मानते हैं। डीएमआरसी के प्रमुख के मुताबिक अगर यह जमीन नहीं दी गई होती तो मेटास पैसे चुकाने के बजाय 10,000 करोड़ रुपये की मांग करती।
यहां पर ध्यान देने वाली बात यह है कि दिल्ली मेट्रो को भी बड़ी मात्रा में जमीन मिली थी। 2006-07 की वार्षिक रिपोर्ट में कहा गया है कि 960 एकड़ जमीन तो केवल एक ही जगह पर दी गई है।
दूसरे शब्दों में जितना हैदराबाद मेट्रो को मिला है, दिल्ली मेट्रो को उससे कई गुना ज्यादा मिला है। इसके साथ ही हैदराबाद मेट्रो को कोई भी जमीन पट्टे या बिक्री के लिए नहीं मिली है (वह केवल मेट्रो स्टेशनों और डिपो के स्पेस को ही विकसित कर लीज पर दे सकती है), दिल्ली मेट्रो तमाम जमीन 90 साल के पट्टे पर दे रही है।
यह सरकारी जमीन की बलपूर्वक बिक्री है। जहां डीएमआरसी के ऑडिटर्स कहते हैं कि जमीन बेचकर पैसा इकट्ठा करना तमाम नियमों का उल्लंघन है, वहीं कैग इसे हरी झंडी देता है। बहरहाल डीएमआरसी के लिए जमीन की बिक्री जितनी आसान है, उसकी कल्पना भी हैदराबाद में नहीं की जा सकती।
इस पर कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि डीएमआरसी पर दिल्ली नगर निगम ने 452 करोड़ रुपये का संपत्ति कर लगाया था जो बाद में विवाद का विषय बन गया और बाद में मुख्य सचिव का बयान आया कि यह नहीं लिया जाएगा।इसके बाद दिल्ली नगर निगम ने 33 करोड़ रुपये की मांग की।
भूमि पर कर न अदा करने से दिल्ली मेट्रो का मुनाफा और बढ़ा और अगर हैदराबाद की बात करें तो उसे इस तरह से करों में कोई छूट नहीं मिलने वाली है। दिलचस्प है कि 2006-07 में डीएमआरसी की कुल आमदनी में रियल एस्टेट की हिस्सेदारी 53 प्रतिशत थी और यह ईबीडीआईटी की आमदनी का 70 प्रतिशत थी– प्री टैक्स प्रॉफिट के लिहाज से रियल एस्टेट प्रॉफिट 11.6 गुना था।
कितना दुखद है कि डीएमआरसी के प्रमुख अपने मॉडल की प्रशंसा में इतने उबाऊ बयान देते हैं, वह इस बात को भूल जाते हैं कि मेट्रो अपने लक्ष्यों से कितना पीछे है। पहले चरण में 2005 तक यात्रियों का लक्ष्य 21.8 लाख था, लेकिन वास्तविक आंकड़ा 2005 तक 15 लाख तक ही पहुंचा।
2006-07 की रिपोर्ट में कहा गया है कि कुल यात्रियों की संख्या 6.1 लाख थी। इसलिए पीपीपी परियोजनाओं की आलोचना करते समय इन तथ्यों को भी ध्यान में रखने की जरूरत है।