भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर के तौर पर वाई. वी. रेड्डी के कार्यकाल के दौरान महत्त्वपूर्ण नीतिगत मामलों में आरबीआई और वित्त मंत्रालय में मतभेद सार्वजनिक और स्पष्ट रूप से सामने आए।
पिछले साल सितंबर में केंद्रीय बैंक के गवर्नर के तौर पर डी. सुब्बाराव की नियुक्ति के बाद कई लोगों ने भरोसा जताया था कि संबंधों में सुधार आएगा क्योंकि वह वित्त सचिव रह चुके हैं। साथ ही, पी. चिदंबरम दिसंबर महीने में गृह मंत्रालय में जा चुके हैं।
दिसंबर महीने में हुए मौद्रिक व वित्तीय ऐलान के बीच समन्वय ने और ज्यादा मधुर संबंधों की उम्मीदें मजबूत कर दी थी, जो एक दूसरे के न सिर्फ पूरक बने बल्कि एक दूसरे को मजबूती भी दी। हालांकि संकट से निपटने की खातिर उपजे तनाव के चलते उनके मकसदों में बार-बार टकराव की स्थिति पैदा हुई और अब लगता है कि यह मतभेद सतह पर आ गया है।
पिछले हफ्ते सीआईआई की सालाना बैठक में डॉ. सुब्बाराव ने वित्तीय और मौद्रिक कदमों के बीच उभरते टकराव को रेखांकित किया। उन्होंने संकेत दिया कि अगली वित्तीय राहत ऋण बाजार पर दबाव डालेगी और यह आरबीआई द्वारा रेपो रेट कम करने और ज्यादा तरलता लाने की बाबत उठाए गए गए कदमों से मिलने वाले फायदे को समाप्त कर देगी।
सरकारी प्रतिभूतियों की बाबत बाजार के घटनाक्रम से ही उनकी चिंताएं उभरी हैं। हाल के हफ्तों में 10 साल की प्रतिभूति पर प्रतिफल बढ़त की ओर है और यह मार्च महीने के अंतिम गुरुवार को 7 फीसदी को पार कर गए और मार्च में ऐसा दूसरी बार हुआ है। यह घटनाक्रम सरकारी उधारी में हुई महत्त्वपूर्ण बढ़ोतरी को समर्पित है जो कि राजकोषीय घाटे के रूप में प्रतिबिंबित हो रही है।
निश्चित रूप से बड़ी सरकारी उधारी को आरबीआई समायोजित कर सकता है क्योंकि रेपो रेट अभी भी 5 फीसदी के स्तर पर है और नकद सुरक्षित अनुपात को और कम किया जा सकता है। सीआईआई की इसी बैठक में योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया और मुख्य आर्थिक सलाहकार (वित्त मंत्रालय) अरविंद विरमानी ने कहा कि वित्तीय राहत जारी रखे जाने की जरूरत है।
तथापि हाल में ब्याज दर की चाल का ऋण की उपलब्धता पर इसके कठोर असर नहीं देखे गया। बल्कि निजी खर्च की अनिश्चितता की वजह से हाथ पीछे खींचने के खतरे पर जोर दिया गया। इस तर्क में अंतर्निहित बात यह है कि ब्याज दर में कटौती कर आरबीआई सरकारी प्रतिभूति के प्रतिफल में हुए इजाफे की भरपाई करे और तरलता में इजाफा करे, जिसके बारे में आरबीआई चिंतित है।
अलग-अलग मकसद और बाध्यताओं के बावजूद दोनों ही विचारों में अच्छी चीजें हैं। हालांकि सरकारी नीतिगत कदमों का उत्सुकता से इंतजार कर रहे निवेशक, कंपनियां और उपभोक्ता फिर से उभर रहे मिंट रोड और नॉर्थ ब्लॉकयोजना आयोग के मतभेद से उलझन महसूस करेंगे। सरकार को देखना होगा कि राहत के असर को कमजोर किए बिना वह चुनाव के बाद सार्वजनिक वित्त पर किस तरह नियंत्रण करेगी।
आरबीआई को ब्याज दर में बढ़ोतरी से लोहा लेने की जरूरत होगी और साथ ही बैंकों पर दबाव बनाए रखना होगा ताकि वे प्राइवेट सेक्टर को ऋण के प्रवाह में बढ़ोतरी करते रहें। इन मुद्दों को अगर समय रहते नहीं सुलझाया गया तो इसके खतरे बड़े होंगे क्योंकि अर्थव्यवस्था नीचे की ओर अग्रसर है।
