दुनिया जिस आर्थिक संकट में फंस चुकी है, उससे निकलने का एक ही रास्ता दिखाई दे रहा है। अब हमें किताबों से बाहर निकलकर, एक व्यावहारिक समाधान निकालना पड़ेगा।
बढ़ती महंगाई, नैतिकता और बाजार की दिक्कतों का हल बाजार को ही निकालने देने के नतीजों की चिंता की वजह से ही सरकारों और केंद्रीय बैंकों को संकट की इस आग में कूदने के लिए मजबूर कर दिया। वक्त आ गया है, जब मंदी के शैतान का मुकाबला छिपकर नहीं, बल्कि खुलकर किया जाए।
अब अगले कुछ देसी और वैश्विक अर्थव्यवस्था के फैसले वित्त और कर्ज के संकट को देखते हुए लिए जाएंगे, न कि मोटे आर्थिक आंकड़ों को ध्यान में रखकर। मिसाल के तौर पर रिजर्व बैंक के पिछले हफ्ते के सीआरआर की दर को डेढ़ फीसदी कम करने के फैसले को ही ले लीजिए। किताबी कीड़े इस कदम की कड़ी आलोचना करेंगे। उनके मुताबिक अब भी महंगाई की दर दहाई के आंकड़े में है।
बाजार में भले ही कुछ समय के लिए पूंजी प्रवाह कम होगा, लेकिन त्योहारी मौसम के गुजरने के साथ ही हालात में अपने-आप ही सुधार आ जाता। अगर रिजर्व बैंक ने उनकी बात को तवज्जो दी होती, तो हम आज बड़ी मुसीबत में होते। बैंकों के बीच में होने वाला कर्जों का लेन-देन रुका हुआ है, इस वजह से बैंकों को ऋण मुहैया करवाने में बड़ी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है।
इससे कुछ वित्तीय संस्थानों पर दिवालिया होने का खतरा भी मंडराने लगा था। कम से कम रिजर्व बैंक को यह तो दिखाना चाहिए था कि वह उनकी दिक्कतों को जानता है। बैंकों की मानें तो यह काफी नहीं होगा। विदेशी निवेशक तेजी से मुल्क से पैसे निकाल रहे हैं। इसलिए बाहर से पैसे आने की बात तो छोड़ ही दीजिए। साथ ही, सरकार भी काफी बड़ी मात्रा में बाजार से पैसे उठा रही है।
सरकार के जो तयशुदा खर्चे हैं, वे साल के अंत तक बाजार से 39 हजार करोड़ रुपये खींच लेंगे। ऊपर से गैर बजटीय खर्चों के लिए भी तो सरकार को पैसे चाहिए। यह शायद सच भी हो। हमें पूंजी प्रवाह बढ़ाने की जरूरत तो है। हालांकि, मेरा मानना है कि सीआरआर में कटौती हिंदुस्तानी नीतियों में एक बड़े बदलाव के तौर पर आई है। हमारे नौकरशाह अब नकारात्मक सोच से बाहर आ रहे हैं।
भारतीय वित्त जगत के दुनिया से पूरी तरह से प्रभावित नहीं होने की रटी-रटाई दुहाई देने की बजाए सरकार और रिजर्व बैंक ने इस संकट की गंभीरता को माना है। अब वे इससे बचने के लिए कदम भी उठा रहे हैं। अब उन लोगों से मैं कुछ कहना चाहूंगा, जिन्हें यह लगता है कि हमारा मुल्क इस संकट से बचा हुआ है।
देसी बैंकों की विदेशी शाखाओं में इस वक्त तकरीबन 50 अरब डॉलर की मोटी-ताजी रकम लगी हुई है। उनके लिए पूंजी का प्रवाह पूरी तरह से सूख चुका है। अब वे देसी बैंकिंग प्रणाली के रहमोकरम पर जिंदा हैं। इसका मतलब यह हुआ कि विदेशी जरूरतों को पूरा करने के लिए देसी पूंजी चाहिए होगी। यह देसी पूंजी को सोखेगी ही।
भारत के सिर इस वक्त पर कम से कम 89 अरब डॉलर का छोटी अवधि का कर्ज है। इसे हमें साल भर में चुकता करना होगा। विदेशी संस्थागत निवेशक अब तक हमारे बाजारों से 11 अरब डॉलर की अच्छी-खासी रकम निकाल चुके हैं। वैसे, अब भी देसी बाजारों में उनके 60 अरब डॉलर लगे हुए हैं। चीजें सुधरेंगी जरूर, लेकिन उसके पहले वे काफी हद तक बिगड़ चुकी होंगी।
यह मंदी कब खत्म होगी, यह भविष्यवाणी करना तो नामुमकिन है। दुनिया भर की सरकारों और केंद्रीय बैंकों की बाजार को स्थिर करने की कोशिशें रंग नहीं ला रही हैं। हालांकि, संकटों के इतिहास की मानें तो संकट के ये बादल अगले कुछ महीनों में छंट चुके होंगे। मैं तो शर्त लगाने के लिए तैयार हूं कि बाजार अगले साल की शुरुआत तक स्थिर हो चुके होंगे।
हालांकि, मेरा यह भी मानना है कि इस मंदी का असर अभी सालों तक देखने को मिलेगा। इसके गुजरने के बाद तो वैश्विक वित्त जगत का रूप भी पूरी तरह से बदल जाएगा। इसीलिए कई ऐसी बातें होंगी, जिनके लिए हमें पहले से तैयार होना चाहिए। पहली बात तो यह है कि दुनिया के निवेशक कुछ समय के लिए जोखिम से दूर रहना चाहेंगे।
साथ ही, नियंत्रक भी कुछ समय के लिए बाजार पर कड़ी नजर रखेंगे। इस संकट की वजह से अमेरिका के बड़े बैंकों और यूरोप के कुछ बैंकों पर सरकारी कब्जा हो गया है। इस वजह से सरकार को वित्तीय हालत पर कड़ी निगरानी रखने में मदद मिलेगी। इससे उन कुछ संपत्तियों की कीमत में मध्यम अवधि में गिरावट आएगी, जिन्हें पहले जोखिम भरा माना जाता था।
इसीलिए अगर अलगे कुछ महीनों में यह संकट खत्म हो गया, तो भी भारत जैसे उभरते हुए बाजारों के लिए यह कोई खुशखबरी बनकर नहीं आएगा। जोखिमों से बचने की नीति की वजह से गैर सूचीबद्ध कंपनियों और वेंचर कैपिटल फंडों में भी पैसे कम ही लगाए जाएंगे।
दूसरी बात यह है कि अमेरिकी और यूरोपीय सरकारों पर अपने बेलऑउट प्लान का पैसा निकालने का भी बोझ होगा। अकेले अमेरिकी सरकार पर कम से कम 1.5 लाख करोड़ डॉलर उगाहने का दबाव होगा। इसका मतलब यह हुआ कि अगले कुछ सालों में सरकारें बाजार से भारी मात्रा में पैसे उठाएंगी। यह पैसा वे कम ब्याज दरों पर उठाएंगी, लेकिन उसके साथ पूरी सुरक्षा जुड़ी होगी।
जोखिम से कतराने वालों से भरे बाजार में इस वजह से निजी संस्थानों के लिए पैसे उठाना मुश्किल हो जाएगा। इस वजह से पूरी दुनिया में कई वित्तीय संस्थानों को अपना बोरिया बिस्तर समेटना पड़ेगा। तीसरी बात यह है कि बेलऑउट प्लान के शुरुआती दौर अमेरिकी सरकार तो जोखिमों से भरी संपत्तियों को खरीद लेगी। बाद में, जब बाजार की हालत सुधर जाएगी, तो वह इन्हें बेच देगी।
अमेरिकी सरकार को तो उम्मीद है कि ऐसा करके वह काफी मुनाफा कमा पाएगी। दुनिया की दूसरी सरकारें भी इस राह पर चल सकती हैं। सरकारें बाजारों और संस्थान की हालत सुधारने के लिए उन्हें बेच देंगी। इसलिए जैसे-जैसे बाजार की दशा सुधरेगी, वैसे-वैसे बाजार में परिसंपत्तियां और बड़ी तादाद में शेयर आएंगे।
इस वजह से बाजार कुछ समय के लिए गिरावट के दौर में बरकरार रहेगा क्योंकि बाजार में बड़ी मात्रा में परिसंपत्तियां होंगी। यह सब बाजार के लिए काफी जोखिम भरा साबित हो सकता है, इसलिए इस पर चौकस नियंत्रक या अपना पैसा निकलाने में जुटी सरकारें अड़ंगा लगाने की कोशिश कर सकती हैं। बाजार का खून-खराबा तो अगले कुछ महीनों में खत्म हो जाएगा, लेकिन इसका मतलब कतई नहीं है कि इससे जख्म भी भर जाएंगे।