पुलिस के लिए 1 जून 2006 एक बेहतर दिन था। घातक हथियारों से लैस 3 पाकिस्तानी फिदायीनों को सुरक्षा बलों ने नागपुर स्थित आरएसएस मुख्यालय में मार गिराया।
सतर्क पुलिसकर्मियों ने न केवल परिसर में होने जा रहे एक बड़े नरसंहार को टाल दिया बल्कि उसके बाद संभावित सांप्रदायिक खूनी संघर्ष को भी रोकने में वे सफल साबित हुए।
सही कहें तो जांबाज भारतीय खुफिया आपरेशन में एकतरफा हमला हुआ। आतंकवादी संगठन ने खून की होली खेलने के लिए आरएसएस मुख्यालय को चुना था और वे भीतर तक पहुंच भी गए थे।
एक खुफिया कर्मचारी ने अपनी जान की बाजी लगाते हुए उनकी एक-एक गतिविधियों पर नजर रखी और हमले की रणनीति के बारे में पल पल की जानकारी दी। उसने यह साहसिक कार्य किया, लेकिन उसे सार्वजनिक रूप से कोई राष्ट्रपति पुरस्कार नहीं मिला।
उसी की तरह से तमाम अन्य खुफिया कर्मचारी स्वतंत्र रूप से काम करते हैं और भारत की विभिन्न जगहों पर हमले की योजनाओं को विफल करते हैं। लेकिन हमारी खुफिया एजेंसियां जयपुर विस्फोट के षड़यंत्र का अनुमान लगाने में विफल रहीं, जहां मंगलवार को 80 लोगों की जान चली गई।
महत्त्वपूर्ण सवाल यह है कि सुरक्षा एजेंसियां इस हादसे को क्यों नहीं रोक सकीं-सवाल खुफिया एजेंसियों के चरित्र पर उठने लगे कि खुफिया एजेंसियों का इस हादसे में क्या दायित्व था। हमेशा की तरह घटना का पोस्टमार्टम किया जाने लगा, राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोपों का दौर शुरू हो गया। पोटा की बहाली की भी बात आई। बांग्लादेशी घुसपैठियों की बात उठी और आतंकवाद के खिलाफ पाकिस्तान पर दबाव बढ़ाए जाने का मसला भी उठा।
किसी भी राजनीतिज्ञ या जनप्रतिनिधि ने यह सवाल नहीं उठाया कि इंटेलिजेंस ब्यूरो में केवल 20,000 लोग अधिकृत रूप से काम करते हैं और उन पर एक अरब लोगों की सुरक्षा की जिम्मेदारी है। अगर हर एक आईबी का कर्मचारी सक्रिय रहता है, जैसा कि नागपुर सेल ने घुसपैठ के मामले में किया, तो हर एक को 50,000 भारतीयों पर नजर रखनी पड़ेगी।
यह हकीकत है कि केवल 2000 आईबी कर्मचारी विभिन्न इलाकों में सक्रिय रहते हैं, इसके अलावा बाकी सभी प्रशासनिक कार्यों में व्यस्त रहते हैं। मुख्यालयों में काम करते हैं, नौकरशाहों के साथ रिश्ते बनाने में लगे रहते हैं, बजट बनाने और एकाउंट का काम करने में लगे रहते हैं या दूसरे सरकारी कामों में लगे रहते हैं, जो उन्हें सौंपा जाता है।
किसी ने यह सवाल भी नहीं उठाया कि आईबी में जितने लोगों को अधिकृत किया गया है, उसकी तुलना में कर्मचारियों की कमी है। बावजूद इसके 4000 कर्मचारियों की कटौती कर दी गई। इसका नपा तुला उत्तर यह होता है कि सरकार कुछ साल से केंद्रीय कर्मचारियों की संख्या में कमी करना चाहती है, जिसके तहत भर्तियों पर रोक लगी है। किसी भी राजनीतिक दल ने यह सवाल नहीं उठाया कि कारगिल में घुसपैठ के बाद बने मंत्रिसमूह की सिफारिशें लागू क्यों नहीं की गईं।
सिफारिशों में आईबी के जमीनी स्तर तक विस्तार, प्रत्येक राज्य में खुफिया एजेंसियों के संयुक्त टास्क फोर्स (जेटीएफआई) गठित किए जाने और साथ-साथ काम करने के लिए एक मल्टी एजेंसी सेंटर (एमएसी) बनाए जाने, दूसरी एजेंसियों से तुलना कर स्थिति का आकलन किए जाने की बात कही गई थी। ये सिफारिशें धूल फांक रही है और आतंकवादी अपनी जड़ें जमा रहे हैं।
इंटेलिजेंस एजेंसियों की उन बातों पर भी कोई ध्यान नहीं दिया गया जिसमें उन्होंने कर्मचारियों की संख्या बढ़ाए जाने की मांग की थी। आरोप यह है कि ‘आईएएस लॉबी’ ऐसा होने नहीं देती है। जब मैन पावर बढ़ाए जाने का मसला उठता है तो कोई जूनियर स्तर का आईएएस हजार सवाल खड़ा कर देता है, कि इसकी जरूरत क्या है। इसका परिणाम यह होता है कि इंटेलिजेंस के लिए अस्थायी फौज बनती है और उनकी स्थायी रूप से नियुक्ति नहीं की जाती है।
अगर बेहतर खुफिया एजेंसी की जरूरत है, तो इसके साथ ही बेहतरीन पुलिस व्यवस्था भी उतनी ही जरूरी है, जिससे सूचनाओं पर त्वरित कार्रवाई हो सके। लेकिन हकीकत यह है कि निचले स्तर पर पुलिस, खुफिया रिपोर्टों पर कान नहीं देती। पश्चिमी ढाचे में पुलिस की बीट बंटी होती है, जो हर सिपाही के लिए निर्धारित होती है।
वह सिपाही अपनी बीट देखता है, जिसको एक बाजार, कु छ मकानों के समूह या कुछ गांवों पर नजर रखनी होती है। भारत में यह संभव ही नहीं है कि कुछ सिपाही सही ढंग से निरीक्षण का काम कर सकें। पूरे देश में 11,840 पुलिस स्टेशन हैं, जिसमें करीब 10,12,000 पुलिस के जवान तैनात हैं। भौगोलिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो 100 वर्ग किलोमीटर में 43 जवान आते हैं।
इसका मतलब हुआ कि एक सिपाही को 2 किलोमीटर लंबे और 1 किलोमीटर चौड़े इलाके को देखना होता है। लेकिन राजनीतिज्ञों से इस तरह के कड़े सवाल कौन पूछे। क्या एक सिपाही इतने लंबे चौड़े क्षेत्र का निरीक्षण कर सकता है? हम पुलिसकर्मियों की संख्या क्यों नहीं बढ़ा रहे हैं?
पुलिस विभाग में मानव संसाधन की कमी का मसला 147 साल पुराने पुलिस एक्ट 1861 से भी जुड़ा है। नया एक्ट बनाने की तमाम असफल कोशिशें भी हुईं- नेशनल पुलिस कमीशन ने अपनी रिपोर्ट 1981 में दी। बाद के वर्षो में भी यह सिलसिला जारी रहा। राष्ट्रीय मानावधिकार आयोग, विधि आयोग, रिबेरो कमेटी, पद्मनाभन कमेटी और मलिमथ कमेटी ने भी इस मुद्दे पर रिपोर्ट दी। सोली सोराबजी की समिति ने भी पुलिस एक्ट के लिए एक मॉडल ड्राफ्ट तैयार किया।
यहां भी एक राजनीतिक मसला उठता है। कानून व्यवस्था राज्य से संबंधित मामला है, इस पर प्रत्येक राज्य को अपना पुलिस एक्ट बनाना चाहिए। केवल दस राज्यों- असम, बिहार, छत्तीसगढ़, गुजरात, हरियाणा, हिमाचल, कर्नाटक, केरल, राजस्थान और त्रिपुरा ने वास्तव में नए पुलिस कानून का मसौदा तैयार किया। तमिलनाडु जैसे अन्य राज्यों ने इस बात पर आपत्ति जताई कि केंद्र उनके अधिकारों में हस्तक्षेप कर रहा है।
2006 में सर्वोच्च न्यायालय ने एक दिशानिर्देश जारी किया, जिसमें कहा गया कि इसे 1 जनवरी 2007 से सभी राज्य सुनिश्चित करें। इसमें कहा गया कि पुलिस को राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त किया जाना चाहिए, साथ ही पुलिस की जांच शाखा को अलग किया जाना चाहिए।
लेकिन जमीनी सच्चाई यह है कि कोई जमीनी सुधार नहीं हुआ। इसका परिणाम यह हुआ कि सितंबर -06 में मालेगांव में, फरवरी-07 में समझौता एक्सप्रेस में, 7 मई को हैदराबाद की मक्का मस्जिद में, 7 अगस्त को लुंबिनी पार्क और गोकुल चाट में, 7 अक्टूबर को अजमेर शरीफ में और अब जयपुर में धमाके हुए।