दुनिया की दो बड़ी परिसंपत्तियों, यूरो और कच्चे तेल में पिछले कुछ हफ्तों में काफी तेजी देखी गई। 14 जुलाई को एक यूरो की कीमत 1.60 डॉलर के बराबर पहुंच गई थी।
यह 1999 में इसके जन्म के बाद का इसका सबसे ऊंचा स्तर था। पिछले एक साल में यह अमेरिकी डॉलर के मुकाबले काफी तेजी से चढ़ता जा रहा था। लोगों को लग रहा था कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था बस कुछ ही समय में मंदी की गर्त में जाने वाली है।
लेकिन तब से लेकर अब तक काफी कुछ बदल चुका है। मेरे इस आलेख को लिखते वक्त (29 अगस्त) तक यूरो बाजार में 1.47 डॉलर की कीमत में बिक रहा था। मतलब, 45 दिनों के इस वक्त में यूरो की सेहत में नौ फीसदी की गिरावट आ चुकी है। विश्लेषक यूरो की सेहत और कमजोर होने की भविष्यवाणी कर रहे हैं। वैसे, ये वही लोग हैं, जो जुलाई में यूरो में और मजबूती की भविष्यवाणी कर रहे थे।
अब वही जमात यह कह रही है कि यूरो अगले कुछ महीनों में 1.40 डॉलर के स्तर तक पहुंच सकता है। इससे आपका पता चल ही सकता है कि मुद्रा बाजार के बारे में भविष्यवाणी करने वाले लोग खुद ही कितने भ्रम में रहते हैं।
तेल की कीमतों में भी इसी तरह का रुख देखा गया है। जुलाई की शुरुआत में न्यूयॉर्क मर्केन्टाइल एक्सचेंज में कच्चे तेल की कीमत 148 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गई थी। उस वक्त भी ऐसे लेखों और भविष्यवाणियों की कमी नहीं थी, जिनके मुताबिक साल के आखिर तक यह 200 डॉलर प्रति बैरल के स्तर को भी पार कर जाएगा। लेकिन आज की तारीख में यह 115 डॉलर प्रति बैरल के स्तर पर बिक रहा है।
लगभग सभी विश्लेषकों के अनुसार वह दिन दूर नहीं, जब कच्चा तेल 100 डॉलर प्रति बैरल के स्तर पर आ जाएगा। तो क्या वित्तीय बाजार में आजकल लोगों को बुध्दू बनाने का खेल चल रहा है? या बाजार खुद पर सचमुच अंकुश लगाने में जुटा हुआ है और फिर से बुनियादी बातों पर गौर कर रहा है? बाजार के इस बदले मूड की एक वजह तो यह हो सकती है कि मुनाफे की मोटी मलाई अब पतली होनी शुरू हो गई है।
निवेशक अब सस्ते में कर्ज लेकर उस पैसे को मोटी कमाई देने वाली कमोडिटी या मुद्राओं में नहीं लगा रहे हैं। अब वह ठीक उल्टा कर रहे हैं। इसकी दो बड़ी वजहें हैं। पहली यह कि अब कर्ज लेना सस्ता नहीं रह गया है। एशियाई देशों के केंद्रीय बैंक पिछले कुछ महीनों से अपनी मौद्रिक नीतियों पर जबरदस्त तरह से लगाम लगा रहे हैं। इस वजह से वहां कर्ज लेना काफी महंगा हो चुका है।
ऊंची महंगाई दर के डर ने ही दूसरे बड़े केंद्रीय बैंकों जैसे यूरोपियन सेंट्रल बैंक और ब्रिटिश सरकार को ब्याज दरों के साथ छेड़खानी करने से रोक रखा है। इस वजह से दुनिया भर में तरलता में कमी आई है। यह तो हुआ कहानी का एक पहलू। माना कि दुनिया भर में तरलता में कमी आई है, लेकिन मुनाफे की मोटी मलाई का पतला होना तो काफी पहले से ही शुरू हो गया था।
लगता तो यही है कि बाजार समझ चुका है कि कर्ज का और महंगा होना वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा साबित नहीं होगा। इसी कारण तो महंगी कमोडिटी और मुद्रा की मांग में कमी आई है। कई यूरोपीय अर्थव्यवस्थाओं, खास तौर पर जर्मनी और ब्रिटेन की बदतर विकास दर ने बाजार की इस बदली सोच में बड़ी भूमिका निभाई है। चीन की आर्थिक विकास पर लटकती तलवार ने भी इसमें खासा योगदान दिया है।
जर्मनी की विकास दर तो दूसरी तिमाही में घट कर केवल आधी फीसदी रह गई है। पेइचिंग ओलंपिक के शुरू होने के साथ ही यूरो और कच्चे तेल की सेहत में आई गिरावट को महज संयोग नहीं कहा जा सकता। चीन में ओलंपिक की तैयारी की वजह से मांग में काफी तेजी आ गई थी। अब जब ओलंपिक का खुमार उतर चुका है, तो निवेशकों के मुताबिक चीन की चीजों, खास तौर पर कमोडिटी की भूख में कमी आएगी।
मोटा-मोटी कहें तो कीमतों के तेजी से चढ़ते रहने की वजह से लोगों के मन में यह डर बैठ गया कि अगर कीमतें गिरनी शुरू हुईं तो उन्हें पाताल तक पहुंचने में भी ज्यादा वक्त नहीं लगेगा। महंगी मुद्राओं के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। यूरोपियन सेंट्रल बैंक जैसे केंद्रीय बैंकों द्वारा ऊंची महंगाई दर के बावजूद भी मुद्रा की कीमत कम रखने की वजह से करेंसी के कारोबारी भी उसी राह चल निकले।
इस वजह से इन मुद्राओं से मिलने वाली मुनाफे की मोटी कमाई काफी हद तक कम हो सकती है। क्या होगा अगर यह मुनाफा कम होता रहा? इसे सबसे ज्यादा फायदा डॉलर को ही होगा। कारोबारी और फंड हाउस डॉलर परिसंपत्तियों का ही सहारा लेंगे, खास तौर पर अमेरिकी सरकार के बॉन्ड्स का।
फेड इस बात के संकेत पहले ही दे चुका है कि वह मंदी से बचने के लिए हर रुकावट को तोड़ने के लिए तैयार है, ताकि अमेरिकी परिसंपत्तियों पर लोगों का भरोसा फिर से कायम हो सके। साथ ही, वैश्विक मुसीबत के वक्त अमेरिकी संस्थागत निवेशक अपने ही बाजार में निवेश करना पसंद करते हैं। इस वजह से भी डॉलर की मांग और बढ़ सकती है।
मुद्दे की बात यह है कि इससे दूसरी मुद्राओं पर बोझ बढ़ जाएगा। इसलिए रुपये की कमजोर होती सेहत में अगले कुछ दिनों में सुधार आने की उम्मीद कम ही है। दूसरी बात यह है कि कमोडिटी की कीमतें और कभी पसंदीदा रही मुद्राओं की कीमत में अभी और गिरावट आने की उम्मीद है। शायद यह गिरावट इतनी तेज हो, जिसकी उम्मीद बाजार की बुनियादी बातों पर यकीन करने वाले लोगों को भी न हो।
अगर ओपेक कच्चे तेल के उत्पादन को कम करने के बारे में कोई साफ फैसला नहीं लेता है, तो उसे 100 डॉलर बैरल के स्तर से नीचे देखने पर भी मुझे कोई हैरानी नहीं होगी। हालांकि, कीमत केवल एक ही रास्ते पर नहीं चलती है। समय-समय पर अमेरिकी अर्थव्यवस्था के बारे में चिंताएं वापस लोगों के दिल में घर कर सकती हैं। इस वजह से लोग डॉलर को भी तेजी से बेचना शुरू कर सकते हैं।
इस वजह से कमोडिटी और यूरो की कीमतों में इजाफा हो सकता है। हालांकि, उम्मीद यही है कि इस दौर को लोग मुनाफा कमाने के लिए ही इस्तेमाल करेंगे। मुनाफा कम होना इस बात को दिखलाता है कि वैश्विक विकास की दर कम हो रही है। अभी यूरोपीय और एशियाई आर्थिक अखबारों की सुर्खियां जोश दिलाने से पहले लोगों के होश ठिकाने लगाएंगी। अमेरिकी अर्थव्यवस्था रातोंरात मंदी से बाहर नहीं आएगी।
यह एक खास तबके की हरकतों के बारे में बताता है। शेयर बाजार के लिए वैश्विक बाजार की बदतर होती हालत में अच्छा प्रदर्शन करना काफी मुश्किल काम है। इसलिए भारतीय अर्थव्यवस्था कितना भी अच्छा प्रदर्शन क्यों न कर ले या फिर कंपनियों की हालत कितनी भी अच्छी क्यों न हो, स्थानीय शेयर बाजार अगले कुछ दिनों में मोटा मुनाफा नहीं दे पाएंगे।
आखिर में वैश्विक विकास दर की पतली हालत की वजह से जब जिंसों की कीमत कम होगी तो उससे महंगाई दर भी होगी। इसके बाद ज्यादातर केंद्रीय बैंक ब्याज दरों में कटौती करके विकास पर अपना ध्यान केंद्रित कर सकते हैं। इससे विकास वापस पटरी पर आएगा। इसमें थोड़ा वक्त लग सकता है, लेकिन यह जमीन पर कैसे शक्ल लेगा, इस बारे में तो खुद भगवान भी नहीं बता सकते हैं। बाजार है ही इतनी मुश्किल चीज।