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  लेख  निकलेगा सूरज, थोड़ा वक्त तो दीजिए जनाब
लेख

निकलेगा सूरज, थोड़ा वक्त तो दीजिए जनाब

बीएस संवाददाता बीएस संवाददाता —December 26, 2008 9:14 PM IST0
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फेड की ओपन मार्केट कमेटी (एफओएमसी) की हाल में हुई बैठक के बाद अब इस बाद में कोई शक नहीं रह गया है कि अमेरिकी केंद्रीय बैंक पूंजी प्रवाह को खोलने की तरफ मुड़ गया है।


मतलब यह हुआ कि अब फेड ब्याज दरों की चिंता को छोड़, बैंकों के रिजर्व को बढ़ाने में जी-जान से मदद करेगा। रिजर्व रकम से मौद्रिक हालत में सुधार आता है, जिसकी वजह से पूंजी प्रवाह कई गुना बढ़ जाता है। पूंजी प्रवाह बढ़ाने का फैसला दिखलाता है कि फेड अब इस आर्थिक संकट से निपटने के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार है।

जिस रफ्तार से फेड ने संकट से निपटने के लिए कदम उठाए हैं, उसकी मिसाल मिलनी मुश्किल है। इसके साथ-साथ आ रहा है ओबामा का वह प्रस्तावित जबरदस्त राहत पैकज, जिसके एक लाख करोड़ डॉलर से भी ऊपर होने की बात चल रही है।

लेकिन इसके बावजूद ज्यादातर निवेशकों को इस बात का भरोसा नहीं है कि नीति-निर्धारक उन्हें इस संकट से बाहर निकाल पाने में कामयाब होंगे।

ज्यादातर निवेशक इस बात की तरफ इशारा करते हैं कि यह संकट 18 महीने पुराना हो चुका है, लेकिन कई कदम उठाए जाने के बाद भी यह संकट आज मंदी की शक्ल अख्तियार कर चुका है।

उनकी बात सच है, लेकिन शायद वे इस बात को भूल चुके हैं कि सरकार ने अपनी नीतियों के तोपखाने का मुंह इस तरफ अभी कुछ महीने पहले ही खोला है।

अभी सिर्फ अक्टूबर से ही तो सरकार ने बैंकों को पूंजी देने की शुरुआत की है। अभी पिछले महीने से ही तो फेड के गैर सरकारी परिसंपत्तियों को खरीदने के कई कार्यक्रमों ने काम करना शुरू किया है।

कुछ ऐसा ही हाल ब्रिटेन और यूरोपीय संघ में शामिल मुल्कों का भी है। वैसे, वित्त व्यवस्था के लिए बेल-ऑउट पैकेज की बात काफी वक्त से चल रही थी, लेकिन इस दिशा में कदम हाल ही में उठाए गए हैं। राजकोषीय नीतियों के मामले में भी घोषणाएं तो कई हुई थीं, लेकिन उनके लिए पैसे खर्च नहीं किए गए थे।

याद रखिए कि अगर कोई कदम आज उठाया जा रहा है, तो उसके नतीजे कम से कम 9 से 12 महीनों के बाद ही नजर आते हैं। इसीलिए निवेशकों का यह सोचना कि राजकोषीय और मौद्रिक नीतियां भी बेअसर रही हैं, पूरी तरह से गलत है। सरकार की तरफ से उठाए गए कदमों का असर तो अभी होना बाकी है।

इतनी जल्दी नीतियों को बेअसर करार देना गलत होगा। समय के साथ-साथ निवेशक नीतिगत फैसलों के असर और उनके आकार को भी कम करके आंक रहे हैं। एक तरफ तो चर्चाओं में ओबामा के राहत पैकेज के साइज दिनोंदिन बढ़ते ही जा रहे हैं।

नए आंकड़ों के मुताबिक यह कम से कम एक लाख करोड़ डॉलर का तो होगा ही। हालांकि, फेड की नीतियां भी इस बारे में स्थिर नहीं हैं। फेड का खजाना भी आज 80 हजार करोड़ डॉलर से बढ़कर 2.2 लाख करोड़ डॉलर का हो चुका है।

इसमें से ज्यादातर संपत्ति तो उसके पास लीमन के दिवालिया होने के बाद आई है। फेड इस वक्त अपने खजाने को जितना चाहे उतना बढ़ा सकता है। उसके पास मुद्रा जारी करने और जमापूंजी में इजाफा करने की अकूत ताकत है और इस ताकत का वह इस्तेमाल मंदी के भूत को भगाने के लिए अपनी मर्जी से कर सकता है।

1998 से 2005 के दौरान बैंक ऑफ जापान की कुल संपत्ति जीडीपी के 10 फीसदी से बढ़कर 30 फीसदी के बराबर हो गई थी। इसके पीछे असल वजह यह थी कि उसने भी मंदी से मुकाबला करने के लिए पूंजी प्रवाह में तेजी से इजाफा किया था।

फेड की कुल संपत्ति भी अगस्त के महीने में जीडीपी के 6 फीसदी के बराबर थी, जो नवंबर तक बढ़कर 15 फीसदी तक हो चुकी है। इसके बावजूद अब भी फेड काफी कुछ कर सकता है। वैसे, सामान्य वक्त में फेड के पैरों में दो तरह की बेड़ियां होती हैं। लेकिन मंदी की वजह से इस वक्त उन बेड़ियों का नामोनिशान तक नहीं है।

सामान्य वक्त में फेड के सामने सबसे बड़ी दिक्कत यह आती है कि किस तरह की मौद्रिक नीतियों को अपनाए, ताकि महंगाई सिर चढ़ कर न बोलने लगे। अगर ज्यादा खुली मौद्रिक नीतियों को अपना लिया तो उसकी वजह से बॉन्डों की कमाई में तेज इजाफा हो सकता है, जिससे बाजार का बाजा बज जाएगा।

लेकिन आज असल खतरा कीमतों के लगातार गिरते रहने की वजह से हुआ है। इसलिए फेड अपनी संपत्ति में बेखटक तेज इजाफा कर सकता है और इसका बाजार पर कोई बुरा असर भी नहीं होगा।

फेड के सामने एक ही खतरा होगा, डॉलर के अवमूल्ययन का। सामान्य वक्त में अगर फेड ऐसे कदम उठाता, तो लोगों को डॉलर की कमजोर होती सेहत साफ दिखाई देती।

हालांकि, अगले कुछ महीनों के लिए उम्मीद यही है कि लगभग सारी बड़ी अर्थव्यवस्थाएं फेड के शून्य ब्याज  और पूंजी प्रवाह में इजाफे के नक्शेकदम पर ही चलेंगी।

स्विट्जरलैंड और जापान में तो ऐसा होने भी लगा है। वहीं कुछेक महीनों में ऐसे ही कदम ब्रिटिश सरकार भी उठा रही है। ऐसे में डॉलर के मुकाबले में एक ही मुद्रा होगी, यूरो। मतलब अगर आगे चलकर कभी डॉलर में गिरावट हुई तो उसका सीघा फायदा यूरो को होगा।

लेकिन यूरो ब्लॉक के मुल्क की राजनीतिक और आर्थिक मुश्किलों को देखते हुए क्या सचमुच यूरो में उछाल आ सकता है? जब यूरोप में अमेरिका से भी बड़ी मंदी आने की बात चल रही है, तो ऐसे में यूरो में आए उछाल को कौन बरकरार रख पाएगा?

अगर यूरो में जबरदस्त इजाफा हुआ, तो इसकी वजह से ईसीबी को भी फेड का ही रास्ता लेने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। जी हां, डॉलर में अभी कमजोरी आ सकती है और इसकी वजह से अमेरिकी नीति-निर्धारकों को आसानी हो सकती है। लेकिन कुछ वजहों से वह गिरावट ज्यादा तेज नहीं हो सकती, इसलिए फेड पर किसी तरह का दबाव भी नहीं पड़ेगा।

इसीलिए आने वाले महीनों में हमें फेड अपनी नीतियों को खोलता हुआ भी दिखाई देगा। साथ ही, वह अपने दायरे में भी इजाफा करेगा। फेड ने व्यावसयिक परिसंपत्तियों, गिरवी रखी संपत्ति और संपत्ति आधारित प्रतिभूतियों को खरीदना शुरू कर दिया है।

इसलिए अगर आगे चलकर वह कॉर्पोरेट बॉन्ड्स भी खरीदना शुरू कर दे तो इसमें किसी को हैरानी नहीं होनी चाहिए। फेड आज की तारीख में बेकार पड़ चुकी और टुकड़ों-टुकड़ों में बिखर रही वित्तीय व्यवस्था को सीधे तौर पर निशाना बना रही है।

हालांकि, आज भी निवेशक संदेह में हैं, लेकिन राहत की बात यह है कि नीति-निर्धारक इस संकट से निपटने के लिए हर संभव कदम उठा रहे हैं। हालांकि, हम यकीन से नहीं सकते कि सरकार मंदी पर काबू कर लेगी, लेकिन हालात इसी तरफ इशारा कर रहे हैं।

जहां तक भारत की बात है, तो हमारा पूरी ध्यान मौद्रिक नीतियों की तरफ ही होना चाहिए। राजकोषीय हालत पर ज्यादा जोर डाले हुए रिजर्व बैंक को उन तरीकों को तलाशना होगा, जिससे बैंक लोगों को फिर से कर्ज देना शुरू करें। नकदी की समस्या तो हल होती दिखाई दे रही है, लेकिन आज बैंकरों के बीच भरोसे का संकट है।

इसी वजह से वे कर्ज देने से झिझक रहे हैं। अमेरिकी तो अपने मुल्क में मंदी से निपटने के लिए आज राजकोषीय और मौद्रिक, दोनों रास्तों का इस्तेमाल कर रहे हैं। हम राजकोषीय मोर्चे पर तो ज्यादा कुछ नहीं कर सकते।

लेकिन अगर बैंक इसी तरह कर्ज देने से बचते रहे तो रिजर्व बैंक को इस बाजार में सीधे कूदने के बारे में सोचना चाहिए, ताकि अर्थव्यवस्था को कर्ज की ऑक्सीजन मिलती रहे।

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