कर्ज का बाजार कोई आलू प्याज का बाजार तो होता नहीं है। जब मैं आलू खरीदने के लिए बाहर निकलता हूं, तो सबसे पहले किसी दुकानदार को चुनता हूं। फिर आलू चुनता हूं और कीमत चुकाने के बाद आलू लेकर वापस ले आता हूं। बस हो गया।
मुझे उस दुकानदार के बारे में ज्यादा जानने की जरूरत नहीं और न ही उस दुकानदार को मेरे बारे में। आलू की कीमत चुकाने के साथ ही हमारा रिश्ता भी खत्म हो जाता है। लेकिन वित्त बाजारों की बात जुदा होती है।
कर्ज लेने और देने का कारोबार एक तरह से वायदा कारोबार ही होता है। कर्ज लेने वाला आने वाले वक्त में ज्यादा क्रय शक्ति के वादे पर मौजूदा क्रय शक्ति को प्राप्त करता है। मौजूदा कीमतों और आने वाले वक्त में मिलने वाली ज्यादा कीमतों के कर्ज बाजार और कमोडिटी मार्केट में दो बड़े अंतर हैं।
पहली बात तो यह है कि अपने पैसों की सुरक्षा के उपाय खरीद और फरोख्त करने वालों को आपस में जोड़ते हैं। दूसरा अंतर है पहचान का। कर्ज बाजार में खरीद-फरोख्त करने वाले अपनी पहचान नहीं छुपा सकते हैं। वजह है विश्वास और भरोसा, जो इस तरह के कारोबार की सबसे बड़ी चीज है।
इसीलिए इसमें एक सीधे और लगातार चलने वाले रिश्ते की जरूरत होती है। एक जटिल अर्थव्यवस्था में पैसे जमा करने वाले हर शख्स और हर निवेशक के बीच सीधे ताल्लुकात मुमकिन नहीं है। इसीलिए तो वित्तीय मध्यस्थ सामने आए। आज ज्यादातर कर्ज बैंकों और वित्तीय संस्थानों की तरफ दिए जाते हैं।
उन्होंने इस जिम्मेदारी को बखूबी निभाया भी है। साथ ही, संपत्ति को कर्ज के साथ जोड़ने, कर्ज उगाही से जुड़े हुए कानून और क्रेडिट रेटिंग्स जैसे कई नए-नए रास्ते भी निकाले गए, जिनकी मदद से जोखिम को कम से कम किया जा सके।
इससे इस बात पर कोई फर्क नहीं पड़ा है कि देनदार और लेनदार के बीच का रिश्ता महीनों और सालों तक चलता रहता है। ऊपर से आज भी हमें हर देनदार को कर्ज देने के लिए हमें जोखिमों का अंदाजा अलग से लगाना पड़ता है।
सब प्राइम संकट इसीलिए पैदा हुआ था क्योंकि देनदार और लेनदार के बीच संबंधों में फेर-बदल करने की कोशिश की गई। कर्ज देने वालों ने कर्ज के साथ कई तरह के जोखिमों को जोड़ा और फिर उन्हें किसी तीसरे शख्स को बेच डाला।
पहले यह सब इतना आसान नहीं होता था। कर्ज देने वालों को देनदारों की एक तय समय के बाद कर्ज चुका पाने की काबिलियत के बारे में अंदाजा लगाना होता था। लेकिन एक बार इस बात की चिंता किसी तीसरे शख्स के जिम्मे डाली जाने लगी तो इन्हें एक निवेश के साधन के रूप में बेचना काफी आसान हो गया।
अब वह केवल आज के फायदे को देखकर लेन-देन कर सकते थे, जबकि कर्ज की अदायगी के बारे में चिंता किसी तीसरे शख्स की हो जाएगी। कर्जो की सुरक्षा के बारे में फैसला लेने में मदद करती थीं रेटिंग एजेंसियां, जो वित्तीय परिसंपत्तियों को रेटिंग देती थीं।
जब कोई रेटिंग एजेंसी किसी कंपनी का मूल्यांकन करती है, तो वह कारोबार के बदलती हालत और प्रबंधन की खामियों का रखती हैं। लेकिन बीच में फंसी वित्तीय परिसंपत्तियों की बात ही अलग होती है। यहां असल खतरा देनदारी और लेनदारी के बीच कई परतों में छिपा होता है।
इसलिए रेटिंग एजेंसियों को यहां फैसला कर्ज देने वाले की प्रतिष्ठा के आधार पर करना होता है। वित्त बाजार की गलियों में हर तरफ मचा हाहाकार यही दिखला रहा है कि रेटिंग एजेंसियां इस काम को ठीक तरीके से अंजाम नहीं दे सकीं।
शुरुआती स्तर पर ही जोखिमों से सुरक्षा के पुराने तरीकों और तेजी से खत्म किया डेरिवेटिव्स ने। विदेशी मुद्रा और ब्याज दरों में डेरिवेटिव्स को शुरू में कर्ज देने वालों की हिफाजत के लिए लाया गया था। लेकिन बाद में जैसे-जैसे इससे कंपनियों को लाखों-करोड़ों का फायदा होने लगा, जोखिमों के इस बाजार में ये खुद ही एक बाजार बन गए। वे हेजिंग का जरिया बनने के बजाए सट्टा बाजार बन गए।
जोखिम का बाजार कभी भी जोखिमों को कम नहीं करता है। असल में यह शुरुआती स्तर पर ही लोगों को सुस्त बनाकर जोखिमों को और भी बढ़ा देता है। लेकिन सबसे बड़ा खतरा तो जरूरत से ज्यादा स्तर पर जोखिम उठाने का है।
जब भी बीच में फंसी किसी वित्तीय परिसंपत्ति को कई स्तरों के जोखिमों की जानकारी दिए बिना बेचा जाता है, तो उसका असर तुरंत डेरिवेटिव्स पर नहीं पड़ता है। इसलिए जब उस जोखिम का असल असर सामने आता है, तो निवेशक गले तक मुसीबत में फंस चुके होते हैं।
लीमन ब्रदर्स का बंटाधार इसलिए तो हुआ था। इस वजह से एआईजी का भी बैंड बज गया। दरअसल, लीमन ने उससे डिफॉल्ट के घाटे से बचने का बीमा करवा कर रखा था। अमेरिका के राजकोषीय घाटे में इजाफे की वजह से बाजार में काफी सारी नकदी आ गई।
इस कारण हेरा-फेरी करना और भी आसान हो गया। साथ ही, बढ़ते राजकोषीय घाटे ने वित्तीय परिसंपत्तियों की कीमतों को भी ताबड़तोड़ बढ़ा दिया। ऊपर से, नई-नई तकनीकों की वजह से वित्त बाजार दिन भर तेज रफ्तार काम करने की जगह बन गया, जहां थोड़े समय के लिए सही, लेकिन अच्छा मुनाफा कमाकर देने पर मोटा बोनस मिलता था। हालांकि, इसमें जोखिमों का कोई ध्यान नहीं रखा जाता था।
इन सारी वजहों से कर्ज के बाजार को इतनी आसानी से नहीं समझाया जा सकता। फिर भी नीति-निर्धारक ऐसा दिखाते हैं, जैसे उनके सामने छोटी सी दिक्कत है। बाजार में कर्ज के मांग और आपूर्ति का ग्राफ सिर्फ ब्याज दरों पर ही निर्धारित नहीं होता।
यह ग्राफ आने वाले कल, नकदी की मौजूदगी, अनदेखे खतरे और बाजार के मूड पर भी निर्भर होता है। आज के हालात में यह सोचना कि नकदी की उपलब्धता और ब्याज दरों का कम होना, एक बड़ी गलती होगी। आज के वक्त में सिर्फ एक चीज काम कर सकती है और वह है शुरुआती जोखिमों के बारे में सोच में बदलाव।
अगर आने वाले लंबे वक्त में हम अपने मुल्क की तस्वीर अच्छी देखना चाहते हैं, तो वक्त आ गया है कि हम वित्त बाजार में सुधारों के बारे में कुछ कड़वे सवाल पूछें। हम नैतिक खतरों के सबूत साफ तौर पर देख चुके हैं।
खास तौर पर उन कंपनियों या वित्तीय संस्थानों में जो डूबने के लिहाज से काफी बड़ी होती हैं और जहां अपने फायदे की खातिर बेकार के जोखिम उठाते हैं। पूंजी पर्याप्तता और दूसरे निगरानी नियम कर्ज की इस मीनार को बनाने से नहीं रोक सके, जो एक हल्के से झटके से ही ढह गया।
नियमों में सुधार का अहम मकसद बुनियादी जोखिमों और देनदारी व लेनदारी के परतों के जुड़ाव को खत्म होने से रोकना होना चाहिए। इसके लिए जरूरत होगी कई स्तरों पर पूंजी पर्याप्तता जैसे मुद्दों पर नजर रखना, बैलेंस शीट से बाहर होने वाले कामों में पारदर्शिता, मैनेजरों के बोनस को मुनाफे और जोखिमों के साथ जोड़ने, रेटिंग एजेंसियों में सही समझ वाले लोगों को रखने और बड़ी गलतियां होने पर उन्हें ही जिम्मेदार ठहराने की।
जी-20 के सुधार प्रस्तावों में इन सारी बातों को रखा गया है और इसके लिए अमेरिकी वित्त बाजार में एक बड़े बदलाव की जरूरत होगी। लेकिन क्या तेज रफ्तार जिंदगी के आदी बन चुके वॉल स्ट्रीट के बाशिंदे इन स्पीड-ब्रेकरों को बर्दाश्त कर पाएंगे ? या इसे भी 1997-98 की मंदी के वक्त जारी हुए घोषणाओं की तरह भुला दिया जाएगा?