जब आप स्वयंसहायता समूह (एसएचजी) के वित्तपोषण पर नाबार्ड द्वारा निकाले गए आंकड़ों पर नजर डालेंगे।
या फिर ग्रामीण बैंकिंग सुविधाएं मुहैया कराने के लिए बैंकों द्वारा इस्तेमाल में लाए जाने वाले कम कीमत के मोबाइल फोन सॉल्यूशंस (बॉयोमेट्रिक जानकारी लेने के लिए स्कैनर सहित पूरे किट के लिए 20,000 रुपये में उपलब्ध कराया जा रहा है) के आंकड़ों को देखेंगे तो आपको इस बात का पक्का विश्वास हो जाएगा कि वित्तीय समावेशन का लक्ष्य अब दूर की कौड़ी नहीं रह गया है।
इन सुविधाओं को मुहैया कराने वाले जीरो-मास फाउंडेशन की मानें तो यहां प्रतिदिन लगभग 25,000 नए ग्राहकों का आगमन हो रहा है। आइए जानें, आखिर वित्तीय समावेशन काम कैसे करता है। एक महंगी ग्रामीण शाखा की स्थापना करने के बजाय कोई बैंक किसी ग्रामीण क्षेत्र में सिर्फ अपने एक ‘बैंकिंग संवाददाता’ को नियुक्त करता है। वह बैंकिंग संवाददाता कोई भी हो सकता है।
उदाहरण के लिए आप किसी किराना स्टोर के मालिक को ही ले लीजिए जिसे किसी बैंक ने एक बैंकिंग संवाददाता के रूप में नियुक्त किया है। वह बैंकिंग संवाददाता 20,000 रुपये की लागत वाले ‘नियर फील्ड कम्युनिकेशंस’ फोन, एक स्कैनर, एक थर्मल प्रिंटर की मदद से ग्राहकों को बैंक संबंधी सूचनाओं का विवरण मुहैया कराता है।
उस फोन में वायरलेस कनेक्शन होता है जो वास्तव में बैंक के सर्वर से जुड़ा होता है। इसके जरिए ग्राहकों से जुड़े सभी विवरणों को भेजा जाता है। लिहाजा, किसी ग्रामीण शाखा की स्थापना में 3 से 4 लाख रुपये खर्च करने के बजाय बैंक महज 20,000 रुपये की नाममात्र की राशि पर ही वित्तीय समावेशन के काम को अंजाम दे रहा है।
अधिकांश बैंक प्रबंधकों का कहना है कि अब वे इस स्थिति में आ चुके हैं कि वे ग्रामीण बैंकिंग में अपनी पैठ बना सके। बात चाहे स्वास्थ्य मंत्रालय की हो या फिर ग्रामीण रोजगार एजेंसियों की, सरकार की विभिन्न शाखाओं से लाखों स्मार्ट कार्ड जारी किए गए हैं। ये पहल इस बात का संकेत देते हैं कि वित्तीय समावेशन के क्षेत्र में काम हो रहा है।
इसी तरह, भारती एयरटेल जैसी देश की अग्रणी दूरसंचार कंपनियां भी कम लागत वाले मनी ट्रांसफर इंस्ट्रूमेंट यानी धन हस्तांतरण उपकरण पर काम कर रही हैं। हालांकि उन सुविधाओं का लाभ उठाने के लिए ग्राहक को उनके मोबाइल फोन नेटवर्क का इस्तेमाल करना होगा।
माइक्रोफाइनैंस के क्षेत्र में ‘पोस्टर ब्वॉय’ के रूप में जाने जाने वाले विक्रम अकुला का कहना है कि अगले एक से दो साल में ग्रामीण बैंक ऑफ बांग्लादेश की तुलना में यहां ग्राहकों की संख्या और भी अधिक हो जाएगी। हालांकि इस बारे में अगर आप आईसीआईसीआई फाउंडेशन के नचिकेता मोर से बात करेंगे तो आपको कुछ अलग ही कहानी सुनने को मिलेगी।
मोर अकुला के विचारों का स्वागत करते हैं और इस बात को मानते हैं कि वित्तीय समावेशन के क्षेत्र में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान है। लेकिन वह इस बात से सहमत नहीं हैं कि अकुला मॉडल आगे भी काम करेगा। उन्हें ऐसा बिल्कुल नहीं लगता है कि एक वित्तीय संस्थान सिर्फ एक ही उत्पाद को बेचने का काम लंबे समय तक कर सकता है।
वे ब्रिक्स-और-मोर्टार पर आधारित मॉडल की तरफदारी करते हैं। वह इस बात का समर्थन करते हैं कि जिस तरह बड़े शहरों में प्रमुख बैंक तकनीक का इस्तेमाल करके विभिन्न प्रकार के उत्पादों (बीमा, म्युचुअल फंड आदि) को बेचते हैं, ठीक उसी तरह ग्रामीण शाखाओं में भी उन उत्पादों को बेचा जा सकता है। मोर इसी तरह की एक शाखा के साथ काम कर रहे हैं और उन्हें पूरा विश्वास है कि वित्तीय समावेशन का सही रास्ता यही है।
खैर, तो आखिर सच्चाई क्या है? क्या देश के अंदर माइक्रोफाइनैंस और वित्तीय समावेशन महज एक ‘फैंसी विपणन उपकरण’ है, जिसे गैर-सरकारी संस्थान (एनजीओ) और राजनेता दोनों ही अपने हिसाब से इस्तेमाल करते हैं या फिर सच्चाई इससे कुछ परे है?
क्या वित्तीय समावेशन वास्तव में हो रहा है या फिर यह ई-प्रशासन की तरह ही है, जो हमेशा ही होने के कगार पर होता है लेकिन कभी भी कुछ ठोस काम देखने को नहीं मिलता है? वित्तीय समावेशन के क्षेत्र में समीर कोचर काफी सालों से जुड़े हुए हैं। उन्होंने देश के कई हिस्सों में सभाएं व बैठकें आयोजित की हैं और साथ ही देश के विभिन्न क्षेत्रों से जुड़े सफलता और असफलता की कहानियों पर फिल्म बना रहे हैं।
यही नहीं उन्होंने एक ऐसी किताब की भी पेशकश की है जिसमें प्रमुख खिलाड़ियों के आलेखों को समाहित किया गया है। इस सूची में ग्रामीण बैंकिंग को अंजाम दे रहे बैंकरों के नाम शामिल है, वे जो जीरो-मास फाउंडेशन जैसे बैंकिंग उत्पादों को बेच रहे हैं, वे जो कम्प्यूटराइजिंग लैंड रिकॉर्ड में शामिल हैं, वे जो मेडिकल और अन्य बीमा दोनों को बेच रहे हैं आदि शामिल हैं।
अन्य शब्दों में कहें तो वित्तीय समावेशन के क्षेत्र में जितने भी प्रमुख खिलाड़ी शामिल हैं, उसमें से अधिकांश ने इस किताब में अपना योगदान दिया है। वित्तीय समावेशन खुद अपने आप में एक लक्ष्य है। वित्तीय समावेशन का एक जबरदस्त उदाहरण राजस्थान सरकार की भामाशाह वित्तीय सशक्तिकरण योजना है जिसे वसुंधरा राजे के कार्यकाल में शुरू किया गया था।
इस योजना के तहत करीब 50 लाख से भी अधिक गरीब परिवारों के लिए बैंक खाते खोले गए थे। इसमें कोई शक नहीं कि यह किताब उन लोगों के लिए बहुत ही बहुमूल्य है जो इस व्यवसाय में दिलचस्पी रखते हैं। इस किताब में मौजूद व्यक्तिगत आधार पर लिखी गई सफल कहानियां पाठकों को निस्संदेह बेहद पसंद आएगी।
पुस्तक समीक्षा
फाइनैंशियल इनक्ल्यूजन
संपादन : समीर कोचर
प्रकाशक : एकैडमिक फाउंडेशन
कीमत : 695 रुपये
पृष्ठ : 195
