भारतीय लोकतंत्र का महाजलसा अगले दो महीने तक अपने पूरे शबाब पर रहेगा। और इसके साथ ही एक सवाल अनायास उठ खड़ा होता है कि: क्या चुनाव के नतीजे अच्छी नीतियों को आगे बढ़ाएंगे, खासतौर से आर्थिक नीतियों को?
इस सवाल का जवाब देने के लिए हमें थोड़ा सा भविष्य की तलहटी में जाना होगा: कांग्रेस और भाजपा का भविष्य, तीसरे मोर्चे की ताकत, संभावित गठजोड़, मायावती जैसी विभिन्न राजनीतिक हस्तियों की ताकत और मोलतोल करने की क्षमता में होने वाली बढ़ोतरी, जैसी कुछ बातों की पड़ताल भी करनी होगी।
लेकिन ये चुनाव ऊपर बताए गए नतीजों के मुकाबले समूची लोकतंत्रिक प्रक्रिया के लिए अधिक महत्त्वपूर्ण साबित हो सकते हैं। खासतौर से राज्यों के स्तर पर इस बात की संभावनाएं हैं कि ये चुनाव भारतीय लोकतंत्र की गहरी भावनाओं और भविष्य में बेहतर आर्थिक नीतियों के लिए बढ़ती आकांक्षाओं को व्यक्त करेंगे। यह कैसे होगा?
कुछ समय पहले हमने वादा किया गया था कि लोकतंत्र उत्तरदायित्व को बढ़ाने का साधन बनेगा। लेकिन यह वादा अभी तक पूरा नहीं हो सका है। हम अभी तक लोकतंत्र द्वारा किए गए उस वादे से उम्मीद लगाए बैठे हैं कि जवाबदेही बढ़ेगी।
जबकि समाज दैनिक अनुशासन का पालन करने में असमर्थ है तथा राजनीतिक नेताओं और उनके सगे संबंधियों द्वारा की जाने वाली लूट-खसोट जारी है, तो कम से कम पांच साल में एक बार तो ऐसे लोगों को बाहर का रास्ता दिखाया जा सकता है। निश्चित तौर से एक स्थायी सोच यह है कि जनता को अपनी ताकत आजमाने के लिए पांच साल में एक बार मिलने वाले इस मौके का इस्तेमाल कैसे किया जाए?
निश्चित तौर से लोकतंत्र के इस पर्व के जरिए मजबूत और सकारात्मक रूप से उत्तरदायित्व को बढ़ाने के लिए योगदान करना चाहिए ताकि सरकारी संस्थानों को और बेहतर बनाया जा सके, राजनीतिक प्रक्रिया में भ्रष्टाचार कम से कम हो, न्याय की अधिक प्रभावी और कम धीमी व्यवस्था कायम हो और नौकरशाही अधिक जवाबदेह बने। ऐसी और भी कई बातें हैं।
लेकिन भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में सत्ता विरोधी लहर की एक विचित्र बात यह है कि इसके कारण प्रासंगिक उत्तरदायित्व को लागू करने का उद्देश्य हमेशा शक के घेरे में रहा है। आखिरकार, एक ऐसी प्रणाली को समुचित कैसे माना जा सकता है जबकि पदाधिकारियों को नियमित अंतराल पर हटा दिया जाता है, फिर चाहे उनका प्रदर्शन कैसा भी रहा हो, इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है (1977 में श्रीमती इंदिरा गांधी को सत्ता से बाहर करने के महत्त्वपूर्ण अपवाद को छोड़कर)?
वास्तव में, सत्ता विरोधी लहर ने राजनीति को न सिर्फ हतोत्साहित किया है बल्कि इसने वास्तव में विकृत प्रोत्साहनों को बढ़ावा भी दिया है। अगर चुनावों में हार निश्चित है तो आवश्यक सेवाओं की आपूर्ति के दौरान लूट-खसोट सरकारी नीति का अहम हिस्सा बन जाती है।
प्रताप भानु मेहता ने अपने अंतरदृष्टि से भरे एक लेख में इस बात की संभावना की ओर ध्यान आकर्षित किया था कि सत्ता विरोधी लहर भारतीय राजनीति पर अपनी पकड़ खो सकती है और ये रुझान सरकार का कामकाज और उसके बाद चुनावों में प्रदर्शन के बीच संबंध को परिभाषित करते हैं (गुजरात में नरेंद्र मोदी, दिल्ली में शीला दीक्षित और उड़ीसा में नवीन पटनायक सहित हाल के उदाहरण गौरतलब हैं)।
कुछ हद तक इसके नतीजे आर्थिक विकेंद्रीकरण के तौर पर सामने आने चाहिए। वास्तव में, एक शोध पत्र, जिसका मैं सह-लेखक हूं, में इस बात के जोरदार प्रमाण पाए गए हैं कि 1980 के दशक की शुरुआत में और खासतौर 90 के दशक में, राज्य स्तरीय आर्थिक विकास दर, राज्य स्तरीय संस्थानों और राजनीति से अधिक मजबूती के साथ जुड़ चुकी थी।
यह एक ऐसा जुड़ाव था जो 80 के दशक से पहले देखने को नहीं मिला था। शोध पत्र की एक तालिका में इस मजबूत संबंध को दर्शाया गया हैं, जहां राज्य स्तरीय संस्थान राज्य बिजली बोर्ड के पारेषण और वितरण हानि का भार उठाने लगे थे।
इस संबंध के कारण राजनीति को लेकर कुछ उम्मीद जगी थी। अच्छी राजनीति हमेश अच्छे आर्थिक नतीजे देती है, जिसके कारण आशावादी राजनीतिक नेताओं के लिए रास्ते खुलते हैं। निश्चित तौर से, राजनीतिक अर्थव्यवस्था को लेकर एक सवाल यह है कि क्या मतदाता राजनीति और अच्छे आर्थिक नतीजों के बीच कारण-परिणाम संबंधों को समझ सकेंगे और क्या इसका श्रेय सरकार को देंगे।
प्रताप भानु की नई दलील यह है कि मतदाताओं के लिए ऐसा करना स्वाभाविक है, और वास्तव में 2003-2008 के दौरान राज्य सरकारों की आमदनी तेजी से बढ़ी है, अच्छे नेताओं को आगे लाना चाहिए ताकि वे इस धन का अच्छी तरह से इस्तेमाल कर सकें। लेकिन मोदी, दीक्षित और पटनायक का फिर से सत्ता में आना बताता है कि मतदाता न सिर्फ भौतिक खर्च पर नजर रखे हुए हैं बल्कि वे अधिक व्यापक रूप से अच्छा प्रशासन भी चाहते हैं।
ऐसे में भारतीय राजनीति के विकेंद्रीकरण की दिशा में यह एक अच्छी खबर है। यह आवश्यक नहीं है कि देश भर में सभी जगह और हमेशा ऐसी ही जवाबदेह राजनीति हो। यह भी महत्त्वपूर्ण है कि कुछ ऐसे सफल उदाहरण भी देखने को मिले हैं, जो प्रभावों के प्रदर्शन और राज्यों के बीच गतिशील प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देते हैं।
न सिर्फ व्यापक प्रशासन बल्कि क्षेत्र विशेष के संबंध को लेकर भी कुछ ऐसे प्रयोग किए जा रहे हैं जो नई उम्मीद जगाते हैं। लाइसेंस राज के अंतिम और अभेद दुर्ग, उच्च शिक्षा के मामले को ही लीजिए। कई राज्यों ने उच्च शिक्षा में सुधारों को आगे बढ़ाने के लिए पर्याप्त रूप से नीतिगत मसौदे तैयार किए हैं।
उम्मीद जगाने वाला ऐसा ही मामला वेंदात द्वारा वित्त पोषित विश्वविद्यालय का है, जो उड़ीसा में काम कर रहा है। यह पहल सफल हुई तो इस क्षेत्र में नए साझेदारी के नए आयाम खुल जाएंगे। एक अन्य महत्त्वपूर्ण नीतिगत क्रियान्वयन 13वें वित्त आयोग को लेकर है।
पिछले आयोग समानता (गरीब राज्यों को अधिक वित्तीय संसाधन देने के लिए) और कार्यकुशलता (अच्छे प्रशासन को प्रोत्साहित करने के लिए संसाधनों को प्रदर्शन से जोड़ना) के उद्देश्यों को पूरा करने के लिए संघर्ष करते रहे हैं।
अगर भारत का दीर्घकालिक आर्थिक भविष्य वास्तव में राजनीतिक विकेंद्रीकरण की दोहरी प्रक्रिया को मजबूत करने जा रहा है और राज्यों की राजनीति को अधिक जवाबदेह बनाना है तो आयोग को व्यापक वित्तीय गड़बड़ी को दूर करने के पर ध्यान देना होगा। इसका अर्थ केवल समानता के उद्देश्यों के मुकाबले कार्यकुशला की पक्षधरता करना नहीं है।
बल्कि इसका अर्थ यह सुनिश्चित करना भी है कि संसाधनों का एक बड़ा हिस्सा केंद्र के बजाए राज्यों द्वारा ही जुटाया जाए। चुनाव परिणाम आने के साथ ही भारत और पूरी दुनिया की निगाहें इस बात पर होंगी कि दिल्ली की गद्दी किसके हाथ आती है। लेकिन भारत का दीर्घकालिक आर्थिक भविष्य इस बात पर निर्भर करेगा कि राज्यों में क्या हो रहा है।
इस बात के व्यापक संकेत मिलने लगे हैं कि मतदाता अब सत्ता विरोधी लहर में बहने की जगह सरकार और बुरी सरकार में अंतर कर सकेंगे। ये संकेत भविष्य के लिए बेहतर उम्मीद जगाते हैं।
(लेखक पीटरसन इंस्टीटयूट फॉर इंटरनैशनल इकनॉमिक्स ऐंड सेंटर फॉर ग्लोबल डेवलपमेंट के सीनियर फेलो हैं और जॉन हॉपकिंस यूनिवर्सिटी के वरिष्ठ शोध प्राध्यापक हैं।)
