साल 2003 में जब पहली बार डॉलर की कीमत 50 रुपये के बराबर पहुंच चुकी थी, उसी वक्त मैंने कहा था कि अगले पांच सालों में इसकी कीमत घटकर 38 रुपये रह जाएगी।
मेरी वह भविष्यवाणी करीब-करीब सच भी हो गई और इस बारे में कोई हो-हल्ला भी नहीं हुआ। हालांकि, इससे मेरा हौसला कम नहीं हुआ है।
टेनिसन ने भी अपनी कविता में कहा था, अगर पहली बार कामयाब नहीं हो पाओ, तो भी कोशिश करना मत छोड़ो। इसी लाइन से उत्साहित होकर मैं फिर से कोशिश करना चाहता हूं। तो हाजिर है मेरी एक और भविष्यवाणी, क्या अगले पांच सालों में एक डॉलर की कीमत 38 रुपये के बराबर हो सकती है?
जानता हूं, पहले की तरह इस बार भी लोग यही समझेंगे कि मेरा दिमाग खराब हो गया है। लेकिन मैं आपको किपलिंग की वह लाइन सुनाना चाहूंगा, जो मेरे पिता मुझे जोश दिलाने के लिए अक्सर कहा करते थे। वह अक्सर कहते थे कि, ‘अगर तुम्हारे आस-पास की दुनिया पागल होने लगे, तब भी तुम्हें सही तरीके से सोचना चाहिए। तभी मेरे बेटे तुम एक सच्चे मर्द कहलाओगे।’
हकीकत भी तो यही है कि मेरे आस-पास की दुनिया में न सिर्फ लोग पागल हो रहे, बल्कि उनके साथ उससे भी बुरा हो रहा है। उनका पैसा, उनकी नौकरी और कुछ मामलों में तो उनकी जिंदगियां भी बर्बाद हो रही हैं। लेकिन जैसे किपलिंग ने कहा है, हमें मुसीबत के वक्त में भी अपने सोचने-समझने की काबलियत को खोना नहीं चाहिए। छह महीने पहले एक डॉलर की कीमत 40 रुपये के आस-पास थी और उस समय में भी ज्यादातर निर्यातक अच्छा कारोबार कर रहे थे।
हालांकि, उनके लिए वह वक्त अच्छा नहीं था, जब सभी को यही लग रहा था कि डॉलर की कीमत 38 रुपये से भी नीचे जा सकती है। डेरिवेटिव सौदों का तो बाजा ही बज चुका था। लेकिन एक बार यह कीमत वापस 39.30 रुपये प्रति डॉलर पर आ गई तो सभी को भरोसा हो गया कि निर्यात में 20 फीसदी का इजाफा अब तो होकर ही रहेगा।
छह महीने, खास तौर पर पिछले छह महीने, एक काफी लंबा वक्त होता है। आज दुनिया भर के बाजारों की मिट्टी पलीद हो चुकी और जैसा मैं पहले ही कह चुका हूं कि लोग-बाग पागल हुए जा रहे हैं। ज्यादातर कंपनियों का बाजा बजा हुआ है और इसी वजह से उनकी बिक्री पर बुरा असर पड़ रहा है। खरीदार अब महीने के आधार पर छोटे-छोटे ऑर्डर दे रहे हैं। कर्जे हासिल करना अब एक मुश्किल काम बन चुका है। अगर कर्ज मिल भी रहा है, तो उसके लिए आपको मोटा ब्याज चुकाना पड़ रहा है।
रुपये की सेहत काफी हद तक गिर कर आज डॉलर के मुकाबले 50 रुपये के स्तर पर पहुंच गई है। वजह है दुनिया भर में मंदी का दौर। इस कारण सभी डॉलर खरीदने के लिए भाग रहे हैं। सुरक्षा के लिए नहीं, बल्कि अपनी नकदी के स्तर को बरकरार रखने के लिए। अक्टूबर की शुरुआत से अब तक दलाल स्ट्रीट में 60 फीसदी की गिरावट आ चुकी है।
दरअसल, विदेशी संस्थागत निवेशक अपनी बैंलेंस शीट की मजबूती को बरकरार रखने के लिए तेजी से शेयर बेच रहे हैं। वहीं, हेज फंडों को भी ग्राहकों की तरफ से नकदी की जबरदस्त मांग की वजह से बिकवाली करनी पड़ रही है। इस वजह से रिजर्व बैंक भी बेहद चौकस है। मुल्क में पूंजी के प्रवाह को बरकरार रखने के लिए बैंक अपने खजाने से डॉलर बेच रहा है। साथ ही, इसी वजह से समय-समय पर उसे सीआरआर और रेपो रेट को भी कम करना पड़ रहा है।
हालांकि, यह दिख रहा है कि रुपये की सेहत और कमजोर नहीं होगी, लेकिन अब हमें मंदी का अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले असर के लिए खुद को तैयार रखना होगा। काफी कम बिक्री की वजह से तो अर्थव्यवस्था में सुस्ती तो आएगी ही, लेकिन मेरे मुताबिक हमें अच्छी बातों के लिए भी खुद को तैयार करना चाहिए।
पहली बात तो यह है कि डॉलर की सेहत में आई मजबूती की वजह से कई डेरिवेटिव सौदों का भला हो गया। इससे निर्यातकों की आर्थिक सेहत पर असर डालने वाला एक वायरस तो खत्म हो गया। दूसरी अच्छी बात यह हुई है कि महंगाई अब धीरे-धीरे नीचे आ रही है। इस वजह से कच्चे माल और लोगों पर आने वाली लागत में भी कमी आई है।
साथ ही, हमें इस बात पर भी भरोसा करना होगा कि यह तो शुरुआत भर है। भले ही कंपनियां 20 फीसदी से ज्यादा की निर्यात वृध्दि दर को हासिल नहीं कर पाएं, लेकिन उनके मुनाफा कमाने पर किसी को संदेह नहीं है। डॉलर की मजबूत सेहत को देखते हुए हो सकता है कि उनका मुनाफा बढ़ भी जाए।
असल में, इस स्तर पर तो हमारे निर्यातकों को ज्यादा से ज्यादा लोगों को लुभाने की कोशिश करनी चाहिए। इस मामले में तो हमें चीन से मुकाबला करने में पीछे नहीं रहना चाहिए। इस साल की शुरुआत सें रुपये के मुकाबले युआन की सेहत में 35 फीसदी का इजाफा हो चुका है। इस वजह से वैश्विक बाजार में भारतीय कंपनियों के लिए अपनी पैठ बनाने का अच्छा मौका है।
खास तौर पर ऐसे वक्त में देसी कंपनियों को तो कोशिश जरूर करनी चाहिए, जब उनकी क्षमता इतनी ज्यादा है। माना कि आज के माहौल में अपनी पूरी क्षमता के हिसाब के उत्पादन करना घाटे का सौदा हो सकता है। मेरी मानें तो रिजर्व बैंक को अपने खजाने से 50 अरब डॉलर का एक फंड बनाना चाहिए, जिसकी मदद से अलग-अलग बैंक कंपनियों को डॉलर में कर्ज मुहैया करवा सकते हैं। इससे डॉलर की तेज मांग को कम करने में मदद मिलेगी। साथ ही, देसी तेल कंपनियों को भी कर्ज का एक नया जरिया मिल जाएगा।
यह सच है कि मंदी की वजह से रिजर्व बैंक के विदेशी मुद्रा भंडार पर भी असर पड़ा है। उसके खजाने में 38 अरब डॉलर की गिरावट आई है, लेकिन यह भी उतना ही बड़ा सच है कि आरबीआई में अब भी इससे बड़े फंड को बनाने की कुव्वत है। वैसे भी, रिजर्व फंड को आखिर मुसीबत के वक्त काम आने के लिए बनाया जाता है।
साथ ही, रिजर्व बैंक एनआरआई बॉन्डों को भी तो बड़े स्तर पर जारी कर सकता है। इस बारे में तो आजकल चर्चाएं भी हो रही हैं। अगर इसकी मार्केटिंग ठीक तरीके से हुई, तो इससे भी बैंक कम से कम 15 से 20 अरब डॉलर उगाह सकता है। पिछली बार रिजर्व बैंक के एनआरआई बॉन्ड काफी कामयाब रहे थे। उस इश्यू से बैंक ने पांच अरब डॉलर की मोटी-ताजी रकम उगाही थी।
वैसे, समय के साथ-साथ मुल्क की शोहरत में भी तो इजाफा हुआ है। हो सकता है कि रुपये की सेहत में और गिरावट आए, लेकिन आगे चलकर इन वजहों से रुपये में मजबूती तो आनी ही है। इसमें कम से कम साल भर का तो वक्त लगना ही लगना है। दरअसल अभी पूंजी प्रवाह की हालत बुरी है, जो कभी रुपये की मजबूती की बड़ी वजह हुआ करती थी।
कम से कम साल भर तो लोग-बाग बाजारों से तो दूर रहेंगे ही। हालांकि जब धुंध छंटेगी, तो हिंदुस्तानी की हालत पहले से कहीं बेहतर होगी। जरा पांच साल पहले के वक्त को याद करिए, तभी एक डॉलर की कीमत 38 रुपये होने की बात पर हंसी आ जाती थी। लेकिन यह बात सच हो गई, तो पांच साल बाद एक डॉलर की कीमत 38 रुपये होने की बात पर क्यों हंसी आनी चाहिए?