मेरे एक मित्र को वित्तीय क्षेत्र में काम करने का लंबा अनुभव रहा है। पिछले कुछ दशकों के दौरान वह बैंक, शेयर बाजार, रेटिंग एजेंसियों में काम कर चुके हैं और म्युचुअल फंडों का भी तजुर्बा रखते हैं। इस लंबे अनुभव के आधार पर उनका मानना है कि वित्तीय क्षेत्र के नियामक केवल इस उद्योग को फायदा पहुंचाने के लिए बने हैं और उन्हें ग्राहकों के हित से कोई सरोकार नहीं है। मैं उनकी बात समझ सकता हूं और यह मानता हूं कि नियामक उपभोक्ताओं के हितों को लेकर गंभीर नहीं रहते हैं। हालांकि मैं अपने मित्र की इस बात से पूरी तरह सहमत नहीं रहा हूं कि वित्तीय नियामक केवल वित्तीय क्षेत्र को लाभ पहुंचाने के लिए ही अस्तित्व में आए हैं। हालांकि पिछले लंबे समय से जिस तरह वित्तीय कंपनियां परिवर्तित होने वाली ब्याज दरों (फ्लोटिंग रेट) पर कर्ज लेने वाले ग्राहकों को परेशान कर रही हैं उससे तो यही लगता है कि मेरे मित्र ने वाकई सही आकलन किया है।
मेरे इस स्तंभ को नियमित तौर पर पढऩे वाले पाठक भली-भांति जानते हैं कि मैं इस बात पर विस्तार से चर्चा करता आया हूं कि ब्याज दरें बढऩे पर बैंक एवं वित्तीय संस्थान तत्काल परिवर्तित होने वाली दरें बढ़ा देते हैं लेकिन ब्याज दरें नीचे जाने पर वे इनमें कमी करने की जल्दबाजी नहीं दिखाते हैं। यह चलन कोई नया नहीं है और पिछले दो दशकों से जारी है। एक सेवानिवृत्त बैंकर श्रीनिवास मराठे ने जोर-शोर से इस पहलू की तरफ ध्यान खींचा है कि बैंक एवं वित्तीय संस्थान किस तरह ग्राहकों से भारी ब्याज वसूल रहे हैं। मराठे ने जब सूचना के अधिकार आवेदनों के जरिये इस संबंध में और जानकारियां जुटाने की कोशिश की तो कर्जदाताओं ने अड़चन खड़ी कर दी। दो वर्ष पहले उन्होंने अपने एक मोटे आकलन में कहा था कि ब्याज दरों में कटौती का लाभ नहीं देकर बैंकिंग प्रणाली ने ग्राहकों को 43,000 करोड़ रुपये से अधिक का नुकसान पहुंचाया है। उनके इस आकलन का आधार यह था कि परिवर्तित होने वाले ब्याज पर आधारित ऋणों के 80 प्रतिशत मामलों में कर्जदाताओं को ब्याज दरों में कटौती का लाभ नहीं दिया गया।
ग्राहकों को मूंडऩे का चलन इतने बड़े स्तर पर है कि मनीलाइफ फाउंडेशन ने सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका (पीआईएल) दायर कर दी। इस पर सुनवाई के बाद शीर्ष न्यायालय ने भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) को छह हफ्तों में जवाब देने का फरमान सुना डाला। आरबीआई ने कुछ महीनों बाद 2018 के उत्तराद्र्ध में कहा कि बैंकों एवं कर्जदाता संस्थानों को परिवर्तित ब्याज दरों पर आवंटित ऋणों को बाहरी बेंचमार्क सूचकांक से जोडऩा होगा। इस व्यवस्था में बेंचमार्क ब्याज दर कम होने पर ऋणों पर ब्याज में भी गिरावट आती। आबीआई के निर्णय के नौ महीने बाद कर्जदाताओं ने यह नई नीति लागू करनी शुरू कर दी।
हालांकि जमीन पर बहुत कुछ बदल गया हो ऐसा नहीं लग रहा है। बाजार में ब्याज दरें कम होने के बाद ग्राहकों को अपने ऋण पर ब्याज कम कराने के लिए लगातार बैंकों से अनुरोध करना पड़ रहा है। दूसरी तरफ बैंक ग्राहकों की बात एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देते हैं। हाल ही में सोशल मीडिया पर ग्राहकों ने ऐसी कई शिकायतें सार्वजनिक की हैं। एक ग्राहक ने कहा कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों ने परिवर्तित ब्याज दरों पर आधारित आवास ऋण पर ब्याज कम नहीं किया। ग्राहक के अनुसार आरबीआई द्वारा रीपो रेट घटाने के तत्काल बाद बैंक ने सावधि जमा पर ब्याज दरें घटा दीं, लेकिन परिवर्तित ब्याज दर आधारित आवास ऋण पर ब्याज कम नहीं किया। ग्राहक ने कहा कि यूनियन बैंक ऑफ इंडिया के साथ उसका अनुभव खासा बुरा रहा है। एक दूसरे ग्राहक ने कहा कि इस समय ज्यादातर कर्जदाताओं की आवास ऋ ण दर करीब 7 प्रतिशत है, लेकिन सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया जुलाई 2019 से परिवर्तित ब्याज दर पर आधारित उसके आवास ऋण पर 8.2 प्रतिशत ब्याज वसूल रहा है। ग्राहक ने कहा कि वह जानना चाहता है कि आखिर ऐसा क्यों किया जा रहा है?
एक ग्राहक ने अपनी व्यथा कुछ इस तरह सुनाई। ग्राहक ने कहा कि उसने भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) से आवास ऋण परिवर्तित ब्याज दरों पर ले रखा है। इस ग्राहक की शिकायत थी कि ब्याज दरों में कटौती का लाभ शायद ही उसे मिल पाता है। बकौल ग्राहक, एसबीआई आरएसीपीसी फरीदाबाद के ऋण अभिकर्ता से लगातार आग्रह किए जाने के बाद भी उसकी बात अनसुनी की जा रही है। ग्राहक के अनुसार जब उसने बैंक के एक अधिकारी से संपर्क किया तो उसे गोरेगांव (मुंबई के उपनगर) में बैंक शाखा में जाकर संपर्क करने के लिए कहा गया। जब आजकल लगभग हरेक चीज कंप्यूटर के माध्यम से निपटाई जा सकती है तो किसी कार्यालय जाने की जरूरत क्या है? वैसे भी कोई योजना बेचने से पहले सभी सुविधाएं ग्राहकों को उनके घर पर मयस्सर कराई जाती हैं। आवास ऋण पर ब्याज कम होने के बाद भी बैंक अधिक ब्याज वसूलते रहते हैं। ग्राहकों की शिकायत रहती है कि इस बारे में पूछने पर कर्जदाता कोई जवाब नहीं देते हैं। बैंक अधिकारी बस इतना कहते हैं कि वे मामले की पड़ताल कर जवाब देंगे, लेकिन उनका जवाब कभी नहीं आता है। कई बार अनुरोध किए जाने के बावजूद ब्याज दरों में संशोधन या सुधार नहीं किया जाता है।
एक अन्य ग्राहक ने कहा कि बैंक उनसे अब भी 10.4 प्रतिशत ब्याज ले रहा है, जिससे वह ठगा महसूस कर रहा है। एक ग्राहक ने कहा कि उसने इंडसइंड बैंक से परिवर्तित ब्याज दरों पर ऋण लिया है, लेकिन बार-बार अनुरोध करने के बाद भी बैंक कोई सुनवाई करने के लिए तैयार नहीं है। एक दूसरे ग्राहक ने कहा कि बाजार में ब्याज दरें कम हुए तीन महीने से अधिक हो गए हैं, लेकिन अनुरोध करने के बाद भी उसके ऋण खाते में दर नहीं घटाई गई है। ग्राहक ने कहा कि जब भी ब्याज दरें बदलती हैं हमें बैंक जाकर एक आवेदन फॉर्म भरना होता है। ऐसे में परिवर्तित दरों पर ऋण लेने का मतलब क्या है? इस ग्राहक ने कहा कि दर घटाने का आवेदन सौंपे उसे एक सप्ताह से अधिक हो गया है, लेकिन उसके बैंक ने अब तक कोई कदम नहीं उठाया है। उसने कहा कि एक बार फिर उसे बैंक जाना पड़ रहा है। ग्राहक ने आरोप लगाया कि शाखा प्रबंधक से मिला जवाब संतुष्ट करने वाला नहीं है। ग्राहक ने कहा कि सिंडिकेट बैंक से ऋण लेने के निर्णय पर वह पछता रहे हैं।
कुल मिलाकर ग्राहकों के लिए कुछ नहीं बदला है। ऊपर जितनी शिकायतें हैं वे केवल व्यक्तिगत ग्राहकों से संबंधित हैं। परिवर्तित ब्याज दरों पर ऋण लेने वाले कारोबारों की हालत लगातार खस्ता बनी हुई है। दूसरी तरफ कर्जदाताओं ने ग्राहकों को झांसा देने का एक नया तरीका खोज निकाला है। आरबीआई ग्राहकों से प्रतिक्रियाएं लेने में दिलचस्पी नहीं ले रहा है या फिर प्रतिक्रियाएं लेने की उपयुक्त व्यवस्था के अभाव में वह इन बातों से अनजान है। कुल मिलाकर यही निष्कर्ष निकलता है कि आरबीआई ने कर्जदाताओं को ग्राहकों को उनका वाजिब हक नहीं देने की अनुमति दे रखी है। ब्याज दरों में कमी का फायदा ग्राहकों को नहीं देने की लूट पिछले दशकों से पांच विभिन्न व्यवस्थाओं के तहत चलती रही है। इनमें प्रधान उधारी दर (1994), बेंचमार्क प्रधान उधारी दर (अप्रैल 2003), आधार दर (2010), कोष पर लागत की सीमांत उधारी दर (2016) और बाहरी बेंचमार्क दर (2019) शामिल हैं। अगर आरबीआई यह लूट रोकने में दिलचस्पी दिखाएं तो समाधान बहुत सरल है। पहली बात तो ब्याज दर घटाने की जिम्मेदारी कर्जदाताओं पर डाल दी जाए। दूसरा समाधान यह हो सकता है कि दरों में कटौती को डिफॉल्ट ऑप्शन बनाने के लिए तकनीक का इस्तेमाल किया जाए। तीसरा विकल्प नेगेटिव कन्सेंट (कुछ खास कदम उठाने से रोकने संबंधी प्रावधान) का हो सकता है। यह विडंबना यह है कि वित्त-तकनीकी खंड में तमाम हुई प्रगति विपणन, ग्राहक जोडऩे और कर्जदाताओं की परिचालन क्षमता बढ़ाने तक ही सीमित है। ग्राहकों को इससे काफी कम लाभ मिल रहा है।
