एक लंबा अरसा धुंध में रहने के बाद अब दुनिया का आर्थिक परिदृश्य साफ हो रहा है। बाहरी दुनिया आर्थिक मंदी और घरेलू अर्थव्यवस्था, कम होती विकास दर की चपेट में आती दिख रही है।
बराक ओबामा की जीत ने तो हौसला आफजाई का काम किया, लेकिन बुधवार को 700 अरब डॉलर के बेल-ऑउट प्लान पर अमेरिकी वित्त मंत्री हेनरी पॉलसन के हैरतंगेज तरीके से कदम वापस खींचे जाने ने सभी को हैरत में डाल दिया। इससे साफ पता चलता है कि अब मंदी से ज्यादा नुकसान तो उसके असर से होने वाला है।
इस खतरे को देखते हुए पश्चिमी देशों की हुकूमतों ने जिन कदमों को उठाया, अगर अपने नीति-निर्धारकों को भी यही सीख सकते हैं कि कुछ भी चलता है और इस मंदी का मुकाबला नियमों के आधार पर नहीं किया जा सकता है। असल में यह एक बहुत बड़ी गलती है। वजह कई सारी हैं।
मैंने पहले भी कहा है कि 1991 का आर्थिक संकट हमारे लिए एक मौके के तौर पर आया था। एक ऐसा मौका, जिसका इस्तेमाल अर्थव्यवस्था के लिए एक नई तस्वीर खींचने में किया गया। वह तस्वीर, जिसने हमें पूरे एक दशक तक रास्ता दिखलाया।
हालांकि, पिछले कुछ सालों में हम इस राह से भटकते हुए नजर आ रहे हैं। हम बड़े खुशकिस्मत हैं कि हमारी सरकार को आज अच्छे और अनुभवी अर्थशास्त्रियों की एक पूरी टीम चला रही है। इन लोगों ने इससे भी पहले इस तरह के हालात का सामना किया है। अब तो सरकार के राजनीतिक समीकरणों में फेरबदल आने के बाद उन अर्थशास्त्रियों की टीम के पास अपना जलवा दिखाने का काफी मौका है।
इसके अलावा, 1991 के बाद की कोशिशों की वजह से अब हमारी अर्थव्यवस्था दुनिया से काफी ज्यादा जुड़ चुकी है। इसकी वजह से अब हम जहां एक तरफ सही कदमों के लिए ज्यादा कमाई कर रहे हैं, तो वहीं गलत कदमों की वजह से हमें मोटा घाटा भी झेलना पड़ा है।
एक अच्छे-खासे नेटवर्क में अपनी मर्जी के मुताबिक फैसले लेने में कई जोखिम भी जुड़े होते हैं। फिर भी आज के माहौल के साथ जुड़ी जबरदस्त अनिश्चितताओं को देखते हुए इस तरह की कोई भी कोशिश बिल्कुल साफ दिमाग से करनी चाहिए। साथ ही, इसमें लोगों को भी भरोसा होना चाहिए। ऊपर से, काम करने की आजादी पर भी कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए।
1991 की तरह इस साल भी सभी मंत्रालयों को इस मंदी से निपटने के लिए अपनी-अपनी राय देनी चाहिए, ताकि सरकार एक ठोस कदम उठा सके। वैसे तो गठबंधन सरकार की अपनी सीमाएं होती हैं, लेकिन फिर भी इस सरकार में प्रधानमंत्री की कुर्सी के साथ-साथ वित्त मंत्रालय, वाणिज्य मंत्रालय, पेट्रोलियम मंत्रालय, विदेश मंत्रालय और योजना आयोग पर आज कांग्रेसी झंडा ही बुलंद है। अगर सही राजनीतिक कदम उठाए गए तो आर्थिक नीति के मोर्चे पर पहले की तरह ही काम बेरोक-टोक चलता रहेगा।
इस तरह के फ्रेमवर्क में आमतौर पर कम वक्त को मध्यम अवधि के साथ, वित्त जगत को असल अर्थव्यवस्था, स्थानीय अर्थव्यवस्था को वैश्विक अर्थव्यवस्था और विकास को सामाजिक सुरक्षा के साथ मिला दिया जाता है। इस बारे में कई सारी बातें प्रधानमंत्री पिछले कुछ हफ्तों में तो ही कह चुके हैं।
वैसे, इस काम को शुरू करने का सबसे अच्छा वक्त तो वह हो सकता है, जब मनमोहन सिंह वाशिंगटन की जी-20 की बैठक को खत्म करने के बाद वापस लौटेंगे। उनके इस ऐलान में इन बिंदुओं पर खासा जोर हो सकता है :
भारत तेज रफ्तार के साथ विकास कर सकता है और यह जरूरी भी है। वजह हैं, घरेलू और वैश्विक कारण। जहां तक बात है घरेलू कारणों की तो यह खुद पर निर्भर होने और रोजगार के मौके पैदा करने के लिए काफी जरूरी है। साथ ही, कमाई और पूंजीगत खर्चों को देखते हुए भी इसकी काफी जरूरत है।
दूसरी तरफ, अगर वैश्विक कारणों की बातें करें तो तेल उत्पादक मुल्कों की गिरती मांग को रोकने के लिए भी यह काफी जरूरी है। साथ ही, सहस्राब्दि विकास लक्ष्य को हासिल करने के वास्ते भी हमारा तेज रफ्तार से विकास करना काफी जरूरी है। अब आप सोच रहे होंगे कि यह कैसे मुमकिन होगा?
दरअसल, घरेलू और विदेशी बाजारों के लिए मुसीबत बनी महंगाई की ऊंची दर अब कम हो रही है। इस वजह से अब अर्थव्यवस्था की सेहत फिर से सरकार के लिए प्राथमिकता बन चुकी है। इसलिए अब अंतरराष्ट्रीय संगठनों को बिना शर्त वित्तीय सहायता मुहैया करवाकर इस काम में हमारी मदद करनी होगी। इससे भुगतान का संतुलन पर बढ़ता बोझ कम करने में मदद मिलेगी।
पिछले कुछ सालों में जो तेज रफ्तार विकास हुआ, उसकी बड़ी वजह सरकारी और प्राइवेट कंपनियों का मोटा निवेश रहा है। अब इसी सेगमेंट पर सबसे ज्यादा संकट मंडरा रहा है। अब सरकार को ऐसी नीति बनानी होगी, जो इस सेगमेंट के लिए निवेश तेजी से खींचकर ला सके।
भारत को दुनिया के साथ जुड़ने का काफी फायदा हुआ है। इसी की वजह से हम तेज विकास रफ्तार को हासिल कर सके। साथ ही, हमारी उत्पादकता में भी काफी इजाफा हुआ। हालांकि, मौजूदा आर्थिक संकट काफी बड़ा और जबरदस्त है, लेकिन आज भी यह बात जस की तस है।
भारत में बुनियादी ढांचे को विकास की काफी जरूरत है। इसलिए इस सेक्टर अब भी मौजूदा संकट का कोई असर नहीं पड़ा है। वित्तीय बंदिशों और अच्छे काम की वजह से सरकार आज भी इस सेक्टर में देसी और विदेशी निजी कंपनियों को शामिल करने के लिए मजबूर है। इसलिए इस बारे में आर्थिक मुद्दों को ध्यान में रखकर सरकार खास कदम उठाएगी।
भारत में काफी वक्त से वित्तीय प्रबंधन काफी दुरुस्त इलाका है। हमारी सरकार लोगों से लिए गए कर्ज हमेशा वक्त पर चुकाती है। साथ ही, वह विदेशी कारोबार को सुचारु तरीके से जारी रखने के लिए समय-समय पर विदेशी मुद्रा भी मुहैया करवाती रहती है। इसलिए इस बारे में कोई संदेह करने की जरूरत नहीं है कि भुगतान में किसी तरह की बाधा आएगी।
हमारे मुल्क की वित्तीय हालत काफी अच्छी खासी है। वजह है इसका अच्छे तरीके से किया गया प्रबंधन और वैश्विक बाजार से सीधे संबंध नहीं होना। हालांकि, पिछले कुछ सालों में बैंकों का कारोबार काफी बढ़ चुका है, लेकिन नकद अनुपात में इजाफा होने की वजह से इस मंदी का असर उन पर नहीं पड़ा।
साथ ही, इसमें खास बॉन्डों को जारी किए जाने ने भी अहम भूमिका निभाई। इसलिए आज अगर मुल्क से पैसा बाहर भी जा रहा है, तो भी बैंक इस झटके को बड़े आराम से सह सकते हैं। रियल एस्टेट जैसे कुछेक सेक्टरों को छोड़ दें, तो आज भी प्राइवेट कंपनियों की कीमत काफी बढ़ा-चढ़ा कर पेश नहीं की जा रही हैं।
वैसे, कुछ कंपनियों को थोड़ी-बहुत दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है, लेकिन इसका हम विलय और अधिग्रहण के जरिये रास्ता जरूर मिल सकता है। हमें सरकारी मदद की जरूरत नहीं होगी। फिर भी हमें दिवालियापन कानून में जल्द से जल्द फेर-बदल करना पड़ेगा।
सरकार की जबरदस्त कोशिशों के बावजूद छोटे व मझोले निर्यातकों और निर्माण सेक्टर मंदी की मार सहनी ही पड़ेगी। राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून जैसे अधिनियमों की वजह से आज असगंठित क्षेत्रों के मजदूरों से ज्यादा सुरक्षा तो गांवों में रहने वाले लोगों के पास है। अगर सरकार इस मामले पर ध्यान देती है, तो इससे लोगों का भला ही होगा।
(लेखक एनसीएईआर, नई दिल्ली के महानिदेशक हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)