जब हम असम में सुबनसीरी नदी के किनारे बसे हुए लखीमपुर जिले के सुनापुर गांव से गुजरते हैं तो हमारे कानों में लकड़ियों के कटने की आवाज गुंजने लगती है।
असम और अरुणाचल प्रदेश की सीमा के नजदीक कोई जंगल तो नहीं है लेकिन यहां की नदी के बांध के नजदीक इमारती लकड़ियां ट्रकों में लदी हुई हैं। यहां लकड़ियों के लिए काम करने वाले लोग भी काफी व्यस्त नजर आते हैं।
यहां से शुरुआत होती है नदी सुबनसीरी के सफर की। यह नदी अरुणाचल प्रदेश के पहाड़ों से निकलकर मैदानी भागों में भी बहती है। इस नदी पर जल विद्युत परियोजना के तहत बांध बनाया जा रहा है। यहां की इमारती लकड़ियां सोने के बराबर हैं। पेड़ों की छोटी डालियां और लकड़ियों के बड़े लट्ठे भी पहाड़ों की नदियों के पानी के साथ बहते हुए घने जंगलों से गुजरकर रेत में पाए जाते हैं।
सुनापुर के लोगों को केवल लकड़ियों को रस्सी के जरिए खींचकर नदी के किनारे लाना पड़ता है। इन लकड़ियों की कीमत लोडिंग के खर्च को मिलाकर 4,000 रुपये है। यहां मछली पकड़ने और नदी की लकडियों को निकालने का काम काफी लंबे समय से करने वाले गुरुदेव का कहना है, ‘फॉरेस्ट डिर्पाटमेंट में इमारती लकड़ियों के लिए एक खास परमिट लेने के लिए थोड़ा कमीशन देना पड़ता है।’
आमतौर पर पांच लोग एक लॉरी में लकड़ियां लादने के काम में लग जाते हैं और महिलाएं और बच्चे लकड़ियों के छोटे-छोटे टुकड़े करने के काम और उन्हें ढ़ेर लगाने का काम करते हैं। एक मजदूर का कहना है, ‘पहले जितनी लकड़ी की कटाई होती थी अब उसमें काफी कमी आई है। आप कह सकते हैं कि एक लकड़ी की कटाई में पहले एक रुपया मिलता था वहीं अब हमें 10 पैसे ही मिलते है।
वे सभी सुबनसीरी के 2 हजार मेगावॉट वाली जलविद्युत परियोजना को इसके लिए दोषी ठहराते हैं। यह स्थान अरुणाचल प्रदेश से ऊपरी इलाके में है। यहां के कुछ सक्रिय कार्र्यकत्ताओं का कहना है कि यहां इस बांध की मंजूरी मिलने से पहले इस बात पर बिल्कुल भी विचार नहीं किया गया है कि निचले इलाके में कैसी स्थिति हो सकती है।
सुबनसीरी ब्रह्मपुत्र घाटी के आंदोलन से जुड़े केशव भाई कृष्णा और राजन का कहना है, ‘आप मुझे बताएं कि यहां के लोगों का जीवन यापन कैसे हो सकता है और इसकी क्षतिपूर्ति कैसे की जाए? यहां के लोग खेती पर भी निर्भर नहीं हो सकते क्योंकि यहां की मिट्टी काफी रेतीली है। इसी वजह से लोग नदियों, पेड़ों, मछलियों और पत्थरों के जरिए कुछ कमाने की कोशिश करते हैं।’
वे लोग असम सरकार को दोषी ठहराते हुए कहते है कि ब्रह्मपुत्र नदी में इस बांध को बनते हुए सरकार चुपचाप देख रही है। उनका कहना है कि असम के लोगों पर इस बांध की वजह से क्या आर्थिक और पर्यावरणीय पड़ेंगे, इसका कोई अध्ययन नहीं किया गया है।