मनमोहन सिंह सरकार के विश्वास मत को लेकर मचे हंगामे और उस पर हुई चर्चा से तो रोमांचक से रोमांचक क्रिकेट मैच या सुपरहिट फिल्में भी शरमा जाएं।
लेकिन बदकिस्मती से हिंदी फिल्मों की तरह सरकार के लिए अब आगे की राह आसान न होगी। परमाणु करार पर मचे हंगामे से मुल्क के सामने खड़ी दूसरी चुनौतियां दब-छुप गईं। लेकिन अब, जब सरकार ने लोकसभा में अपनी ताकत साबित कर दी है, इन चुनौतियों को पूरी अहमियत मिलनी चाहिए।
जिस तरह से सरकार ने जरूरी वोटों का जुगाड़ किया, उससे यह बात तो साबित हो जाती है कि कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों के बीच पूरा तालमेल था। लोकसभा का विश्वास हासिल करने के बाद सरकार ने इस बात के पूरे संकेत दिए हैं कि वह सुधारों की गाड़ी को वापस पटरी पर लाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ेगी।
यह बात किसी से छुपी हुई नहीं है कि पिछले चार सालों में वामपंथियों ने आर्थिक सुधार की हवा निकालने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। उन्हीं की वजह से तो आर्थिक सुधार अब तक ठंडे बस्ते में पड़े हुए थे। जिस तरह से सरकार ने आईएईए और न्यूक्लियर सप्लाइर्स ग्रुप में परमाणु करार को आगे बढ़ाने में पूरी ताकत झोंक रखी है, उससे सरकारी दावों पर एकबारगी भरोसा करने का दिल करता है। अब आम आदमी भरोसा कर सकता है कि सरकार सालों से लटके काफी जरूरी मुद्दों पर अपने कदम काफी भरोसे के साथ आगे बढ़ाएगी।
वैसे, राजनीति के चश्मे से देखें तो यह कहना काफी आसान है, पर करना काफी मुश्किल। यह तो सच है कि सरकारी फैसलों पर वामदलों की लाल झंडी के हटने के बाद से सरकार को वह सब कुछ करने का मौका मिल जाएगा, जो वह कर नहीं पा रही थी। हालांकि, अगर हालात काफी अच्छे हों तो भी चार साल पूरे कर चुकी सरकार के पास करने के लिए ज्यादा मौके नहीं होते। ऐसा इसलिए क्योकि ज्यादातर मामलों में आर्थिक सुधारों का असर लंबे समय के बाद ही दिखाई पड़ता है। ऊपर से, मनमोहन सिंह के लिए हालात भी तो काफी अच्छे नहीं हैं।
परमाणु करार के सवाल पर कांग्रेस ने जबरदस्त एकजुटता दिखाई। इसी वजह से वह विश्वास मत भी जीत पाई। लेकिन दिक्कत की बात यह है कि दूसरे मुद्दों पर उसके अंदर उतनी एकजुटता नहीं है। खास तौर पर उन मुद्दों पर तो बिल्कुल ही नहीं, जो चुनाव के लिए काफी अहम हो सकते हैं। इसमें उन बदलावों को भी मिल दीजिए, जो संप्रग ने नए और पुराने साथियों को एक साथ रखने के लिए किए हैं। अब अगले कुछ महीनों में आपको महसूस हो जाएगा कि सरकार अपनी इस नई क्षमता का इस्तेमाल खुद को बचाने के लिए करेगी, न कि सुधारों की गाड़ी को आगे बढ़ाने के लिए।
वैसे तो कई ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर सरकार को तुरंत ध्यान देने की जरूरत है। लेकिन मैं यहां दो ही मुद्दों पर चर्चा करुंगा, जो मेरे मुताबिक काफी अहम हैं। इन दोनों से सरकार की उस शिकायत की परीक्षा भी हो जाएगी कि वामदलों के विरोध की वजह से ही वह आर्थिक सुधारों की रफ्तार तेज नहीं कर सकी। साथ ही, इससे यह भी पता चल जाएगा कि सरकार लोकसभा में मिली जीत का इस्तेमाल आर्थिक सुधारों की रफ्तार तेज करने के लिए करेगी या फिर खुद को बचाने के लिए।
इसमें पहला मुद्दा है घरेलू बाजार में तेल की कीमतों का। कई महीनों की ना-नुकुर के बाद पिछले महीने सरकार को पेट्रोलियम उत्पादों और रसोई गैस की कीमतों में इजाफा करना पड़ा, ताकि दिवालियेपन की हद तक जा चुकी सरकारी तेल कंपनियों को थोड़ी राहत मिल सके। माना कि कीमतों में बढ़ोतरी काफी ज्यादा थी, लेकिन अब भी घरेलू तेल कीमतों और अंतरराष्ट्रीय कीमतों के बीच अंतर काफी ज्यादा है। इसी अंतर की वजह से तो सरकारी खजाने का तेल निकल चुका है, जो इस संकट के शुरू होने के पहले काफी हरा-भरा था।
लेकिन अर्थव्यवस्था के लिए माकूल कड़े फैसले लेने की हिम्मत क्या कांग्रेस और संप्रग के दूसरे घटक दलों में है? अगर सरकार अभी पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में फिर से इजाफा करने का फैसला लेती है, तो उससे संप्रग के घटक दलों के चुनावी ख्वाहों को करारी चोट पहुंचेगी। कांग्रेस और दूसरे घटक दल पहले से ही महंगाई और दूसरे मुद्दों से परेशान हैं। अगर सरकार तेल की कीमतों को बढ़ा नहीं भी पाती है, तो भी उसके सामने अपने खजाने को राहत देने के लिए विनेवश का रास्ता तो खुला ही है। वैसे, इस मुद्दे पर भी सरकार को अंदर से काफी विरोध झेलना पड़ सकता है।
सरकारी कंपनियों के निजीकरण के लिए दूसरे जो भी कारण हों, लेकिन सरकारी खजाने की बदहाली के कारण पर जल्दी कोई भरोसा नहीं करने वाला। वजह है, पिछले कुछ सालों में विदेशों से आया भरपूर पैसा। पिछले कुछ सालों में अर्थव्यवस्था और राजनीति में भी काफी फेरबदल हो चुका है। इसीलिए यही सही मौका है, आर्थिक सुधार की गाड़ी को पटरी पर लाने के सरकारी वादे की विश्वसनीयता को परखने का। दूसरा बड़ा मुद्दा है, बिजली का। सरकार का परमाणु करार को लेकर इतना जोर देने की वजह भी मुल्क में बिजली की जबरदस्त कमी है, जिस वजह से अर्थव्यवस्था को हर साल मोटा नुकसान झेलना पड़ता है।
यह तो बहुत जायज बात है, लेकिन इसके लिए ऊर्जा सेक्टर में सुधारों पर भी जोर देना होगा। बिजली कानून तो 2003 में ही पास किया जा चुका है, लेकिन आज भी मुल्क में इस बारे में ओपन एक्सेस की नीति को अमली जामा नहीं पहनाया जा सका। साथ ही, अलग-अलग सेक्टर के लोगों को बिजली पर मिल रही अलग-अलग सब्सिडी को खत्म करके राज्य सरकारों की सीधी सब्सिडी देने के बारे में भी एक कदम भी आगे नहीं बढ़ाया गया है। कुछ साल पहले सरकार ने राज्यों को अलग-अलग मद में बिजली की सब्सिडी देने की इजाजत दे दी थी। इस फैसले के पीछे वामदलों का हाथ बताया जाता है।
तो क्या इस बदले हालात में इस मुद्दे से निपटने में सरकार को अब आसानी होगी? जहां तक ओपन एक्सेस की बात है, जब तक राज्य सरकारें सूबे से बाहर पैदा हुई बिजली को रेगुलेटर द्वारा तय की गई कीमत पर सीधे उनके ग्रिड में लाने की इजाजत नहीं देती, राष्ट्रीय बाजार पक्की शक्ल अख्तियार नहीं कर पाएगा। इस वजह से ऊर्जा सेक्टर में पैसा भी नहीं आ पाएगा, जिसकी इस वक्त देश को सबसे ज्यादा जरूरत है। यह वाकई हैरानी और दुख की बात है कि सरकार ने परमाणु करार को राष्ट्रहित में बताकर विश्वास मत जीता है, लेकिन ऊर्जा सेक्टर में सुधार की रफ्तार आज भी काफी धीमी है।
इस बात से किसी को इनकार नहीं है कि संप्रग सरकार की पहली प्राथमिकता अगले आम चुनाव को जीतना ही है। लेकिन आर्थिक सुधार की रफ्तार धीमी करने के लिए इसे सरकार एक बहाने के रूप में इस्तेमाल नहीं कर सकती। खास तौर पर तब तो बिल्कुल ही नहीं, जब उनके साथ मनमोहन, चिदंबरम और अहलूवालिया जैसे बड़े नाम जुड़े हुए हैं, जिनकी पहचान ही आर्थिक सुधार हैं।