एक उभरती हुई अर्थव्यवस्था में रहने का अपना अलग रोमांच है। यहां अवसरों की कमी नहीं रहती। फैक्टरियों में से हमेशा धुआं निकलता रहता है।
यहां नौकरियों की नहीं, बल्कि लोगों की कमी रहती है। यहां कीमतें तो चढ़ती रहती है, लेकिन साथ में लोगों और कंपनियों की आमदनी भी बढ़ती है। यहां हरेक कंपनी को ऐसे लोगों से पैसे उगाहने में कोई दिक्कत नहीं होती, जो अपने पैसे को दिन दूनी और रात चौगुनी रफ्तार से बढ़ाना चाहते हैं।
यहां विकास की रफ्तार दहाई के आंकड़े में रहती है। हर तरफ यही शोर रहता है, नामुमकिन कुछ भी नहीं। लेकिन जब से सब प्राइम संकट ने अपने पांव फैलाने शुरू किए हैं, अब यह शोर मध्यम पड़ता जा रहा था। लेकिन सितंबर के झटके के बाद तो यह पूरी तरह से थम चुका है।
अब तो लोगों की जिंदगी ही पूरी तरह से बदल चुकी है। अब लोग रोमांच की नहीं, बल्कि नकदी की कमी, वेतन में कटौती, मंदी, काम के कम घंटे, छंटनी, शेयर बाजार के बुरे हाल, रुकी हुई परियोजनाओं, मुद्राओं की बदतर हालत और दूसरे मुद्दों के बारे में बातें कर रहे हैं।
आज जब हम नए साल में प्रवेश करने जा रहे हैं, तो ऐसे वक्त में कई कंपनियां अपनी हालत पर फूट-फूट कर रो रही हैं। ऐसे में पेश हैं कुछ ऐसी बातें, जो नए साल में आपके लिए उम्मीद के दीये को जलाए रख सकती हैं।
ओबामा से उम्मीद: नए साल के पहले महीने की 20 तारीख को दुनिया के सबसे ताकतवर मुल्क की कमान एक नए राष्ट्रपति के हाथों में आएगी।
वह राष्ट्रपति, जो अपने 43 पूर्ववर्तियों से बिल्कुल जुदा होगा। इस अश्वेत शख्स के हाथों में सत्ता की बागडोर ऐसे वक्त में आने वाली है, जब दुनिया 1930 के दशक की महामंदी के बाद के सबसे बड़े आर्थिक संकट से गुजर रही हैं।
वह सिर्फ अमेरिका के लिए नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के लिए उम्मीद का सितारा बन चुके हैं। वह एक ऐसे शख्स हैं, जो अकेले इस बात का भरोसा हममें जगा सकते हैं कि कुछ भी मुमकिन है।
खबरों की मानें तो आज कल वह अमेरिकी अर्थव्यवस्था के लिए एक राहत पैकेज बना रहे हैं, जिसकी कीमत एक लाख करोड़ डॉलर है।
मतलब, वह हिंदुस्तान के जीडीपी के बराबर के राहत पैकेज की घुट्टी अमेरिकी अर्थव्यवस्था को पिलाने की तैयारी में हैं। अगर दुनिया के दूसरे कोने में आया मंदी का तूफान हमारी भी आर्थिक सेहत पर इतना असर डाल सकता है, तो जरा सोचिए इतने बड़े पैकेज से हमें कितना फायदा होगा। इस सूची में उम्मीदों की दूसरी कड़ियों को भी जोड़ दीजिए।
अगले साल लखटकिया कार, नैनो भी तो आने वाली है। साथ ही, कच्चे तेल की कीमत भी 30 डॉलर प्रति बैरल तक आने की उम्मीद की जा रही है। तीसरी पीढ़ी का मोबाइल फोन नेटवर्क आने वाला है। ऊपर से, अगले साल तक तो विदेशी संस्थागत निवेशकों की वापसी की भी उम्मीद की जा रही है।
इस तस्वीर से लगता तो यही है कि आर्थिक सुस्ती का दौर अब बस खत्म होने ही वाला है।
लोकतंत्र का जादू: अगर आपके मन में लोकतंत्र में लोगों की ताकत को लेकर जरा सा भी शक है, तो बस एक बार जरा उन नेताओं की तरफ देखिए जिन्हें मुंबई हमलों की वजह से अपनी कुर्सी गंवानी पड़ी।
केंद्रीय गृहमंत्री (शिवराज पाटिल), एक मुख्यमंत्री (विलासराव देशमुख) और एक उप-मुख्यमंत्री (आर. आर. पाटिल)को जनता के गुस्से की वजह से अपनी-अपनी कुर्सियों को छोड़ना पड़ा।
जनता ने नकारेपन से लेकर फिल्मी हस्तियों को हमले की जगह पर ले जाने तक किसी भी बात के लिए उन्हें नहीं बख्शा। उम्मीद तो यही है कि जनता अपनी इस ताकत का इस्तेमाल अगले कुछ महीने के दौरान मुल्क के लिए सरकार को चुनते वक्त भी करेगी।
अब जनता नई सरकार को चुने या चाहे पुरानी सरकार पर ही भरोसा करे, लेकिन इससे फायदा अर्थव्यवस्था को ही होगा। नई सरकार अपने साथ नई योजनाएं, नए कार्यक्रम, नए खर्च और अर्थव्यवस्था के लिए नई ऊर्जा तथा नई उम्मीदों को लेकर आएगी।
खुशी से लौटें पुराने सिध्दांतों की ओर: आपने कभी ‘बारबेरियंस एट द गेट : द फॉल ऑफ आरजेआर नाबिस्को’ किताब का नाम सुना है? इसे लिखा है दो वित्तीय पत्रकारों ब्रायन ब्ररॉग और जॉन हेलर ने। इसमें उन तीन नियमों का जिक्र है, जिसके आधार पर 1980 के दशक में वॉल स्ट्रीट में काम हुआ करता था।
यह वही वक्त जब आरजेआर नाबिस्को पर अधिग्रहण को लेकर उस कंपनी के शेयरधारकों के बीच 25 अरब डॉलर की भयंकर जंग हुई थी। ये नियम थे :
कभी नकद में मत चुकाओ
कभी सच मत बोलो
कभी नियमों के आधार पर मत खेलो
ऐसा लगता है कि इन्हीं नियमों की वजह से सब प्राइम संकट का जन्म हुआ था। अब इन्हें पलटना ही पड़ेगा। अब वक्त आ गया है पुराने सिध्दांतों की तरफ वापस लौटने का। अब वक्त है कि लोग अपने पैसों को बचाएं और अपने दम पर जीना सीखें।
आज की तारीख में नकदी में ही दम है। आज नकदी में आपकी किसी भी दूसरी परिसंपत्ति से ज्यादा ताकत है। दूसरी तरफ, आज बाजार में बने रहने के लिए हकीकत बयां करना कोई विकल्प नहीं, बल्कि जरूरत बन चुका है। साथ ही, नियमों को तोड़ने का नतीजा हमेशा अच्छा नहीं होता, इस बात को भी सभी जान चुके हैं।
आज लोग दिल से नहीं, दिमाग से सोच रहे हैं। बेकार का उत्साह खत्म हो चुका है, लेकिन दिलों में उम्मीद का दीपक अब भी जल रहा है। दुनिया को बेहतर बनाने के लिए इससे ज्यादा और क्या चाहिए?
क्या हम बच पाएंगे?: सूरज अगर डूबता है, तो अगले दिन सबेरे-सबेरे वापस भी आ जाता है। जिंदगी के साथ भी ऐसा ही होता है। बड़ा सवाल यह है कि बदलाव की शुरुआत कब होगी? आज अमेरिका से यूरोप, यूरोप से चीन और चीन से लेकर भारत तक में जो अरबों डॉलर के राहत पैकेजों का ऐलान हुआ है,
उसका असर तो आज नहीं तो कल अर्थव्यवस्था के हरेक हिस्से पर पड़ेगा ही। संकट की इस घड़ी ने दुनिया को और भी नजदीक ला दिया है. ताकि साथ मिलकर इससे मुकाबला किया जा सके। अमेरिका और यूरोप तो साथ मिलकर यह जंग लड़ ही रहे थे और अब एशिया में भी एकता का बिगुल फूंका जा चुका है।
इस सप्ताहांत में तो चीन, जापान और दक्षिण कोरिया ने साथ मिलकर इस संकट का सामना करने का फैसला किया है। कुछ लोगों का मानना है कि इसका असर अगले साल की दूसरी छमाही में दिखने लगेगा। वहीं, कुछ लोग ऐसे भी हैं, जिनके मुताबिक 2010 की दूसरी छमाही के पहले राहत की कोई गुंजाइश नहीं है।
मेरी सलाह: उम्मीद का दीया बुझने न दें। मुस्कराते रहें और पूरे साल खूब मस्ती करें। छुट्टियां मुबारक।