भारतीय स्टेट बैंक ने पिछले मंगलवार को गृह ऋण की दरों में कमी और छोटे उद्योगों के लिए नई पहल शुरू करके इस दिशा में उत्साहजनक शुरूआत की है।
हालांकि, विकास की गाड़ी को पटरी पर लाने के लिए डेवलपरों, रिजर्व बैंक और सरकार की ओर से तुलनात्मक कार्रवाई जरूरी है। डेवलपरों को परिसंपत्तियों की कीमतें घटानी होंगी, रिजर्व बैंक द्वारा दरों में कटौती किए जाने की जरूरत है और सरकार को चाहिए कि वह करों को कम करने और उन्हें तर्कसंगत बनाने की दिशा में कुछ कदम उठाए।
सभी पक्षों को कीमतों में कटौती करनी ही होगी। ये कटौतियां परिसंपत्तियों की कीमतों में, ब्याज दरों में और कर के तौर पर होंगी। बैंकों को दरें घटानी चाहिए जबकि विनिर्माताओं को उत्पाद की कीमत कम करनी चाहिए। इससे आय में बढ़ोतरी होगी और बाजार एक बार फिर उठने लगेगा। इसके बाद इस क्षेत्र में ताजा निवेश की आवक शुरू हो जाएगी।
एक बार इस सिध्दांत को समझ लेने और स्वीकार कर लेने के बाद सम्मिलित प्रयास से निर्माण और पूंजीगत परियोजनाओं को बहाल किया जा सकता है और उपभोक्ताओं के विश्वास को एक बार फिर जीता जा सकता है। बैंक रुकी परियोजनाओं को चालू करने के लिए कुछ सृजनात्मक समाधान पेश कर सकते हैं।
परिसंपत्तियों, वित्त और करों की घटी हुई कीमतें इस परियोजनाओं के अर्थशास्त्र को बदल सकती हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो करों में कटौती के बाद ये परियोजनाएं फायदेमंद हो जाएंगी। उदाहरण के लिए, जिन डेवलपरों ने कीमतों में सुधार से पहले फंड हासिल कर लिया था, अब कुछ सौदों के साथ मुश्किल दौर में हैं।
ऐसी परियोजनाएं जो पूरी हो चुकी हैं या फिर पूरी होने के कगार पर हैं, वे फंड के महंगा हो जाने के कारण अटकी पडी हैं। इस बीच बैंक अपना धन सरकारी प्रतिभूतियों में निवेश कर रहे हैं। यह न केवल सुरक्षित है बल्कि मूल्य वृध्दि के लिहाज से भी उचित है।
बैंक भारतीय रिजर्व बैंक के पास भी फंड रख रहे हैं। एचडीएफसी के अध्यक्ष दीपक पारेख ने नवंबर 2008 में रेपो दर में 2 से 3 प्रतिशत तक कटौती की बात कही थी। रिजर्व बैंक द्वारा दिखाई गई चौकसी (नकदी को बढ़ाने और दरों में कटौती) संकट गहराने के बाद पर्याप्त साबित नहीं हुई है। निर्माण क्षेत्र, मैन्युफैक्चरिंग और रोजगार के नए अवसरों में और गिरावट का इंतजार किए बगैर अब कार्रवाई किए जाने की जरूरत है।
ब्याज, कर की दरों और लागत में कटौती जैसे सभी मोर्चों पर कार्रवाई करने की जरूरत है, ताकि कीमतों में कमी आए और विकास तथा उत्पादकता के साथ उपभोक्ताओं का भरोसा एक बार फिर बाजार में लौट सके।
कर की दरों में कटौती जैसी राजकोषीय कार्रवाई सबसे अधिक प्रभावी साबित हो सकती है। दुर्भाग्य से दिसंबर में उत्पाद शुल्क में की गई कटौती व्यर्थ साबित हुई, क्योंकि इसके साथ ही ब्याज दरों में पर्याप्त कटौती नहीं की गई, बैंकों का निवेश सरकारी प्रतिभूतियों तक सीमित रह गया और परिसंपत्तियों की कीमतों में कमी आई।
सवाल यह है कि अब आगे क्या किया जा सकता है, जबकि दरों, कर और कीमतों में कई महीनों से कटौती नहीं की गई है? ब्याज दरों में कटौती से शुरूआत की जा सकती है क्योंकि पिछले आठ महीनों के दौरान मुद्रास्फीति में काफी कमी आ चुकी है, जबकि इस दौरान दरों में पर्याप्त कटौती नहीं की गई है।
सीआरआर में 2 से 3 प्रतिशत तक की कटौती (5 प्रतिशत से) : नकद सुरक्षित अनुपात में 2 प्रतिशत की ताजा कटौती से बैंकों को बिना किसी लागत के धन मिल सकेगा। दरों में कटौती से आगे ब्याज दरों में कटौती का रास्ता खुलेगा। सस्ते फंड का परिणाम सस्ते कर्ज के रूप में सामने आएगा।
उच्च लागत वाली मौजूदा जमाओं के लिए अलग से व्यवस्था करनी होगी। पिछले दिसंबर में सीआरआर में 2 प्रतिशत की कमी न किए जाने के कारण हम ब्याज दरों में वृध्दिशील एक प्रतिशत (या संचयी 2 प्रतिशत) कटौती के अवसर को खो चुके हैं।
रेपो और रिवर्स रेपो में 2 प्रतिशत की कटौती कीजिए (क्रमश: 5.5 प्रतिशत और 4 प्रतिशत से 3.5 प्रतिशत और 2 प्रतिशत) : एक बार फिर निष्क्रियता के कारण या फिर काफी छोटी कटौतियों के कारण मौजूदा भावना को बदलने के अवसर हाथ से जाते हुए दिखाई दे रहे हैं।
यहां हम वास्तव में किसी कठोर कदम की वकालत नहीं कर रहे हैं, यहां तो केवल एक मिलीजुली रणनीति तैयार करने की बात की जा रही है ताकि खरीदारों के नजरिये, उद्यम आय और बाजार से बने मौजूदा माहौल को बदला जा सके। निर्यात जैसे कुछ क्षेत्र बाहरी कारणों की वजह से प्रभावित होने वाले हैं, लेकिन घरेलू मोर्चे पर कई क्षेत्रों में विकास की पर्याप्त संभावनाएं हैं।
बैंक दरों में कटौती या दरों में छूट (फिलहाल 6 प्रतिशत) : रिजर्व बैंक द्वारा मध्यावधि की दरों के बारे में संकेत देने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली यह दर 2003 से मौजूदा स्तर पर ही है। अब जबकि मुद्रास्फीति के पूर्वानुमान घट रहे हैं और दुनिया के ज्यादातर हिस्सों में ब्याज दरें निम्नतम स्तर पर हैं, यह संकेत तर्क संगत नहीं रह गया है। विस्तृत गणना से इसके 4 प्रतिशत या और कम होने के संकेत मिल सकते हैं।
बैंकों को बचत दर निर्धारित करने की अनुमति दीजिए (3 प्रतिशत) : ब्याज दरों को कम रखने के लिए रिजर्व बैंक बचत बैंक दर की निचली सीमा तय कर सकता है, जबकि बैंकों को अपनी-अपनी दरें तय करने की अनुमति मिलनी चाहिए।
सरकारी प्रतिभूतियों में निवेश की सीमा : बैंकों को सांविधिक तरलता अनुपात के मुताबिक सरकारी प्रतिभूतियों में निवेश करना चाहिए। लेकिन रिजर्व बैंक अतिरिक्त निवेश को रोक सकता है।
छोटी बचत (डाक घर) और पीएफ दरें : दर सूची के तहत कुछ बिंदुओं के तहत इन दरों के बारे में भी फिर से विचार करना चाहिए।
निष्कर्ष
दरों, कीमतों और करों में कटौती करके कई मसले से निपटा जा सकता है-
1. पहले मुर्गी आई या अंडा का मसला- जमा दरें या ऋण दरें – निम्न रेपो दर और सरकारी प्रतिभूतियों में निवेश की सीमा के कारण बैंकों के लिए धन को रोकने की लागत बढ़ जाएगी।
2. अच्छे कार्यक्रम वाले रियल एस्टेट डेवलपरों को सशर्त वित्त की पेशकश जैसे सृजनात्मक समाधान तैयार करने के लिए बैंकों को बढ़ावा मिलेगा। यह पेशकश कुछ इस प्रकार विनोदपूर्ण भी हो सकती है ‘सैटरडे नाइट स्पेशल’। इसके तहत एक सीमित अवधि के लिए कम ब्याज दर की पेशकश की जा सकती है, या फिर परिसंपत्तियों की कीमतों में कटौती की शर्त रखी जा सकती है। परिसंपत्ति के मूल्यांकन में कमी इतनी हो सकती है ताकि परियोजना व्यवहारिक बन जाए, जैसे 30 से 40 प्रतिशत तक।
3. बैंकों के लिए कम शुध्द ब्याज मार्जिन पर अधिक कारोबार काफी आकर्षक हो सकता है। दरों में कटौती से पर्याप्त मात्रा में ऋण बांटा जा सकता है, जबकि बैंकों का मार्जिन भी बचा रहेगा।
4. रिजर्व बैंक को नियंत्रण बनाए रखना होगा और जरूरत पड़ने पर मार्जिन प्रावधानों में बढ़ोतरी तथा अतिरिक्त परियोजनाओं या परिसंपत्तियों के लिए बढ़ी हुई दर जैसी निरुत्साहित करने वाली कार्रवाई से भी पीछे नहीं चाहिए।
