आपको अमेरिका में भारत के राजदूत रोनेन सेन का वह बयान तो याद ही होगा, जब उन्होंने कुछ ‘खास लोगों’ को ‘हेडलेस चिकेन’ का नाम दिया था।
आज बैंकिंग व्यवस्था और शेयर बाजारों के चरमराकर गिरने की वजह से दुनिया भर की सरकारों की हालत भी कुछ ऐसी ही है। ऐसी हालत से हमारा मुल्क भी अछूता नहीं है। इसीलिए तो महीने की शुरुआत से ही बाजार और बैंकिंग नियामकों ने विदेशी संस्थागत निवेशकों और ब्याज दरों को राहत देनी शुरू की।
इन दोनों मामलों में नियामक संस्थाओं ने पिछले साल ही काफी कड़ा रवैया अपनाने की शुरुआत की थी, जब बाजार और महंगाई दोनों सिर्फ ऊपर की तरफ ही जा रहे थे। वैसे, ये कदम असरदार हो भी सकते हैं और नहीं भी।
अगर वित्त वर्ष की पहली छमाही में ऊंची ब्याज दरों ने आर्थिक विकास का बंटाधार किया तो दूसरी छमाही में यह काम मंदी बखूबी कर रही है। ऊपर से जल्दबाजी में की गईं नीतिगत घोषणाएं और आपा-धापी में हो रही बैठकें यही दिखाती हैं कि सरकार कहीं न कहीं आज भी भूल कर रही है।
बैंक से मिलने वाले कर्जों को सस्ता करना और शेयर बाजारों का ऊपर चढ़ना असल में थोड़े समय के लिए ही मुल्क का भला कर सकते हैं। सवाल उठता है, तो मुल्क की तस्वीर और तकदीर को लंबे वक्त के वास्ते संवारने के लिए क्या करना होगा? क्या मौजूदा संकट केंद्र और राज्यों की सरकारों को कुछ असरदार सुधारों को लागू करने की सीख दे सकता है?
सरकार को कंपनियां नहीं, बल्कि आम आदमी को लक्षित करके ही सुधारों को शुरू करना चाहिए। आखिर आम आदमी ही तो सभी राजनीतिक दलों का असल निशाना होते हैं। इन सुधारों की जरूरत सिर्फ आने वाली मंदी की वजह से ही नहीं, बल्कि उन सबूतों की वजह से भी महसूस हो रही है, जिनके मुताबिक हिंदुस्तान में कारोबारी माहौल और जीवन का स्तर बद से बदतर होता जा रहा है। मिसाल के लिए भ्रष्टाचार को ही ले लीजिए।
सरकारी तंत्र में ईमानदारी के नाम पर तो हमारे मुल्क की मिसाल दी ही नहीं जा सकती है। हालांकि, काफी धीरे-धीरे ही सही, लेकिन बाद में हमारे मुल्क ने इस मामले में तरक्की करनी शुरू की। लेकिन इस साल हम ईमानदार मुल्कों की सूची में नीचे गिर पड़े।
ट्रांसपेरेंसी इंटरनैशनल की ईमानदार मुल्कों की सूची में पिछले साल हम 72वें स्थान पर थे, जबकि इस साल हमें 85वां रैंक मिला है। भारत अब अल्बानिया के बराबर आ चुका है, जो साल भर पहले तक इस सूची में 105वें रैंक पर था। कारोबारी माहौल को लेकर विश्व बैंक के सर्वे में भी भारत इस साल दो स्थान नीचे गिर चुका है। उसे 181 मुल्कों की इस सूची में 122वां स्थान दिया गया है, जबकि साल भर पहले उसे 120वां रैंक मिला था।
हालांकि, इस सर्वे के मुताबिक हमारे मुल्क में अब संपत्ति को पंजीकृत करवाना पिछले साल के मुकाबले अब पहले से आसान हो चुका है। इस मामले में हमारी रैंकिंग में नौ स्थानों का सुधार आया है। वैसे, बाकी के सभी मामलों में हमारी हालत पतली ही है। फिर चाहे वह कारोबार शुरू करने की बात हो या निवेशकों के हितों की सुरक्षा करने का मामला हो या फिर सीमा पार कारोबार की बात हो, हर मामले में हमारे मुल्क की रैंकिंग गिरी ही है।
वैसे तो हम सूचना प्रौद्योगिकी के मामले में अपनी समझ का काफी लोहा मानते हैं, लेकिन यहां भी हमारी हालत बहुत अच्छी नहीं है। ग्लोबल आईटी कंपीटिटिवनेस इंडेक्स में हमें 66 मुल्कों के बीच 48वां स्थान मिला है। यहां भी भारत दो पायदान नीचे गिरा है। इन सभी सर्वे में हमारे गिरने की असल वजह तो कुशल कामगारों की भारी कमी है।
यह एक ऐसा बिंदु हैं, जहां हमारे मानव संसाधन विकास मंत्रालय को असल में ध्यान देने की जरूरत है। आखिर ओबीसी कोटे से आगे भी एक बहुत बड़ी दुनिया है। सबसे ज्यादा चिंता तो मुल्क में भुखमरी की हालत को देखकर होती है। वॉशिंगटन की फूड पॉलिसी रिसर्च संस्था के हंगर इंडेक्स का कहना है कि 88 मुल्कों की सूची में अपने देश की रैंकिंग 66 है।
मुल्क के अलग-अलग सूबों के बीच किए गए शोध में तो 18 में से 12 राज्यों में हालत को भारी चिंताजनक बताया गया है। इन सूबों में गुजरात, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और कर्नाटक जैसे काफी अमीर राज्य भी शामिल हैं। हमारे मुल्क के मानव विकास सूचकांकों ने तो कई राज्यों में भुखमरी की हालत को अफ्रीकी देशों के बराबर माना है।
अगर पूरी तस्वीरें देखेंगे, तो आप डर जाएंगे। भारत में सिर्फ कारोबार करना ही मुश्किल नहीं है, बल्कि यहां कुशल कामगारों की भी अच्छी-खासी कमी है। साथ ही, भूखे और कुपोषित हिंदुस्तानियों की भी अच्छी-खासी फौज खड़ी है। ये सारी बातें, न केवल हमारी आर्थिक विकास को धीमा कर रही हैं, बल्कि वक्त आने पर यह हमें पीछे भी खींच ले जाएंगी।
इसलिए अब वक्त आ गया है, जब राजनीतिक नेतृत्व को सच्चे दिल से कारोबारी माहौल और सामाजिक ढांचे को बेहतर बनाने की शुरू करनी चाहिए। हकीकत में, यही वह तरीका है, जिससे बाजार में विदेशी निवेशक और आर्थिक ढांचे में नकदी का प्रवाह वापस लौट सकता है।
गुजरात, हिमाचल और पश्चिम बंगाल में आज बदलाव की यह बयार सिर्फ कुछ लोगों की व्यक्तिगत कोशिशों का नतीजा है। इस सोच को संस्थागत रूप से लागू करना अभी बाकी है। हम हिंदुस्तानी और हमारे नेता अक्सर विदेशी आंकड़ों को झूठा बताकर उन पर यकीन नहीं करते हैं।
वैसे, हमें उनकी जरूरत भी नहीं है। जरा अपने आस-पास को तो देखिए। राज ठाकरे, ममता बनर्जी, नक्सली, बजरंग दल और आतंकवाद साफ बताते हैं कि आज आम आदमी को किस चीज की जरूरत है।