अमेरिका के न्याय विभाग ने दिग्गज इंटरनेट कंपनी गूगल पर प्रतिस्पद्र्धारोधी आचरण के लिए मुकदमा कर दिया है। उसके 11 राज्य भी गूगल के खिलाफ इस मुकदमे का अंग बन गए हैं। चार बड़ी टेक कंपनियों- एमेजॉन, गूगल, ऐपल एवं फेसबुक के खिलाफ करीब डेढ़ साल चली जांच के बाद अमेरिकी संसद की न्यायिक उप-समिति ने 400 पृष्ठों की अपनी रिपोर्ट में भरोसा-रोधी कृत्यों में लिप्त रहने का आरोप लगाया था। इस समिति में डेमोक्रेटिक पार्टी के सांसदों की बहुतायत थी। रिपोर्ट आए हुए अभी कुछ समय ही हुआ है और अगले एक-डेढ़ महीनों में गूगल एवं दूसरी टेक दिग्गजों के खिलाफ ऐसे कई और मुकदमे दाखिल हो सकते हैं। अमेरिका के कई दूसरे राज्य एवं हितधारक भी इन दिग्गज कंपनियों के खिलाफ मुकदमे दायर कर सकते हैं।
इन मामलों में अंतिम फैसले आने में कई वर्षों तक का समय लग सकता है। इस बीच सिलिकन वैली और बाकी दुनिया की वेंचर कैपिटल फर्म एवं उद्यमी पहले से ही इसके निहितार्थों का सामना कर रहे हैं। उनकी किस्मत इन चार बड़ी टेक कंपनियों से गहराई से जुड़ी हुई है और इन फर्मों को प्रभावित करने वाले किसी भी कदम का उनके भविष्य पर प्रतिकूल असर होगा।
एमेजॉन, गूगल, ऐपल एवं फेसबुक की तरह माइक्रोसॉफ्ट पर भले ही अभी कोई जांच न चल रही हो (उसे 1998 में इसी तरह की विश्वास-रोधी जांच का सामना करना पड़ा था) लेकिन ये दिग्गज कंपनियां ऐंजल निवेशकों, वेंचर कैपिटल फर्मों और स्टार्टअप के लिए वरदान एवं अभिशाप दोनों ही साबित होती रही हैं। ऐसी स्थिति सिर्फ सिलिकन वैली में ही नहीं बल्कि भारत समेत कई दूसरे देशों में भी है।
इसके विनाशकारी पहलू को अक्सर रेखांकित किया जाता रहा है। बिग फोर कंपनियों का विज्ञापन एवं तकनीकी प्लेटफॉर्म पर नियंत्रण है और वे अपने वजूद के लिए अपनी मौजूदगी दर्शाने को निर्भर स्टार्टअप से मोटी फीस वसूलते हैं। लिहाजा अगर एक स्टार्टअप ऐपल या गूगल के प्ले स्टोर पर अपना ऐप दर्ज कराना चाहती है तो उसे अपने तमाम राजस्व का 30 फीसदी हिस्सा इन ऐप स्टोर को देना होता है जो कि मोटा शुल्क है। इसी तरह अगर कोई विक्रेता एमेजॉन पर अपने उत्पाद बेचना चाहता है तो उसे भी भारी शुल्क देना होता है। कई स्टार्टअप एडब्ल्यूएस या माइक्रोसॉफ्ट या गूगल के क्लॉउड टेक प्लेटफॉर्म पर भी अपनी मौजूदगी रखती हैं। वे तकनीक तक पहुंच, सर्च इंजन एवं प्लेटफॉर्म पर नजर आने और विज्ञापन राजस्व के लिए काफी हद तक बिग फोर या कहें कि बिग फाइव पर निर्भर होती हैं।
स्टार्टअप की जिंदगी जोखिम से भरी होती है। बड़ी टेक कंपनियां रातोरात उनके लिए एक दोस्ताना प्लेटफॉर्म की जगह एक बड़ी प्रतिस्पद्र्धी बन सकती हैं। ऐसा विशुद्ध रूप से डिजिटल उत्पाद बनाने वाले स्टार्टअप के मामले में हो सकता है। स्टार्टअप को अचानक ही यह लग सकता है कि उसका प्लेटफॉर्म उसी तरह की सेवा देने लगा है। यहां तक कि एमेजॉन भी अपने प्रतिस्पद्र्धियों के उत्पादों की नकल कर उन्हें कारोबार से बाहर कर चुका है। अगर उसे घाटा हो रहा तब भी वह सस्ते दामों पर सामान बेचता रहता है जब तक कि उसका प्रतिस्पद्र्धी दिवालिया होने की स्थिति में न पहुंच जाए। एमेजॉन एवं डायपर डॉट कॉम की कहानी सबको पता है लेकिन ऐसे मामले असल में बहुत आम हैं।
वैसे इन टेक कंपनियों के कारोबारों पर पड़े वरदान वाले पहलू के बारे में कम चर्चा ही हुई है। सभी बड़ी टेक कंपनियों की अपनी वेंचर कैपिटल फर्में होने के साथ स्टार्टअप को प्रोत्साहन देने वाले इन्क्यूबेटर भी हैं जो दिलचस्प संभावनाओं वाले स्टार्टअप को समर्थन भी देते हैं। इस ढांचागत समर्थन से कई स्टार्टअप का उदय एवं विकास संभव हो पाता है। लेकिन बड़ी टेक कंपनियों की विलय एवं अधिग्रहण इकाइयां असल में वेंचर कैपिटल फर्मों एवं स्टार्टअप के लिए ज्यादा महत्त्वपूर्ण हैं। हर साल ये बड़ी कंपनियां दर्जनों की संख्या में स्टार्टअप का अधिग्रहण करती रहती हैं।
इनमें से कुछ नई कंपनियों को अगर बढऩे का मौका मिला होता तो वे इन दिग्गज कंपनियों की प्रतिस्पद्र्धी बन सकती थीं। मसलन, इंस्टाग्राम खुद एक बड़ी टेक कंपनी बन जाती अगर फेसबुक ने उसे खरीदा नहीं होता। इसी तरह डायपर डॉट कॉम भी एमेजॉन के हाथों न बिकती तो वह उसकी एक प्रतिस्पद्र्धी बन सकती थी। हालांकि बाकी कंपनियां सुरक्षित ठिकानों में काम कर रही हैं और कुछ कंपनियों में अधिग्रहण की प्रक्रिया सिर्फ प्रतिभाशाली इंजीनियरों को काम पर रखने के लिए किया गया है जिसे अक्सर ‘एक्वि-हायर’ रणनीति के रूप में पुकारा जाता है।
इस लिहाज से कई स्टार्टअप एवं वेंचर कैपिटल फर्मों के लिए लक्ष्य यही रहा है कि उन्हें बड़ी टेक कंपनियां अधिग्रहीत कर लें। कुछ वेंचर कैपिटल फर्में एक रोचक सोच वाले उद्यमी को फंड मुहैया कराएगा, जब तक कि वह एक अच्छा उत्पाद न बना ले और 5-10 करोड़ डॉलर राजस्व कमाने लगे ताकि वह किसी दिग्गज कंपनी की नजर में आ सके। यह अधिकांश उद्यमियों एवं वेचर कैपिटल फर्मों के लिए कारोबारी रणनीति रही है। निश्चित रूप से, कुछ स्टार्टअप का प्रारंभिक सार्वजनिक निर्गम (आईपीओ) लाने का बड़ा लक्ष्य होता है लेकिन यह संख्या काफी कम है।
अगर बड़ी टेक कंपनियों का विखंडन होता है और छोटी कंपनियों के अधिग्रहण की उनकी ताकत पर असर पड़ता है तो समूची पारिस्थितिकी में ही बदलाव जरूरी हो जाएगा। इसका यह मायने हो सकता है कि वेंचर कैपिटल फर्में मदद की चाहत रखने वाली फर्मों को लेकर अधिक सतर्क हो जाएंगी लेकिन इसी के साथ वे संभावनाशील स्टार्टअप को कहीं अधिक लंबे वक्त तक और अधिक फंड देने के लिए तैयार होंगी जब तक कि वे अपना आईपीओ लाने की स्थिति में न आ जाएं।
इसका यह मतलब भी हो सकता है कि अक्सर परंपरागत कारोबारी नजरिये को धता बताने वाले और खुद को अधिग्रहीत किए जाने का इंतजार कर रहे स्टार्टअप भविष्य में अपने बरताव में बदलाव ला सकते हैं। अधिग्रहण करने वाले संभावित खरीदानों की सूची बढ़ेगी। मसलन, स्वायत्त मोबिलिटी तकनीक पर काम कर रहीं अधिकांश कंपनियां आज पारंपरिक ऑटो कपनियों के बजाय या तो सिलिकन वैली की दिग्गज कंपनियों के साथ खड़े होना चाहती हैं या फिर उनके हाथों बिकने को तैयार हैं। लेकिन अगर बिग फोर कंपनियों पर कड़ी बंदिशें लगती हैं तो वे दूसरी कंपनियों के लिए कहीं कम प्रतिकूल हो सकती हैं।
एक तीसरी संभावना भी है। सॉफ्टबैंक या अलीबाबा या टेनसेंट जैसी एशियाई दिग्गज कंपनियों का भी उदय हो सकता है जो बिग फोर के दबदबे में दखल देने को तैयार हैं। ऐसा होने पर तकनीक-आधारित दिग्गजों का गढ़ राजनीतिक निहितार्थों के बावजूद सिलिकन वैली के बजाय एशिया में बन सकता है।
जो भी हो, जब यह मामला खत्म होगा तो विश्वास-रोधी मामलों में यथास्थिति बनाए रखने का निर्णय नहीं आने तक स्टार्टअप एवं वेंचर कैपिटल पारिस्थितिकी में नाटकीय बदलाव आ चुका होगा।
(लेखक बिज़नेस टुडे एवं बिज़नेसवल्र्ड के पूर्व संपादक और संपादकीय सलाहकार फर्म प्रोसैकव्यू के संस्थापक हैं)
