अगर आप सोचते हैं कि देश में मौद्रिक नीतियों की कमान भारतीय रिजर्व बैंक के हाथों में है तो शायद वक्त आ गया है कि इस पर एक बार फिर से विचार किया जाए।
सबसे पहले आरबीआई के नए गवर्नर की नियुक्ति पुरानी परंपरा से हटते हुए वित्त मंत्रालय से की गई। उसके बाद एक नई ‘लिक्विडटी कमिटी’ का गठन किया गया जिसकी अध्यक्षता का भार वित्त सचिव को सौंपा गया। अब प्रधानमंत्री के कार्यालय में एक नए आर्थिक सलाहकार की नियुक्ति की गई है जो वित्तीय मामलों के खासे जानकार हैं।
ठीक इसके एक दिन बाद वित्त मंत्री सभी सरकारी बैंकों के प्रमुखों को बैठक के लिए बुलाते हैं जो ब्याज दरों में कटौती के लिए है और बैठक का उद्देश्य क्या है, इसकी घोषणा वह पहले ही कर चुके होते हैं। और तो और बैठक के तत्काल बाद एक बैंक के प्रमुख ने ब्याज दरों में कटौती की घोषणा भी कर दी।
क्या इन घटनाक्रमों के बाद लगता है कि देश में मौद्रिक नीतियों की कमान आरबीआई के हाथों में है? इन्हें देखकर यह कहना गलत नहीं होगा कि मौद्रिक नीतियों के असल नीति निर्माता अब नई दिल्ली के केंद्रीय सचिवालय में बैठते हैं।
वैधानिक रूप से तो मौद्रिक मामलों के अधिकार आरबीआई के पास निहित हैं पर यह बात अब आम हो चुकी है कि असली मोर्चा पी चिदंबरम संभाल रहे हैं। अपने बलबूते पर निर्णय लेने वाले आरबीआई के गवर्नर सेवानिवृत्त हो चुके हैं और वित्त मंत्रालय अब दोबारा से ऐसी स्थितियां उत्पन्न होने देना नहीं चाहता जहां उसके विचारों पर या तो ध्यान नहीं दिया जाता या फिर उन्हें सीधे खारिज कर दिया जाता है।
एक तरफ अर्थशास्त्री और कमिटी अध्यक्ष (रघुराम राजन और पर्सी एस मिस्त्री) हैं जिनका कहना है कि आरबीआई को महंगाई से निपटने के लिए पश्चिमी नक्शे कदम पर चलना चाहिए। वे नहीं चाहते कि मुद्रा बाजार में मुद्रा की गतिविधि को सुचारू बनाने के लिए केंद्रीय बैंक हस्तक्षेप करे।
वे चाहते हैं कि आरबीआई पूंजी खाता परिवर्तनीयता के लिए तत्काल कदम उठाए और ऐसे प्रयास करे ताकि वैश्विक वित्तीय बाजारों के साथ जुड़ाव और गहरा हो सके। पिछले एक साल से अधिक के दौरान कुछ अर्थशास्त्री मीडिया के जरिए आरबीआई के पूर्व गवर्नर डॉक्टर रेड्डी पर लगातार आरोप लगाते रहे हैं कि वह कई मामलों में अनभिज्ञ रहे और उन्होंने सही कदम नहीं उठाए।
आरबीआई की नीतियों का यह कह कर विरोध किया जाता रहा है कि इनसे महंगाई बढ़ी है, विकास दर धीमी हुई है, मुद्रा में उतार चढ़ाव बढ़ा है और साथ ही वित्तीय क्षेत्र का विकास थम गया है। डॉक्टर रेड्डी के बचाव में यह तर्क भी दिया जाता है कि आरबीआई के मुद्रा बाजार में हस्तक्षेप की वजह से ही देश में विदेशी मुद्रा की स्थिति मजबूत बनी हुई है।
इस समूह का तो मानना है कि इसे रेड्डी का एहसान ही मानना चाहिए कि उन्होंने जैसा सही समझा वैसा किया और आरबीआई को निर्णय लेने के मोर्चे पर मजबूत बनाया।
पर अब रेड्डी के पद पर नहीं रहने से चिदंबरम को यह आजादी मिल गई है कि वे अपने फैसलों को थोप सकें और उनके पद पर नहीं रहने से उन अर्थशास्त्रियों को भी खुशी होगी जो वैश्विक वित्तीय एकता की विचारधारा में यकीन रखते हैं।