श्रीमान प्रदीप कुकरेजा इन दिनों बहुत खुश हैं। उनके बैंक ने ब्याज पर जमा दरें बढ़ा दी हैं। इस कारण उन्होंने हाल में परिपक्व हुई अपनी सावधि जमा योजना में निकासी के बजाय उसे फिर से दो वर्षों के लिए जमा करा दिया। इस बार उन्हें 6 प्रतिशत का ब्याज मिलेगा। चूंकि उन्होंने संचयी ब्याज अर्जित करने को प्राथमिकता दी तो इस वर्ष के लिए उनकी वास्तविक आय लगभग 6.14 फीसद रहेगी। इसका अर्थ होगा कि उनके सौ रुपये एक साल बाद 106.14 रुपये हो जाएंगे। सही कहा ना! बिल्कुल गलत। दरअसल उनकी वार्षिक आय 10 लाख रुपये से अधिक है तो उन्हें अर्जित ब्याज पर 30 प्रतिशत का कर अदा करना होगा। यानी उनकी कुल आय 104.30 रुपये होगी। सही? जी नहीं, एक बार फिर से गलत। चालू वित्त वर्ष में मुद्रास्फीति के 6.7 फीसदी रहने के आसार हैं तो 100 रुपये पर 6.14 प्रतिशत ब्याज के बावजूद उनकी वास्तविक आय 97.60 रुपये ही होगी। इस प्रकार देखा जाए तो कुकरेजा और भारतीय बचतकर्ता समुदाय के लिए ऊंची मुद्रास्फीति के कारण मुद्रा की वैल्यू (हैसियत) घट रही है। वहीं मुद्रास्फीति के खिलाफ मोर्चा संभालने के लिए रिजर्व बैंक ने जून तिमाही में नीतिगत ब्याज दरों में 0.9 प्रतिशत की बढ़ोतरी की है। इसके बाद बैंकों ने अपने ऋण और जमा दोनों की दरों में इजाफा कर दिया है।
मुद्रास्फीति की मार जिस प्रकार मुद्रा की हैसियत पर ग्रहण लगा रही है, उससे हर किसी के जेहन में ‘वास्तविक’ ब्याज दरों की बात चल रही है। यही कि सरकार की छोटी बचत योजनाओं से लेकर बैंक जमाओं और अन्य बचत योजनाओं पर जमाकर्ताओं को कितना ब्याज मिले? वैसे तो वास्तविक ब्याज दरें अर्थव्यवस्था की स्थिति पर निर्भर करती हैं, लेकिन हम वास्तविक दरों का आकलन कैसे करें? परिभाषा तो यही कहती है कि मुद्रास्फीति समायोजन के उपरांत जमाकर्ता की अपेक्षित ब्याज दर ही वास्तविक दर होती है। वहीं फिशर इक्वेशन की बात करें तो नॉमिनल ब्याज दरों में से मुद्रास्फीति दर को घटाने के उपरांत जो परिणाम प्राप्त होता है, वही वास्तविक ब्याज दर है।
यह ठीक है, लेकिन वास्तविक ब्याज दरों के आकलन के लिए आदर्श आधार या पैमाना क्या हो? क्या यह बैंक जमा दरों का होना चाहिए? अगर वास्तव में ऐसा है तो क्या हमें यह देखने की आवश्यकता है कि आयकर भुगतान के बाद कोई कितना कमा रहा है? यदि बैंक जमा दरें नहीं तो क्या यह पैमाना केंद्रीय बैंक की नीतिगत दरों का होना चाहिए? या फिर दस-वर्षीय बॉन्ड प्रतिफल (यील्ड)? या फिर एक वर्षीय ट्रेजरी बिल का प्रतिफल?
ऊंची मुद्रास्फीति दर के कारण तकरीबन पूरी दुनिया में ऋणात्मक वास्तविक दरों का दौर चल रहा है, जहां मुद्रा (पैसों) की हैसियत घटती जा रही है। जहां तक भारत की बात है तो यहां भी ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है कि जमाकर्ता यह देख रहे हों कि उनके पैसों की क्रय शक्ति कमजोर हो रही है। वर्ष 2013 में जहां मुद्रास्फीति कई महीनों तक दो अंकों में रही तो वास्तविक ब्याज दरें ऋणात्मक हो गई थीं। वर्ष 2012 से 2014 के बीच तीन वर्षों तक औसत मुद्रास्फीति दर 8.22 प्रतिशत रही थी, जिसने जमाकर्ताओं के लिए वास्तविक ब्याज दरों को ऋणात्मक बना दिया था।
आरबीआई के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने वास्तविक ब्याज दरों को 1.5 से 2 प्रतिशत के दायरे में रखने की बात कही थी। वर्ष 2015 में उन्होंने सुझाया था कि वास्तविक ब्याज दरों के आकलन के लिए एक वर्षीय ट्रेजरी बिल प्रतिफल को पैमाना बनाया जा सकता है। हालांकि उन्होंने यह भी स्पष्ट किया था कि नैसर्गिक वास्तविक दरें एक गतिशील मामला है और यह अर्थव्यवस्था की तात्कालिक स्थिति पर निर्भर करता है। बहरहाल वर्तमान परिदृश्य में वास्तविक ब्याज दरें 1.5 से 2 फीसदी के दायरे में होनी चाहिए।
यदि हम एक वर्षीय ट्रेजरी बिल यील्ड को पैमाना मानें तो इस हिसाब से हमें 0.56 प्रतिशत (6.7 प्रतिशत माइनस 6.14 प्रतिशत=0.56 प्रतिशत) की ऋणात्मक दर प्राप्त होती है। यह स्तर कुछ समय तक ऐसे ही कायम रहेगा। जहां नीतिगत दरें आरबीआई की नीति-निर्धारक इकाई द्वारा तय की जाती हैं, वहीं ट्रेजरी बिल प्रतिफल वित्तीय तंत्र में तरलता और विदेशी मुद्रा प्रवाह जैसे कई पहलुओं पर निर्भर करता है।
इस साल मॉनसून को सामान्य मानते हुए और कच्चे तेल की कीमतों को औसतन 105 डॉलर प्रति बैरल मानते हुए आरबीआई ने चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही के लिए मुद्रास्फीति का अनुमान 7.5 प्रतिशत, दूसरी तिमाही के लिए 7.4 प्रतिशत, तीसरी तिमाही के लिए 6.2 प्रतिशत और चौथी तिमाही के लिए 5.8 प्रतिशत लगाया है। इस साल फरवरी में उसने चालू वित्त वर्ष के लिए औसत मुद्रास्फीति दर के 4.5 प्रतिशत रहने का अनुमान व्यक्त किया था। रूस-यूक्रेन युद्ध ने उसका गणित बिगाड़ दिया, जिसके कारण तेल सहित तमाम वस्तुओं के दाम बढ़ गए। इसने आरबीआई को अप्रैल में अपना अनुमान बढ़ाकर 5.7 प्रतिशत और जून में उसे और बढ़ाकर 6.7 प्रतिशत करने पर विवश कर दिया। हालांकि आरबीआई के डिप्टी गवर्नर माइकल पात्र ने कहा है कि हम दो वर्षों के भीतर मुद्रास्फीति को अपनी लक्षित सीमा के दायरे में लाने में सक्षम होंगे।
खुदरा मुद्रास्फीति की बात करें तो खुद आरबीआई के अनुसार इस साल जनवरी से ही वह उसके अनुमान के ऊपरी दायरे पर चल रही है और इस सिलसिले के दिसंबर तक इसी तरह जारी रहने के आसार हैं। इसका अर्थ यही होगा कि केंद्रीय बैंक को सरकार को यह समझना होगा कि वह लगातार तीन तिमाहियों तक लक्ष्य हासिल करने में क्यों नाकाम रहा। यह सब अभी भविष्य के गर्भ में है और फिलहाल हम यही उम्मीद कर सकते हैं कि लचीले मुद्रास्फीति लक्ष्य की नियति राजकोषीय उत्तरदायित्व एवं बजट प्रबंधन (एफआरबीएम) अधिनियम जैसी न हो जाए, जिसे बनाया तो राजकोषीय घाटे को अनुशासित करने के लिए गया था, लेकिन उसमें समय-समय पर सुविधानुसार छूट ली जाती रही। आशा करें कि मुद्रास्फीति लक्ष्य का वैसा हश्र नहीं होगा, फिर भी कुछ प्रश्न जरूर सामने आते हैं। यही कि बचतकर्ताओं का यह बुरा वित्तीय दौर कितना लंबा चलेगा और हम उनकी भरपाई कैसे करें? असल में वास्तविक दरों को धनात्मक दायरे में लाने का एकमात्र विकल्प मौद्रिक सख्ती ही है। उससे बचना का कोई रास्ता नहीं।
अन्यथा भारत की सकल बचत दर निरंतर गिरावट की राह पर होगी। वित्त वर्ष 2018 में जीडीपी के अनुपात में 32.07 प्रतिशत का स्तर छूने के बाद से उसमें लगातार गिरावट का रुख बना हुआ है। वित्त वर्ष 2021 में यह 28.24 के स्तर पर पहुंच गई, जबकि एक दशक पहले यह 36.9 प्रतिशत थी। इसमें कोई संदेह नहीं कि निवेश वृद्धि को तेजी देता है, लेकिन जब ऋणात्मक ब्याज दरों के दौर में बचत के लिए किसी प्रोत्साहन के अभाव में बचत का दायरा ही सिकुड़ता रहेगा तो निवेशकों को कहां से कोष उपलब्ध हो पाएगा? दूसरे शब्दों में कहें तो ऋणात्मक ब्याज दरों का दौर निवेशकों को जोखिम भरी परिसंपत्तियों की ओर उन्मुख करने पर तुला है। साथ ही चालू खाते के घाटे को बढ़ाकर वृहद आर्थिक स्थायित्व के लिए खतरा भी उत्पन्न कर रहा है।
