अमेरिका की तरह भारत में भी मंदी का शैतान अब अपना असर दिखाने लगा है। आज बाजार के कई हिस्सों पर इसका असर साफ दिखाई देने लगा है।
अब शेयर बाजार में गिरावट को ही ले लीजिए। वैसे, औसत प्राइस-अर्निंग रेश्यो अब भी 12 फीसदी के आस-पास है। 2002-03 में यह इतने ही स्तर पर हुआ करता था, इसलिए इसमें अब भी गिरावट की गुंजाइश है। करेंसी मार्केट में भी डॉलर आज 50 रुपये के स्तर पर टिका हुआ है।
लेकिन आज हम विदेशी संस्थागत निवेशकों द्वारा की जा रही बिकवाली के आखिरी दौर से गुजर रहे हैं। जैसे ही इस मोर्चे पर दबाव थोड़ा कम होगा, रुपया खुद-ब-खुद स्थिर हो जाएगा।जहां तक मनी मार्केट की बात है, तो यहां भी अलग-अलग सेक्टरों को दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है।
लेकिन अच्छी बात यह है कि यहां कर्जों का प्रवाह आज भी 29 फीसदी के स्तर पर है। महंगाई की गिरती दर को देखते हुए ब्याज दरें काफी ज्यादा लग रही हैं। लेकिन कॉल रेट्स के गिरने के बावजूद आम कर्ज दरों की जस की तस हालत में रहने की वजह से बैंकरों के दिमाग में अपने ऋणों पर खतरे की घंटी महसूस हो रही है।
इससे मंदी का खतरा साफ नजर आ रहा है। साथ ही, संसद ने भी उर्वरक और तेल कंपनियों के बकाये का भुगतान कर दिया है। ऊपर से, सिंतबर खत्म होने के साथ ही टैक्स से मिले पैसों के सरकारी मशीनरी में आने के साथ ही पूंजी प्रवाह की हालत में सुधार आने की उम्मीद है।
वैसे, म्युचुअल फंडों और गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी) को राहत देने के लिए खास कदमों की जरूरत होगी। हालांकि, बैंकों को एनबीएफसी पर जल्द भरोसा नहीं होने वाला। इसीलिए तो आज से छह महीने के बाद बाजार में भरपूर मात्रा में पूंजी होगी, लेकिन उसका इस्तेमाल करने वाला कोई नहीं होगा।
इसीलिए तो आज खतरा वित्तीय संकट का नहीं, बल्कि एक निराशा भरे दौर का है। इसकी वजह काफी हद तक पिछले हफ्तों की गिरावट है। कंपनियों के दूसरी तिमाही नतीजे भी इस बात की तरफ इशारा कर रहे हैं।
ज्यादातर कंपनियों के मुनाफे में गिरावट आई है। साथ ही, उनके मुनाफे के बढ़ने की दर भी कम होकर इकाई के आंकड़े में आ गई है। हालांकि, नतीजों की तरफ गौर से देखें तो पिछले वित्तीय वर्ष की दूसरी तिमाही में कुल बिक्री की तुलना में शुध्द मुनाफा 15 फीसदी का था, जो इस साल घटकर 12 फीसदी पर आ चुका है।
इसे बुरा तो कतई नहीं कहा जा सकता है। हकीकत में तो यह हिंदुस्तानी मानदंडों के हिसाब से काफी बेहतर है। इसलिए असली खतरा कुछेक सेक्टरों में ही है।एक स्तर पर मंदी की चाबुक की मार टाटा स्टील, हिंडाल्को और इसी तरह की दूसरी बड़ी-बड़ी कंपनियों को भी झेलनी पड़ी है।
इसके बावजूद कीमतें आज भी काफी ज्यादा हैं। खुदरा कर्जों में आई बेतहाशा तेजी ने लोगों की खरीदने की ताकत को बढ़ा दिया। लेकिन मंदी की मार की वजह से अब पुराने दिन नहीं रहे। इसकी सबसे ज्यादा असर ऑटोमोबाइल और दूसरे सेक्टरों पर पड़ेगी।
रियल एस्टेट को भी मंदी का सामना करने पड़ रहा है। इस सेक्टर में काम करने वाली कंपनियों को काफी गहरी चोट लगी है। असल में कई सेक्टरों में पूंजी की दरकार है, जबकि सरकार सब्सिडी में इजाफा होने से बुनियादी ढांचे में खर्च करने में सक्षम नहीं रह गई है।
एयरलाइंस कंपनियां अपने पांव काफी फैला चुकी हैं और अब उन्हें अपने विस्तार को समेटने की जरूरत है। इसमें ज्यादातर दिक्कतें अपनी हैसियत को भूलकर अपने पांव फैलाने की वजह से पैदा हुईं हैं। इसे इसी तरह से देखने की जरूरत है। निर्यात पर भी असर तो पड़ेगा ही।
बड़ी बात यह है कि अब नीति-निर्धारकों को मंदी के असर को कम से कम करने की तरफ ध्यान देना चाहिए। हमारा सुझाव होगा, सस्ते कर्ज।