औद्योगिक देशों में और खास तौर पर अमेरिका में वर्तमान वित्तीय संकट ने पूंजीवाद और इसके ऐंग्लो-सैक्सन रूप की बाबत बुनियादी सवाल खड़े किए हैं, जिसने वित्त की स्थिति और इसकी भूमिका बढ़ा दी थी।
लंदन स्थित फाइनैंशियल टाइम्स ने पिछले कई महीने से पूंजीवाद के भविष्य पर सीरीज चला रखी है और दुनिया के अग्रणी अर्थशास्त्रियों व दूसरे बुध्दिजीवियों ने इस विषय को काफी महत्त्व दिया है। वैश्विक स्तर पर होने वाले कॉन्फ्रेंस-सेमिनार में संकट के अंतरावलोकन और इसके आउटलुक पर चर्चा हो रही है।
अंतरराष्ट्रीय मौद्रिक और वित्तीय व्यवस्था में आरंभिक सुधार अब धीरे-धीरे रफ्तार पकड़ रहा है। ऐसे में इस विचार से बाहर निकलना मुश्किल है कि संकट वैसे चीरफाड़, व्यवधान का प्रतिनिधित्व करता है जो भूत के मुकाबले भविष्य को कम पहचान वाले रूप में परिवर्तित कर देगा।
आश्चर्यजनक रूप से भारत समेत उभरते हुए बाजार में पूंजीवाद की बाबत चिंता नहीं है और बाजार की भूमिका पर भी कोई गंभीर सवाल नहीं है। ऐसा नहीं है कि ये देश संकट से प्रभावित नहीं हुए हैं। वास्तव में सभी देशों (अमीर और गरीब) ने अपने आपको एकसमान वित्तीय आंधी में घिरा पाया है ( एक जहाज पर न भी सवार हों तो भी) और प्रभाव वास्तविक रहा है।
इसके साथ ही संकट पर गंभीर चर्चा और छोटी अवधि में इससे निपटने के लिए उठाए गए कदमों के प्रभाव पर भी बहस हो रही है। लेकिन पूंजीवाद की वापसी या इसके खिलाफ वास्तविक कदम पर कोई गंभीर चर्चा नहीं हो रही है, संरक्षणवादी अवरोध या अर्थव्यवस्था के पुनर्राष्ट्रीयकरण पर भी बहस नहीं हो रही।
ज्यादा आश्चर्यजनक ये है कि उभरते हुए बाजार में आए विदेशी पूंजी के प्रवाह को रोकने की बात नहीं हो रही है, जो कि तार्किक रूप से इस संकट के केंद्र में रहा था। संकट ने इस दावे को खोखला साबित कर दिया है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था एक दूसरे से जुड़ी हुई (डीकपल्ड)नहीं है। लेकिन इसने नीतिगत बहस और दीर्घकालिक नीतिगत पसंद में डीकपलिंग पर जोर दिया है।
यह डीकपलिंग क्या है? पहला, यह संकट अमेरिका से शुरू हुआ और कुछ हद तक यूरोप में भी। बाकी दुनिया इससे प्रभावित हुई और कुछ मामलों में यह काफी गंभीर था। लेकिन यह भी सच है कि मूल रूप से यह पाप केंद्र में किया गया न कि घेरे में, इसलिए इस बात की कम संभावना है कि इससे यह फैला होगा।
और कई उभरते हुए बाजार वाले देश में खास तौर पर एशिया और लैटिन अमेरिका के हिस्से में (उदाहरण के तौर पर ब्राजील और चिली) अच्छे आर्थिक मैनेजमेंट की बदौलत यह संकट कम प्रभाव डाल पाया यानी कम प्रभावित रहा। साथ ही ये देश इसके बुरे प्रभाव को दूर करने में कामयाब रहे।
दूसरा, इस बहस का एक विवादास्पद पहलू अमेरिका के लिए नया है, लेकिन विकासशील देशों के लिए उतना नहीं। यह संकट एक तरह से बुध्दिजीवियों को जगाने के लिए है या एक तरह से अमेरिका के लिए आकाशवाणी। इसने यह पहचानने के लिए बाध्य किया कि कंजूस राजनीतिक अर्थव्यवस्था न सिर्फ गरीब देशों पर लागू होती है बल्कि यह उनके ऊपर भी लागू होता है।
इस संकट से पहले बातचीत का दायरा वित्तीय घेरे में था, जैसा कि कॉलेटरल ऋण दायित्व और दूसरी आकर्षक चीजों में देखी गई, और यह हमेशा से राजनीतिक की बजाय तकनीकी रही थी। लेकिन हाल के योगदान ने इसमें बदलाव ला दिया।
एमआईटी के सिमोन जॉनसन ने थोड़े लोगों द्वारा शासन करने वाले राज्य के वित्त के बारे में लिखा है जो कि इस संकट के संवेदनशील हल को लागू करने में अवरोध खड़ा करते हैं। इस बाबत एक दशक पहले जगदीश भगवती ने भी चिंता जताई थी कि वॉल स्ट्रीट ट्रेजरी कॉम्पलेक्स विकासशील देशों को पूंजी खाते के उदारीकरण की तरफ धकेल रहे थे।
हार्वर्ड विश्वविद्यालय के डैनी रॉड्रिक ने बुध्दिजीवियों की उस भूमिका पर सवाल उठाया है जिसमें ये बुध्दिजीवी विश्वास की ऐसी व्यवस्था बना रखी है जिसमें वित्त की भूमिका बदल गई है। पेंसिलवानिया विश्वविद्यालय के देवेश कपूर ने इसे और आगे बढ़ाया है और तर्क दिया है कि वित्तीय क्षेत्र के साथ अकादमी समझौता कर चुके हैं।
ये सारे योगदान अमेरिका में मशहूर हो चुकी राय को आगे बढ़ा रहे हैं कि यह संकट सिर्फ ईमानदारी का मामला नहीं है बल्कि नीति निर्माताओं की वैसी गलतियों की वजह से है जिसे टाला जा सकता था। धीरे-धीरे यह अहसास किया जा रहा है कि निदान संबंधी मामला वॉल स्ट्रीट और सरकार के बीच ही होनी चाहिए, जिसका कि वित्तीय क्षेत्र पर प्रभाव रहता है।
विकासशील देश काफी लंबे समय से पूंजीवाद के साथ जी रहे हैं और यही उनके जीवन का सच है और उनके अंडर डिवेलपमेंट की स्थिति के पीछे भी यही वजह है। अमेरिका भी इस मामले में विकासशील देश हो सकता है और इस सवाल को ज्यादा दिन तक नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
तीसरा ये कि डीकपलिंग एक ऐसे बड़े सवाल से जुड़ता है जो कि कोर देशों में पैदा हुए संकट से निकला है : राज्य की भूमिका और राज्य व बाजार के बीच उपयुक्त सीमा रेखा, खास तौर पर वित्तीय क्षेत्र के संबंध में। उभरते हुए बाजार में, खास तौर से जो कामयाब रहे हैं मसलन चीन और भारत, सामान्य तौर पर वहां यह मुद्दा नहीं है।
इस तरह से अभी भी यह बाजार के मुकाबले राज्य का पक्ष लेता है और वित्तीय क्षेत्र में ज्यादातर ऐसा ही होता है। इन दोनों देशों में बैंकिंग व्यवस्था के तहत संपत्ति और दायित्व का नियंत्रण अब भी सरकार के हाथ में है। मुद्दा यह नहीं है कि कैसे राज्यों के चंगुल से यह भूमिका वापस हो और कैसे इन दोनों देशों धीरे-धीरे राज्य की भूमिका उचित तरीके से कम हो जैसा कि पिछले दो दशकों से यहां जारी है।
उदाहरण के तौर पर भारत में इस संकट से सिर्फ निजी बैंक ही प्रभावित हुए हैं क्योंकि उसी ने ऐसे जहरीली संपत्ति में सौदा करना मंजूर किया जिसने पश्चिमी देशों के वित्तीय बाजार में तबाही मचाई थी। इसके परिणामस्वरूप सुरक्षा कारणों से पब्लिक सेक्टर बैंकों में जमाओं में बढ़ोतरी हो गई।
विकासशील देशों की बड़ी चुनौतियां राज्य-बाजार की सीमा नहीं हैं बल्कि सवाल ये है कि राज्यों में किस तरह का सुधार हो ताकि वह कानून-व्यवस्था, सुरक्षा, अन्य आवश्यक सेवाएं मसलन स्वास्थ्य, जल, शिक्षा आदि बेहतर तरीके से मुहैया करा सके। संकट से पहले भी ऐसा ही था और बाद में भी यह सच्चाई कायम रहेगी।
(लेखक पीटरसन इंस्टिटयूट फॉर इंटरनैशनल इकनॉमिक्स ऐंड सेंटर फॉर ग्लोबल डिवेलपमेंट के सीनियर फेलो हैं और जॉन्स हॉपकिंस यूनिवर्सिटी के सीनियर रिसर्च प्रोफेसर हैं।)
