कई देशों में सांविधिक नियामकीय प्राधिकार अब सरकार के लिए अहम संगठनात्मक प्रणाली हैं। विधायी, कार्यपालिका और न्यायिक शाखाओं के अलगाव से उन्हें एक एजेंसी यानी एसआरए में एकजुट करना सरकार की पारंपरिक कार्यशैली में एक अहम बदलाव है। हालांकि एसआरए ने कई मायनों में मूल्यवर्द्धन किया है लेकिन उनके सामने जवाबदेही और शक्तियों के अत्यधिक केंद्रीकरण के भी प्रश्न हैं। जब ऐसा अस्वाभाविक संगठन आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र में बनता है तो इसके कामकाज को लेकर जागरूकता आवश्यक है। बहरहाल, एसआरए का आकलन फिर भी मुश्किल है।
सामान्य दिनों में नियामकों की यह कहकर आलोचना की जाती है कि वे अतिनियमन करते हैं। कठिन समय में कहा जाता है कि वे कम नियमन कर रहे हैं। किसी एक नियामकीय नाकामी को बढ़ाचढ़ाकर एसआरए के समग्र प्रदर्शन से जोड़ने की प्रवृत्ति होती है। एसआरए के अधिकारी नियमित रूप से अधिक शक्ति चाहते हैं और उनमें भी बढ़ाचढ़ाकर दावे करने की प्रवृत्ति होती है। नियामकीय हलकों से उन्हें सराहना मिलती है और व्यापक समुदाय उन्हें आशंका की नजर से देखता है। एसआरए की जो सफलताएं सुर्खियों में नहीं आ पाती हैं वे यही हैं कि वे आर्थिक वृद्धि की बुनियाद रखते हैं और संकट से बचाव करते हैं।
सन 2001 में मार्च/अप्रैल 2001 में शेयर बाजार में व्याप्त संकट की जांच के लिए एक संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) का गठन किया गया था। जेपीसी की रिपोर्ट दिसंबर 2002 में संसद में पेश की गई। इस रिपोर्ट में कहा गया, ‘नियामक प्राय: अनुपस्थित पाये गए और वे निवेशकों में भरोसा भी नहीं पैदा करते।’ सन 1992 में भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड की स्थापना से लेकर 2001 तक का समय सुधारों के लिए स्वर्णिम अवधि थी और इसी दौरान आधुनिक वित्तीय बाजार व्यवस्था की आधारशिला रखी गई। इस पर जनता का ज्यादा ध्यान नहीं गया क्योंकि इसने आम आदमी की जिंदगी को प्रभावित नहीं किया। हालांकि जेपीसी की बात अखबारों की सुर्खियां अवश्य बनी।
एसआरए के काम का बेहतर आकलन कैसे हो ताकि उनके काम में सुधार के लिए आवश्यक प्रतिपुष्टि हासिल की जा सके? सन 2013 में वित्तीय क्षेत्र विधायी सुधार आयोग (एफएसएलआरसी) ने एक औपचारिक प्रणाली की अनुशंसा की जहां नियामकों का आकलन समीक्षा समिति के माध्यम से किया जा सके। इस समिति में नियामक के संचालन बोर्ड के गैर कार्यकारी सदस्य होने थे। देश में कारोबारी सुगमता के लिए नियामकीय माहौल सुधारने संबंधी समिति ने अनुशंसा की थी कि हर नियामक को तीन वर्ष में एक बार स्वआकलन करना चाहिए तथा निष्कर्षों को सार्वजनिक करना चाहिए ताकि सार्थक चर्चा और बहस हो सके।
प्रदर्शन का ऐसा आकलन जटिल हो सकता है। आमतौर पर नियामकों का काम प्रत्यक्ष रूप से सामने नहीं आता। उनका काम संस्थाओं और बाजारों के नियमन का है और यह काम कई बाह्य कारकों से प्रभावित होता है। इनमें से कई उनके नियंत्रण से बाहर हैं और उनके प्रयासों के साफ नतीजे सामने आने में कई वर्षों का समय भी लग सकता है। इसके लिए जरूरी आंकड़े आसानी से उपलब्ध नहीं भी हो सकते हैं। हमारे ज्ञान के क्षेत्र में मौजूद कौशल में शायद नियामकों के आकलन की क्षमता न हो। विविध नियामक जिन क्षेत्रों में काम करते हैं उनके कई विशिष्ट गुण होते हैं। नियामकीय आकलन की एक व्यवस्थित नीति तीन मानकों के इर्दगिर्द बनायी जा सकती है: संचालन, प्रक्रिया और नतीजे।
तब हम प्रणालियों का रुख करते हैं। यह कैसे किया जाना चाहिए? किसी को अपने काम का आकलन स्वयं नहीं करना चाहिए। यह सिद्धांत सरकारी एजेंसियों पर भी लागू होता है। विधायिका और एसआरए के बीच एक प्रिंसिपल और एजेंट का रिश्ता है। प्रिंसिपल को एसआरए के काम का आकलन करना चाहिए। यह आकलन उस प्रणाली के माध्यम से किया जा सकता है जो एसआरए से अलग हो।
करीब 22 वर्ष पहले भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण तथा कुछ राज्यों के बिजली नियामकों का अंकेक्षण करने के बाद सीएजी ने नियामकीय संस्थाओं के अंकेक्षण के दिशानिर्देश जारी किए थे।
ये दिशानिर्देश कहते हैं कि अंकेक्षण का काम प्रासंगिक कानूनों के अनुसार बने प्रावधानों के तहत होना चाहिए। सीएजी को जहां नियामकों का अंकेक्षण करने के लिए भरपूर क्षमताएं विकसित करनी हैं वहीं अब तक ऐसा देखने को नहीं मिला है। भारत के मौजूदा परिदृश्य में इसका स्वाभाविक विकल्प निष्पक्ष शोध संस्थान हैं।
इसका एक तार्किक विकल्प है आकलन का चक्र स्थापित करना जहां आकलन की संदर्भ शर्तों पर संसद की प्रासंगिक स्थायी समिति द्वारा चर्चा की जाए। इसके बाद एक बाहरी शोध संस्थान को आकलन का कार्य सौंपा जाता है और रिपोर्ट को वापस संसद की स्थायी समिति के पास भेजा जाता है। यहां संसद और नियामक के बीच एजेंसी के रिश्ते पर जोर दिया जाता है और नियामकीय सुधार के लिए आवश्यक संशोधन किए जाते हैं।
इसका एक हिस्सा एक तय अवधि में नियामक के कार्यों का आकलन करने से संबंधित है। दूसरा हिस्सा विनियिमित लोगों की गोपन अवधारणाओं के आकलन से संबंधित है। एक निजी संस्थान को एक पूर्ण गोपनीय सर्वेक्षण करना होता है जिसमें यह आकलन किया जाता है कि विनियमित व्यक्ति नियामक के कदमों और प्रक्रिया को कैसे देखता है।
संसद और नियामकों ने देश में नियमन के उभरते परिदृश्य में इस अंतर को लेकर प्रतिक्रिया देना शुरू कर दिया है। यहां एक अहम मील का पत्थर है देश के वित्तीय क्षेत्र के एसआरए को लेकर बना कानून।अंतरराष्ट्रीय वित्तीय सेवा केंद्र प्राधिकार अधिनियम 2019 के तहत प्राधिकारियों को एक प्रदर्शन समीक्षा समिति बनानी होती है ताकि उनके प्रर्दशन का सालाना आकलन किया जा सके।
इसी प्रकार ऋणशोधन अक्षमता एवं दिवालिया संहिता (2016) के तहत एक अन्य युवा नियामक भारतीय ऋणशोधन अक्षमता एवं दिवालिया बोर्ड (आईबीबीआई) की निगरानी के लिए बनाए गये नियमों में यह प्रावधान है। इस नियम के तहत आईबीबीआई अपने लक्ष्यों और अधिदेशों को ध्यान में रखते हुए प्रभाव और किफायत का आकलन करता है। इस दौरान वह अपने संसाधनों, सेवाओं और शक्तियों को भी ध्यान में रखता है और प्रदर्शन आकलन को सालाना रिपोर्ट में जगह देता है।
बीते एक वर्ष के दौरान आईबीबीआई देश का पहला एसआरए बन गया है जिसने अपनी नियामकीय भूमिका का स्वतंत्र आकलन कराया है। इस प्रक्रिया में उसने अन्य एसआरए के लिए मानक तय किया है कि वे भी अपने नियामकीय प्रदर्शन का ऐसा ही आकलन बाहरी शोध संस्थाओं से कराएं। इसके नतीजों ने आईबीबीआई के नेतृत्व को यह विचार करने का अवसर दिया है कि वे संस्थान को कैसे मजबूत करें। यह देश में नियमन की राज्य क्षमता के उभार को लेकर एक अहम मील का पत्थर है।
(लेखक सीपीआर में प्राध्यापक और पूर्व अफसरशाह हैं)
