मारुति सुजूकी के चेयरमैन आर. सी. भार्गव ने आईआईएम रिव्यू कमेटी की रिपोर्ट हाल ही में पेश की है। भार्गव रिव्यू कमेटी के चेयरमैन भी हैं। वह रिपोर्ट में अपनी सिफारिशों को जायज ठहरा रहे हैं। इसी बाबत हमारे संवाददाता लेस्ली डिमोंटी ने उनसे बातचीत की। पेश हैं बातचीत के प्रमुख अंश
आपको इस रिपोर्ट को पूरा करने में कितना वक्त लगा?
हमने पिछले साल अक्टूबर में ही प्रक्रिया शुरू कर दी थी। कुल मिलाकर इसमें एक साल का वक्त लग ही गया। हमने जरूरी लोगों के साथ मिलकर 12 से 15 बैठकें कीं।
इसके बाद मैंने रीडिफ के चैयरमैन और सीईओ अजित बालाकृष्णन के साथ मिलकर ही रिपोर्ट का ज्यादातर हिस्सा टाइप किया। हमने प्रश्नावली को सभी आईआईएम में भेजा, फैकल्टी सदस्यों को भिजवाया, पूर्व छात्रों के पास और पूर्व चेयरमैन के पास भेजा। इस पूरी कवायद का इतना ही मकसद था कि हम इन सभी को आश्वस्त करना चाहते थे कि हम एक हम अलग-अलग विचारों को बड़े पैमाने पर इसमें शामिल कर रहे हैं।
लेकिन एक पैन आईआईएम बोर्ड बनाने पर आपत्ति भी तो उठी थी?
मुझे यह समझ नहीं आया कि इस बात पर क्यों आपत्ति उठी। आईआईएम बोर्ड के मौजूदा चेयरमैन को भी सरकार ने ही नियुक्त किया है लेकिन इसमें आईआईएम बोर्ड से मशविरा नहीं लिया जाता। हमने यही सिफारिश की है कि इस तरह की नियुक्तियों से पहले आईआईएम बोर्ड से सलाह मशविरा जरूर किया जाना चाहिए।
हमने यह भी सुझाव दिया है कि पदों का सृजन भी आईआईएम बोर्ड को करना चाहिए। हमने तो यहां तक प्रस्ताव रखा कि संसाधनों के उपयोग और सीटों के विस्तार में भी आईआईएम बोर्ड की सलाह ली जानी चाहिए। हमें लगा कि आईआईएम पर सरकारी नियंत्रण न होकर बोर्ड का नियंत्रण हो और वही इनका प्रबंधन भी करे।
हमने यह भी स्पष्ट तौर से कहा है कि अकादमिक संस्थानों में वित्तीय और प्रशासनिक अधिकार बोर्ड के ही पास होने चाहिए न कि सरकार के पास। लेकिन यह भी सच है कि हमने आईआईएम को एक निजी संस्थान की तरह लचीला बनाने की बात भी की लेकिन इसका मकसद इन संस्थानों की लोक संस्थानों वाली छवि को नुकसान पहुंचाना नहीं था बल्कि हम इनकी लोक सस्थानों वाली छवि के साथ ही इनमें निजी संस्थान वाले लचीलेपन के समर्थक हैं।
आपने अपनी रिपोर्ट में यह भी संकेत किया है कि आईआईएम को अपने मुख्य काम पर ज्यादा ध्यान लगाना चाहिए। आईआईएम के ज्यादातर मैनेजमेंट डेवलपमेंट प्रोग्राम (एमडीपी) सार्वजनिक उपक्रमों के जूनियर एक्जीक्यूटिव के लिए तैयार किए गए हैं। आईआईएम सीनियर मैनेजरों के लिए भी बहुत कुछ कर सकते हैं। डेवलपमेंट प्रोग्राम ही आईआईएम और फैकल्टी के लिए फंड जुटाने का काम करते हैं। आईआईएम, बेहतरीन एमबीए कोर्स और अध्यापन से अपनी प्रतिष्ठा में और इजाफा कर सकते हैं।
क्या गैर कार्यकारी सदस्य बोर्ड में अपनी सेवाएं दे सकते हैं?
अगर बोर्ड में नामचीन पेशेवर हों लेकिन उनका फायदा नहीं उठाया जा रहा हो तब ऐसे में उनके बोर्ड में होने का क्या फायदा? अगर निदेशकों और फैकल्टी को छोड़ दें तो बोर्ड की बैठकों में उपस्थिति केवल 40 फीसदी ही रहती है।
अखिल भारतीय बोर्ड बनने से प्रबंधन शिक्षा को फायदा ही पहुंचेगा। जरुरत केवल साल में दो बार बैठक करने की है। हमें उम्मीद ही नहीं पूरा विश्वास है कि ऐसा करने से सफलता जरूर हाथ लगेगी।