करीब 30 वर्ष पहले जब हमारे देश में आर्थिक सुधारों की शुरुआत हुई, तब हमें अच्छी तरह पता था कि आर्थिक सुधारों की गति तेज होने का पर्यावरण पर विपरीत असर होगा। वृद्धि के साथ ही प्राकृतिक संसाधनों का इस्तेमाल तेज होगा और हमारी हवा तथा जल संरचनाओं में प्रदूषण बढ़ेगा। हम इस तथ्य से इसलिए अवगत थे क्योंकि विकसित दुनिया जिसने उदारीकरण और मुक्त बाजार की मदद से आर्थिक प्रगति के विचार की शुरुआत की थी, उसे यह समझ में आ गया था कि समृद्धि का इकलौता तरीका यही है कि अपने ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाले तथा श्रम आधारित उद्योगों का उभरते विश्व को निर्यात कर दिया जाए। हमें पहला झटका सन 1990 के दशक के मध्य में लगा जब दिल्ली की हवा काली हो गई। सड़कों पर वाहनों की भारी भीड़ के कारण यह स्थिति बनी थी।
अगले दो दशक में हमने देखा कि हमारी धरती, पानी, हवा और भोजन में प्रदूषण बढ़ा और हमें अहसास हुआ कि यह हमारे स्वास्थ्य के लिए कितना नुकसानदेह है। हम जानते हैं कि यह हमारी विकास गाथा का हिस्सा है। यही कारण है कि पर्यावरण के साथ संतुलित विकास को लेकर लगातार संघर्ष देखने मिलता रहा। अक्सर इसका निदान समस्याग्रस्त रहता है क्योंकि निर्णय लेने के लिए जरूरी सार्वजनिक संस्थानों को धीरे-धीरे कमजोर और पंगु कर दिया गया।
इन 30 वर्षों ने हमें यह भी सिखाया है कि स्थायी वृद्धि तब तक सुनिश्चित नहीं की जा सकती जब तक कि यह किफायती और समावेशी न हो। हम जानते हैं कि नदियों को तब तक साफ नहीं किया जा सकता है जब तक सबके लिए किफायती स्वच्छता संभव न हो। यदि लोगों के आवागमन के लिए बेहतर तरीके नहीं तलाशे गए तो हमें नीला आकाश और साफ फेफड़े नहीं मिल सकते। हम यह भी जानते हैं कि प्राकृतिक पूंजी यानी वृक्षों और जल में निवेश करने से हमें जलवायु परिवर्तन के जोखिम से दो चार इस दुनिया में जरूरी मजबूती हासिल होगी। भारत को अपनी विकास गाथा को इसी तरह तैयार करना होगा। हमें कुछ लोगों के बजाय सबकी जरूरतों पर ध्यान देना होगा। पर्यावरण की रक्षा करनी होगी क्योंकि हम सभी का जीवन उस पर निर्भर है। यह अनिवार्य है, इसमें कोई किंतु परंतु नहीं हो सकता। इस बीच दुनिया भर में मुक्त व्यापार और वैश्वीकरण के समर्थक अब संरक्षणवाद का रुख कर रहे हैं। वैश्विक वाणिज्य की आजाद दुनिया के वादे ने समीकरण बदल दिए। चीन के असाधारण उभार के बाद उसने पूरी दुनिया के देशों को पीछे छोड़ दिया है। यह बदलाव तब आया जब उसने विश्व व्यापार संगठन में शामिल होने का निर्णय लिया। उसे सस्ते श्रम, सस्ते ऋण आदि का फायदा मिला। वहां पर्यावरण और सामाजिक सुरक्षा को लेकर भी कोई प्रतिबंध नहीं था। कुल मिलाकर नीचे की ओर ले जाने वाली इस प्रतिस्पर्धा में तमाम देश शामिल थे। विश्व व्यापार की इस प्रकृति को पहले पश्चिमी देशों ने दूर धकेला और अब वे दोबारा इसे साधना चाहते हैं। इस बारे में एकदम स्पष्ट रहना होगा। वैश्विक दबदबे के इस संघर्ष में चीन, अमेरिका के सामने है और इसका भारत समेत पूरी दुनिया की पर्यावरण सुरक्षा और जलवायु परिवर्तन पर काफी असर होना तय है।
दुनिया का नया नेता एक ऐसा देश है जिसका आर्थिक विकास का मॉडल अलग है। इसका संविधान यही है कि जो कुछ किया जाना है, वह सब करो, इसके लिए इसमें उसके नेतृत्व की अबाध शक्ति का पूरा साथ मिलता है। इसका राष्ट्रीय एजेंडा इसी प्रकार आगे बढ़ता है। इसका लक्ष्य है विनिर्माण, व्यापार और वैश्विक वाणिज्य की मदद से दुनिया में अपना आर्थिक कद मजबूत करना। यदि इससे प्रदूषण और ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन बढ़ता है तो यह एक लंबे खेल का हिस्सा है।
कहने का अर्थ यह नहीं है चीन ने पश्चिमी खेल खेलना नहीं सीखा है, उसने सीखा है। वह स्वच्छ ऊर्जा और नवीकरणीय ऊर्जा को लेकर उचित आवाज उठाता है और ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम करने के लिए जिन उद्योगों की आवश्यकता है उन सभी में इसका दबदबा है। इसमें सौर ऊर्जा से लेकर इलेक्ट्रिक वाहन तक सभी क्षेत्र शामिल हैं। उसने सन 2060 तक अपना उत्सर्जन शून्य करने का लक्ष्य रखा है जबकि वह अपनी अर्थव्यवस्था के निर्माण के लिए कोयला आधारित बिजली का इस्तेमाल जारी रखे है। निश्चित रूप से वह इतना ताकतवर है कि उसके दिखावे की ओर इशारा करना भी मुश्किल है।
परंतु यहां बात केवल चीन तथा पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन को लेकर उसके प्रदर्शन की नहीं है। बल्कि यहां बात अमेरिका और चीन की प्रतिद्वंद्विता की है जिसके चलते दुनिया भर के देशों को प्रतिस्पर्धा करनी होगी और पक्षधरता दिखानी होगी। दिक्कत यह है कि सभी पक्ष जानते हैं कि दबदबा कायम करने के लिए आर्थिक शक्ति यानी ज्यादा विनिर्माण, ज्यादा उत्पादन, ज्यादा खपत, ज्यादा व्यापार और वाणिज्य की आवश्यकता होगी। यह पुराने तौर तरीकों को नए ढंग से उचित ठहराना है। ऐसे में जबकि दुनिया जलवायु परिवर्तन और पारिस्थितिकी सुरक्षा की बात कर रही है, वहीं पर्यावरण को क्षति पहुंचाने वाला एजेंडा जारी है। मुझे डर है कि यह बात भारत के लिए भी उतनी ही सही है जितनी कि शेष विश्व के लिए। केवल एक बड़ा अंतर है। बीते तीन दशक में दुनिया ने पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन से निपटने की दिशा में कीमती वक्त गंवाया है। लेकिन आगामी 30 वर्षों में शब्दों की चतुराई की यह नीति काम नहीं करेगी। प्रकृति अपना जोर दिखा रही है। हमारी होड़ समय से है और वह हमारे पक्ष में नहीं है।
