भारत में कंपनियां इस समय अपना कर्ज बोझ कम करने में जुट गई हैं। एक बड़े बैंक के मुख्य कार्याधिकारी ने कहा कि पिछले वित्त वर्ष और चालू वित्त वर्ष के पहले पांच महीनों के दौरान कंपनियों ने अपने कर्ज का बोझ कम से कम 2 लाख करोड़ रुपये तक हल्का कर लिया है। तेल शोधन, इस्पात विनिर्माता, उर्वरक उत्पादक और खनन एवं खनिज उत्पाद और परिधान क्षेत्रों से जुड़ी कंपनियां इसमें सबसे आगे रही हैं। वे महंगे ऋण लेने के बजाय बाजार से सस्ती दरों पर रकम का इंतजाम कर रही हैं और परिसंपत्तियों की बिक्री का भी सहारा ले रही हैं।
वित्त वर्ष 2021 में कंपनियों ने बॉन्ड जारी कर 14.87 लाख करोड़ रुपये (पिछले वर्ष से 40 प्रतिशत अधिक) जुटाए। उन्होंने 2021 में शेयरों की बिक्री के जरिये 5.91 लाख करोड़ रुपये जुटाए। चालू वर्ष में कॉर्पोरेट बॉन्ड और शेयर बिक्री के जरिये पूंजी जुटाने में और तेजी आई है। बॉन्ड सुरक्षित समझे जाते हैं और इनके माध्यम से दीर्घ अवधि के लिए रकम जुटाई जा सकती है। बॉन्डधारक निवेश निकालना चाहें तो वे बाजार में इनकी बिक्री कर सकते हैं। ज्यादातर विकसित देशों में शेयर बाजार के मुकाबले बॉन्ड बाजार में कारोबार काफी अधिक होता है। भारत इस मामले में पीछे रहा है मगर अब यहां भी चीजें बदलने लगी हैं।
भारतीय रिजर्व बैंक वर्ष 2016 से बड़ी कंपनियों को दीर्घ अवधि की पूंजी का एक हिस्सा बॉन्ड बाजार से जुटाने के लिए कहता रहा है। अधिक ऋण लेने वाली कंपनियों को कुल उधारी का एक चौथाई हिस्सा बाजार से बॉन्ड बाजार से जुटाना चाहिए। नियमों के तहत अगर कोई कंपनी बॉन्ड बाजार से कम से 200 करोड़ रुपये जुटाना चाहती है तो उसे इलेक्ट्रॉनिक रूप में बॉन्ड जारी करना चाहिए। अब ऐसा लग रहा है कि कंपनियां इन नियमों का पालन करने लगी हैं।
कंपनियां बैंकों से ऋण लेने के लिए आगे नहीं आ रही हैं जिसे देखते हुए बैंक अपना कारोबार बचाए रखने के लिए अब खुदरा ऋण आवंटन में तेजी लाने में जुटे हैं। बैंक कारोबार के नए अवसर भी खोज रहे हैं। हालांकि बैंकों के लिए ऐसा करना आसान भी नहीं हैं। वित्त-तकनीक (फिनटेक) कंपनियां इस मामले में बैंक को पीछे छोड़ रही हैं। बैंकों के लिए चुनौतियां यहीं खत्म होती नहीं दिख रही हैं। कुछ बैंकों के समक्ष तो अस्तित्व बनाए रखने की चुनौती खड़ी हो गई है।
बैंकिंग प्रणाली में इस समय भरपूर नकदी उपलब्ध है मगर बैंकों के बजाय अच्छी तरह से प्रबंधित गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियां (एनबीएफसी) इसका अधिक फायदा उठा रही हैं। सवाल है कैसे? संचालन एवं संरचना के लिहाज से मजबूत बैंक कारोबार के लिए 4.0-4.50 प्रतिशत ब्याज पर पूंजी जुटाते हैं। इनमें नियत खर्च (शाखा प्रबंधन, तकनीक एवं वेतन मद में एवं अन्य खर्च) जोड़ दिए जाएं तो प्रभावी दर 6.0-6.5 प्रतिशत हो जाती है। इसके उलट सर्वाधिक रेटिंग प्राप्त एनबीएफसी के लिए नियम खर्च आधा प्रतिशत कम बैठता है। ये एनबीएफसी इस समय एक साल के लिए 4.2 प्रतिशत ब्याज पर रकम जुटा रही हैं। उधारी के मोर्चे पर बैंक दिग्गज एनबीएफसी की तुलना में 1.5-2.0 प्रतिशत महंगी दर पर रकम जुटा रहे हैं। इसमें आरक्षी जरूरतें (नियामकीय शर्तें) शामिल नहीं हैं।
बाजार की शक्ति और तकनीक की ताकत बैंकिंग जगत के समाने दो गंभीर चुनौतियां साबित हुई हैं। लोगों से जमा रकम लेने में बैंक की ताकत कमजोर हुई है, वहीं तकनीक ने उनके लिए समस्याएं और बढ़ा दी हैं। अब तकनीक का इस्तेमाल भुगतान एवं ऋण खंड तक ही सीमित नहीं रह गया है। जमा खंड में भी तकनीक का बोलबाला बढ़ गया है। अब लोग गूगल पे और एमेजॉन पे के जरिये भी सावधि जमा योजना शुरू कर सकते हैं। इन कंपनियों ने अपने मंचों से सावधि जमा आदि की पेशकश करने के लिए एनबीएफसी से समझौते किए हैं।
जो इकाइयां सावधि जमा की सुविधाएं देने लगी हैं वे अब ग्राहकों के दिलो-दिमाग में भी अपनी जगह पुख्ता करने में जुट गई हैं। एक बार जब ऐसी इकाइयों की लोकप्रियता बढऩे लगती है तो वे जमा रकम पर ब्याज दरें तय करने में अपने रसूख का इस्तेमाल करने लगती हैं। अगर कोई बैंक जमा पर कम ब्याज की पेशकश कर रहा है तो उसे प्रतिस्पद्र्धा में बने रहने के लिए ब्याज दरें उसी हिसाब से बढ़ानी होंगी नहीं तो ग्राहक उनके हाथ से निकल जाएंगे। अधिक ब्याज और सुविधाएं पाने के लिए लोग बैंकों की तुलना में गूगल पे और एमेजॉन जैसी इकाइयों को अधिक तवज्जो देना शुरू कर सकते हैं। सीधे शब्दों में कहें तो बैंकों का कारोबार ढांचा अपना पैनापन खो रहा है।
बदलते हालात के बीच बैंकों को अपने कारोबार ढांचे में बदलाव लाने होंगे और बैंकिंग और बाजार नियामक दोनों को बदलती परिस्थितियों की समीक्षा करनी होगी। वित्त-तकनीक खंड की कंपनियों के माध्यम से बीमा एवं म्युचुअल फंड योजनाओं की बिक्री से किसी को कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए मगर क्या प्रमुख बैंकिंग योजनाएं की बिक्री की इजाजत भी इन इकाइयों को दी जा सकती है? क्या इससे वित्तीय क्षेत्र की स्थिरता के लिए खतरा पैदा नहीं हो जाएगा?
आरबीआई को भी कुछ नियमों पर पुनर्विचार करना चाहिए। अगर बैंक लोगों से सहजता से रकम जुटाते हैं तो उनकी जवाबदेही भी तो अधिक है। क्या आरबीआई को नकद आरक्षी अनुपात (सीआरआर) पर ब्याज देने पर दोबारा चर्चा शुरू करनी चाहिए? जो बैंक प्राथमिक क्षेत्र को ऋण आवंटित करने का लक्ष्य पूरा नहीं कर पाते हैं वे ऐसे ऋण उन बैंकों से खरीदते हैं जो अधिक ऋण आवंटित कर चुके हैं। या नहीं तो वे निर्धारित लक्ष्य पूरा नहीं करने के कारण बची रकम ऐसी एजेंसियों के पास रखते हैं जो रकम की लागत से भी कम ब्याज देती हैं। तो क्या प्राथमिक क्षेत्र को ऋण आवंटन का लक्ष्य कम करने का समय आ गया है?
(लेखक बिज़नेस स्टैंडर्ड के सलाहकार संपादक, लेखक और जन स्मॉल फाइनैंस बैंक लिमिटेड में वरिष्ठ सलाहकार हैं)
