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  लेख  भंवरजाल से बच पाना ही सबसे बड़ी चुनौती
लेख

भंवरजाल से बच पाना ही सबसे बड़ी चुनौती

बीएस संवाददाता बीएस संवाददाता —November 6, 2008 9:03 PM IST
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पिछले कुछ हफ्तों के दौरान अगर किसी मुद्दे को लेकर सबसे अधिक चर्चा हुई है तो वह आर्थिक माहौल में छाई अनिश्चितता है, जिसमें कब कौन सा मोड़ आएगा, कुछ कहा नहीं जा सकता है।


अगर मौजूदा आर्थिक चुनौतियों के साथ उन दूसरी चुनौतियों को भी जोड़ दिया जाए जिससे भारत फिलहाल जूझ रहा है तो पता चलेगा कि परिस्थितियां कितनी गंभीर हैं। मौजूदा सरकार वास्तव में पिछले 5 सालों में कभी भी अपनी नीतियों को पूरी साफगोई के साथ लागू नहीं करवा पाई है और अब उसके लिए हालात और भी मुश्किल रहने वाले हैं क्योंकि वह अगले लोकसभा चुनावों के लिए कदम बढ़ा रही है।

ऐसे में जब तक नई सरकार का गठन नहीं हो जाता तब तक मौजूदा सरकार आर्थिक हालात को काबू में रख पाने के लिए बनाई गई नीतियों को कितनी सख्ती के साथ लागू करवा पाती है, यह भी दिलचस्प होगा। वैसे भी जब नई सरकार के गठन की घड़ी नजदीक आती है तो अपेक्षाकृत कठोर नीतियां बनाने से परहेज ही किया जाता है। साथ ही देश में आंतरिक सुरक्षा की स्थिति गंभीर होती जा रही है और सामाजिक भेद भाव भी पैर पसार रहा है।

ऐसे हालात में आम जनता ने रोजगार में छंटनी को लेकर चाहे कितना भी शोर शराबा क्यों न मचाया हो और इसे देखते हुए चाहे देश के कारोबार जगत की ओर से यह आश्वासन भी मिल गया हो कि वे कर्मचारियों को नौकरी से नहीं निकालेंगे फिर भी इतना तो तय है कि चाहे बड़ा या फिर छोटा कोई भी कारोबार हो, सभी अपने अपने वेतन भुगतान के बिल को कम करने की पूरी कोशिश करेंगे।

यह उन लोगों के लिए बहुत डराने वाली खबर हो सकती है जिन पर इसका असर हो चुका है या फिर जो इसकी चपेट में आ सकते हैं। भारतीय कारोबारियों और नौकरीपेशों को न चाहते हुए भी आने वाले समय में इस कड़वी दवा का घूंट पीने को तैयार होना होगा और कहना गलत नहीं होगा कि छंटनी का असर बड़े पैमाने पर देखने को मिल सकता है।

पिछले 5 सालों में भारतीय रोजगार के बाजार ने तेजी के साथ पैर पसारे हैं। स्थिति तो ऐसी हो गई थी कि जिन नौजवानों ने अभी अभी एमबीए की डिग्री हाथ में ली थी और जिन्हें काम का थोड़ा बहुत या फिर जरा सा भी अनुभव नहीं था, उन्हें भी सालाना 15 लाख रुपये या फिर उससे ऊपर की तनख्वाह का प्रस्ताव दिया जाने लगा था।

मध्यम दर्जे के प्रबंधकों को सीईओ के पद पर पहुंचने के लिए कोई खास इंतजार नहीं करना पड़ रहा था और उन्हें वेतन के तौर पर करोड़ों रुपयों का ऑफर दिया जा रहा था, ऐशो आराम और दूसरी वित्तीय सुविधाएं अलग। यहां तक कि एयरलाइंस कंपनियों, बैंकों और आईटी और आईटीएस कारोबारों में महज स्नातक की डिग्री पाए युवाओं को भी नौकरी पर रखा जाने लगा और शुरुआत में ही उन्हें इतनी तनख्वाह दी जाने लगी कि उनके माता पिता को उतना वेतन पाने में 25 साल लग गए थे।

भारत में करीब 60 करोड़ लोग ऐसे हैं जो काम करने वाली आबादी के तहत आते हैं और यहां अकेले भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम) ने 75,000 से अधिक एमबीए स्नातक दिए हैं जो विभिन्न संस्थानों में काम कर रहे हैं। इन हालात के बाद भी भारत ने नौकरी बांटने में ऐसा बचकाना रुख अपनाया जैसे कि वह यूरोपीय संघ का कोई अदना सा देश हो जहां कामगारों की भारी किल्लत हो।

परिणाम यही हुआ कि वेतन और दूसरी सुविधाओं के मामले में भारत ने लगभग यूरोपीय देशों का स्तर छू लिया। यह निराशाजनक है कि इस हफ्ते की शुरुआत में जब कारोबार जगत के नेता प्रधानमंत्री से मिले तो वे पूरे विश्वास के साथ यह भी नहीं कह पाए कि भारत के कारोबारी उत्पादकता के व्यापक हितों को ध्यान में रखते हुए जरूरत से अधिक भर्तियों पर लगाम लगानी होगी और अनावश्यक खर्चों को भी कम करना पड़ेगा।

हालांकि इतना तो समझा जा ही सकता है कि जब तक सरकार अनुकूल नीतियां बनाती रहेगी और शासन सुचारू रहेगा तब तक नए रोजगार के अवसर पैदा होते रहेंगे और इसमें कमी नहीं आएगी। मैं यह आशा करता हूं कि देश के कारोबार जगत और सरकार के बीच ऐसी कोई सांठ गांठ नहीं हुई होगी कि ‘छंटनी रोकने के लिए कारोबार जगत को रियायतें दी जाएंगी’, क्योंकि अगर ऐसा होता है तो इससे भारत की आर्थिक स्थिति और खोखली ही होगी।

होना तो चाहिए कि मौजूदा संकट की घड़ी में निजी या सरकारी कारोबार में शेयरधारक हर सीईओ, प्रबंधकों और उसकी सहयोगी टीमों से यह मांग करे कि वे बेहतर प्रदर्शन कर सकें क्योंकि उन्हें जितनी तनख्वाह और सहूलियतें दी जा रही हैं यानी उन पर जितना खर्च किया जा रहा है उसके लिए इस तरह की मांग को नाजायज नहीं ठहराया जा सकता। हम इस संकट को वैश्विक वित्त संकट के कारण देश पर पड़ने वाली मार समझ कर हाथ पर हाथ धरे बैठे नहीं रह सकते।

मंदी का हवाला देकर बुरे प्रदर्शन को स्वीकार कर लेना कहीं से जायज नहीं है, बल्कि ऐसे कठिन समय में ही तो प्रबंधकों और उनकी सहयोगी टीमों की सही परीक्षा होती है और उनकी क्षमताओं का आकलन किया जाता है। मैं मानता हूं कि नौकरी खोने की पीड़ा बहुत अधिक होती है और मैं इस दर्द को समझता भी हूं क्योंकि 1990 में मेरे साथ खुद ऐसा हो चुका है।

मैंने अपने जीवन में मंदी और तेजी दोनों देखी है और इसलिए उन लोगों को जो अच्छी नौकरियों में हैं (ज्यादातर लोगों का जवाब यहां हां में ही होगा) मेरी यही सलाह होगी कि सबसे पहले तो वह अपने भाग्यशाली होने का एहसान मानें और उसके बाद अपनी ओर से ज्यादा से ज्यादा प्रयास करें कि उनकी कंपनियों को फायदा हो और वे इस मुश्किल माहौल में टिके रह पाएं।

अपनी नौकरी से आप कितने संतुष्ट हैं, आपके काम और निजी जिंदगी के बीच कितना संतुलन है, व्यक्तिगत मसले जैसे बच्चों की शिक्षा, आपकी वित्तीय परिस्थितियां और आपको मिल रहा मौजूदा भुगतान निश्चित तौर पर महत्त्वपूर्ण है पर इस समय नहीं। जब हालात सुधरेंगे तो इन बातों की चिंता की जा सकती है। फिलहाल तो जो जहां है, वहीं बने रहे इतना ही काफी है।

जो लोग अपनी नौकरी खो चुके हैं उनके लिए मुझे अफसोस तो है पर मेरी पहली सलाह उनके लिए यही होगी कि वे जाकर सबसे पहले एक नौकरी खोजें। फिलहाल उन्हें चाहे कैसी भी नौकरी मिल रही हो उसे बस लपक लें। ऐसे समय में आपके पास बहुत विकल्प नहीं हैं और आपको जो मिल रहा है उसी में संतोष करना पड़ेगा।

घर बैठकर बेहतर नौकरी का इंतजार करना खतरे से खाली नहीं होगा क्योंकि ऐसा कर आप खुद को हताश ही करेंगे और आपके पास जो भी जमा पूंजी बची है, उससे भी हाथ धो बैठेंगे। जो दूसरी नौकरी नहीं ढूंढ पा रहे हैं, उन्हें स्वरोजगार के बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए। सोच यहां भी यही है कि फिलहाल इस संकट की घड़ी में किसी तरह टिके रहें और कुछ ऐसा करें कि आने वाले समय में आपको उसका लाभ मिल सके।

biggest challenge is to escape from cyclone
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