नोवल कोरोनावायरस के प्रसार पर नियंत्रण किए बिना अर्थव्यवस्था को खोलना एक ऐसा दांव था जिसे हारना भारत बरदाश्त नहीं कर सकता। आदर्श स्थिति में किसी भी देश को अर्थव्यवस्था में सामान्य कामकाज शुरू करने के पहले ऐसा नियंत्रण लॉकडाउन, सीमाबंदी और संक्रमितों के संपर्कों को चिह्नित करके हासिल करना चाहिए। ओशेनिया और यूरोप के कुछ देशों ने ऐसा करने में कामयबी पाई क्योंकि उनका आकार छोटा है और वे संपन्न भी हैं। हमारे यहां सरकार ने एकदम अलग नीति अपनाई क्योंकि अर्थव्यवस्था को खोलना लाजिमी हो चला था। इकलौती वैकल्पिक नीति व्यापक जांच और चयनित ढंग से क्वारंटीन करने की है ताकि प्रसार को रोका जा सके। जरूरत पडऩे पर आंशिक और स्थानीय लॉकडाउन भी लगाए जा सकते हैं।
इस नीति में व्यापक जांच की आवश्यकता होगी। संक्रमण का पता लगाने के लिए आरटी-पीसीआर के साथ-साथ सीरोलॉजी और ऐंटीबॉडी जांच की भी सहायता ली जा सकती है। इस मोर्चे पर केंद्र और राज्य सरकारें निश्चित रूप से विफल रहीं और वे जांच को अपेक्षित स्तर तक नहीं बढ़ा सकीं। इस बात के कई संकेत अब स्पष्ट हो चुके हैं। पहली बात, इस बात को लेकर भ्रम बरकरार है कि किसकी जांच की जानी चाहिए। ऐसा तब है जबकि जांच की क्षमता निरंतर बढ़ रही है और अब देश में रोजाना 50 लाख टेस्ट किट तैयार हो रही हैं। इसके बावजूद रोजाना अधिकतम 1.50 लाख टेस्ट ही हो पा रहे हैं। मुंबई जैसे हॉटस्पॉट वाले शहरों में एक दिन में 4,000 जांच हो रही हैं। चीन से इसकी तुलना करें तो पेइचिंग के एक सीफूड बाजार में प्रसार का पता लगने पर वहां के प्रशासन ने एक दिन में 70,000 लोगों की जांच कर डाली। दूसरी बात, कुछ सरकारी अनुमानों में यह भी कहा जा रहा है कि हमारे देश में संक्रमण की वास्तविक तादाद जांच द्वारा पुष्ट मामलों के 20 गुना तक हो सकती है। एक अन्य रिपोर्ट जिसे अधिकारियों ने दबाने का प्रयास किया, में कहा गया है कि कंटेनमेंट जोन में एक तिहाई लोग संक्रमित हो सकते हैं। अगर अर्थव्यवस्था को खोलने के शुरुआती दौर में ऐसे आंकड़े हैं तो कहा जा सकता है कि व्यापक जांच के अभाव में हम आपदा को न्योता दे रहे हैं।
देश भर में जांच को बढ़ाना अनिवार्य हो चला है। यदि सरकार प्रबंधन करने में सक्षम नहीं है तो अन्य क्षेत्रों को आगे आना होगा। निश्चित रूप से कंपनियों और व्यापक संगठनों की इसमें अहम भूमिका हो सकती है। बड़ी कंपनियों को अपने कर्मचारियों की अपने खर्च पर नियमित जांच करनी चाहिए। इससे उनके ही कामकाज में मदद मिलेगी। प्रशासन और जांच विश्लेषण में कुशल स्वास्थ्य सेवाकर्मियों की तादाद बढ़ानी चाहिए और उन नियमन को शिथिल किया जाना चाहिए जो जांच के विस्तार को बाधित करते हैं। मास्क के समुचित इस्तेमाल और हाथ साफ रखने के बारे में पूरी जानकारी दिया जाना भी आवश्यक है। कई लोग मास्क तो पहनते हैं लेकिन उनकी नाक नहीं ढकी होती है। इस तरह मास्क पहनना बेमानी है।
सरकार के स्तर पर गेंद इस पाले से उस पाले डालने में बहुत अधिक ऊर्जा व्यय हो रही है। इसके अलावा राज्यों में भी काफी अंतर देखने को मिल रहा है। तेलंगाना जैसे राज्यों में जांच के आंकड़े भी एकदम अस्पष्ट हैं। महाराष्ट्र और गुजरात ने जांच का दायरा नहीं बढ़ाया है कि कहीं मामले बहुत अधिक न दिखने लगें। यह सब बंद होना चाहिए और जांच की एक व्यापक देशव्यापी नीति विकसित होनी चाहिए जिसमें निजी क्षेत्र की भी अहम भूमिका हो। इसके अलावा कोई विकल्प नहीं है। सीमित जांच से आर्थिक हालात सामान्य होने में और अधिक देरी होगी।
