पिछले कुछ सप्ताह बहुत ही दिलचस्प रहे। रियल एस्टेट कंपनी यूनिटेक को इस बात के लिए धन्यवाद दिया जाना चाहिए कि उसने स्पेक्ट्रम का सही मूल्यांकन किया और अपनी टेलीकॉम शाखा की 60 प्रतिशत हिस्सेदारी बेच दी।
इस शाखा को संचार मंत्री ए. राजा से पिछले फरवरी में बहुत ही सस्ते में स्पेक्ट्रम मिला था। (दूसरी लाभान्वित कंपनी स्वॉन थी जिसने इससे पहले अपनी 45 प्रतिशत हिस्सेदारी उसी तरह से ऊंचे दामों पर बेची थी)। सस्ते में स्पेक्ट्रम बेचने के सरकार के कदम की बड़ी आलोचना हुई है।
विरोध के स्वरों में हाल ही में भारतीय कम्युनिस्ट पाटी (भाकपा) नेता डी राजा ने भी अपना स्वर मिलाया, जिन्होंने प्रेस कांफ्रेंस कर इस पूरे मामले की जांच की मांग की। इसके विरोध में ए. राजा ने भी प्रेस कांफ्रेंस की और उन्होंने घोषणा की कि अगर उन्हें इस मामले में कहीं से भी दोषी पाया जाता है, तो वह इस्तीफा दे देंगे।
उन्होंने यह भी घोषणा की कि सरकार योजना बना रही है कि वर्तमान मोबाइल ऑपरेटरों का शुल्क 1-2 प्रतिशत बढ़ाया जाए, इसके साथ ही अगर कोई 6.2 मेगाहट्र्ज से ज्यादा स्पेक्ट्रम लेता है तो उससे एकबारगी का शुल्क लिया जाएगा, जो करीब 4,000-5,000 करोड़ रुपये के करीब होगी।
तमाम कारणों से यह बहुत ही हास्यास्पद लगता है। इसका पहला कारण यह है कि ए. राजा जिस रकम को एकत्र करने की बात कर रहे हैं, वह उस धनराशि के दसवें हिस्से से भी कम है, जिसकी बोली लगाने की बजाए उन्होंने 2008 में उसी दर पर दे दिया, जो 2001 में बोली के दौरान लिया गया था।
इससे भी ज्यादा दिलचस्प यह है कि उनके ऊपर यूनिटेक, स्वॉन, लूप, डाटाकॉम, रिलायंस कम्युनिकेशंस आदि कंपनियों के प्रति पक्षपात करने का आरोप है- इनमें से कम ही कंपनियों की हिस्सेदारी वर्तमान नेटवर्क में है। जबकि उन्होंने मौजूदा मोबाइल ऑपरेटरों के शुल्क में बढ़ोतरी की योजना बनाई है।
आखिर 6.2 मेगाहट्र्ज ही क्यों? भारती और वोडाफोन जैसी कंपनियों ने जब 2001 में लाइसेंस के लिए बोली लगाई थी तो उन्हें 6.2 मेगाहट्र्ज तक का स्पेक्ट्रम दिए जाने का वादा किया गया था। (भारती और वोडाफोन के वास मौजूदा समय में 9-10 मेगाहट्र्ज स्पेक्ट्रम है)। बाकी स्पेक्ट्रम समय समय पर जारी प्रशासनिक आदेशों के माध्यम से कंपनियों को दिया गया।
तमाम किंतु परंतु के बाद जब 30 जुलाई 2007 को इसकी विस्तृत रूपरेखा सामने आई तो यह एक उदाहरण बन गया कि ये आदेश कितने बकवास किस्म के थे (मोबाइल ऑपरेटरों को ग्राहकों की संख्या के आधार पर अतिरिक्त स्पेक्ट्रम दिया गया था)। इसमें पाया गया कि किस तरह से ग्राहक संख्या के मानकों में बार बार बदलाव किया गया, जो पहले बहुत ही ढीले थे, लेकिन बाद में उन्हें बहुत कड़ा कर दिया गया।
एक समिति का गठन किया गया जो देखेगी कि एक बारगी भुगतान के लिए रेग्युलराइजेशन फी कितनी होगी। स्वाभाविक है कि यह शुल्क यूनिटेक को 4.4 मेगाहट्र्ज स्पेक्ट्रम के लिए प्रदत्त 1651 करोड़ रुपये शुल्क के आधार पर तय किया जाएगा। नहीं तो भारती और वोडाफोन जैसी कंपनियां इसका कड़ा विरोध शुरू कर देंगी।
इस तरह से सभी लोग जानते हैं कि भारती और वोडाफोन से जो दंड के रूप में लेवी ली जाएगी, वह बहुत कम होगा। (इससे स्पष्ट होता है कि भारती और वोडाफोन आखिर क्यों निजी तौर पर मीडिया से कह रहे हैं कि राजा के समय में तय की गई स्पेक्ट्रम की कीमतों पर मीडिया में बेवजह बवाल किया जा रहा है।)
स्पेक्ट्रम शुल्क में जो 1-2 प्रतिशत की बढ़ोतरी की बात ए राजा कर रहे हैं, वह भी उस ‘अतिरिक्त’ स्पेक्ट्रम से जुड़ा हुआ मामला है, जो भारती और वोडाफोन को मिले थे। उन्होंने इसके लिए बोली द्वारा तय मूल्य या बाजार भाव पर भुगतान नहीं किया है, राजा तर्क देते हैं कि उनसे कहा जाएगा कि वे इसके लिए अधिक सालाना शुल्क दें।
इस मामले में अगर राजा इसके बदले नियमित करने के शुल्क (रेग्युलराइजेशन फी) के रूप में 5,000 करोड़ रुपये पा भी लेते हैं तो यह वार्षिक स्पेक्ट्रम शुल्क से कम होगा। अगर 10 प्रतिशत वार्षिक ब्याज दर की हिसाब से देखें तो इस नियमित करने वाले शुल्क से 500 करोड़ रुपया वार्षिक राजस्व आता है, जबकि स्पेक्ट्रम शुल्क में 1-2 प्रतिशत की बढ़ोतरी होने से साल भर में कई बार इतना शुल्क आ जाता है। क्या मोलभाव है!
लेकिन हमें केवल इन आंकड़ों में नहीं उलझे रहना चाहिए। इससे भी बड़ा मसला यह है कि भारती वोडाफोन और अन्य सेल्युलर मोबाइल फोन फर्मों को ढेरों लाभ दिए गए, जब उन्हें 6.2 मेगाहट्र्ज से ज्यादा स्पेक्ट्रम दिया गया, जो लाइसेंस में दिए गए वादे से अधिक था।
रिलायंस कम्युनिकेशंस और टाटा टेलीसर्विसेज ने दूरसंचार अपील न्यायाधिकरण (टीडीसेट) में एक मामला दर्ज किया। भारत सरकार के खिलाफ दायर इस याचिका में कहा गया कि भारती, वोडाफोन और अन्य सेल्युलर मोबाइल फोन फर्मों को अधिकृत किए गए 6.2 मेगाहट्र्ज से ज्यादा स्पेक्ट्रम दिया गया, जिसे वापस लिया जाना चाहिए।
स्वाभाविक है, जैसा कि होना था, सरकार ने एक हलफनामा दाखिल किया। यह हलफनामा राजा के मंत्रालय ने तैयार किया था, जिसमें कहा गया कि 6.2 मेगाहट्र्ज से ज्यादा स्पेक्ट्रम दिए जाने में कुछ भी गलत नहीं है। यह सरकार की नीति है कि ग्राहकों की संख्या के आधार पर अतिरिक्त स्पेक्ट्रम दिया जाए।
सवाल यह है कि यह आबंटन अवैधानिक था या नहीं। अगर यह अवैधानिक था, तो ही रेग्युलराइजेशन फी को न्यायोचित ठहराया जा सकता है। ऐसी स्थिति में टीडीसेट में दायर हलफनामा गलत था, और यह और भी गंभीर अपराध है।
इसके अलावा भी यह देखने की जरूरत है कि शुरुआत में राजा ने किस नीति के तहत यूनिटेक, स्वॉन जैसी फर्मो को स्पेक्ट्रम दिया। जब राजा ने यूनिटेक और स्वॉन को स्पेक्ट्रम देने का फैसला किया तब भारती और वोडाफोन ग्राहकों की संख्या के आधार पर अतिरिक्त स्पेक्ट्रम पाने की हकदार थीं।
बहरहाल सरकार ने अचानक ग्राहकों की संख्या के मानक को बढ़ा दिया जिससे कि भारती वोडाफोन स्पेक्ट्रम पाने के हकदार नहीं रह गईं और अतिरिक्त स्पेक्ट्रम यूनिटेक और स्वॉन को दे दिया गया। लेकिन अगर टीडीसेट के हलफनामे का विश्वास किया जाए तो ग्राहकों की संख्या के आधार पर स्पेक्ट्रम आबंटित किया जाना सरकार की अधिकृत नीति थी। और अगर यह नीति थी, तो भारती वोडाफोन और अन्य कंपनियों को पहले स्पेक्ट्रम क्यों नहीं दिया गया? कितना उलझा हुआ है यह मसला।