ब्रिटेन के कई स्कूलों में बच्चों को एक नई टीचर मिली है। आप कहेंगे, इसमें कौन सी बड़ी बात है बड़ी बात है।
वह नई टीचर न तो उन पर चीखती है, न ही उनका मजाक उड़ाती है और मासूम से बच्चों को मारती भी नहीं है। वह उनके साथ दिनभर खेलती रहती है और बच्चे उससे बहुत प्यार करते हैं।
हिंदुस्तान के कई टीचरों से जुदा वह छुट्टियां भी नहीं लेती। उसका नाम है मिशन मेकर और वह असल में एक कंप्यूटर प्रोग्राम है, जो छोटे-छोटे बच्चों को अपना खुद का डिजिटल गेम बनाने में मदद करती है। यह प्रोग्राम बच्चों को किसी अनुभव के बिना ही 3डी गेम को बनाने में मदद करता है। इस प्रोग्राम में कई खूबियां हैं।
मिसाल के तौर पर यह सॉफ्टवेयर बच्चों को इलाके, किरदार, सामान, ट्रिगर्स और मीडिया (आवाज और तस्वीरों) को चुनने की आजादी देता है। इस अनोखी कहानी को पिछले हफ्ते लोगों के सामने रखा बिट्रेन के डूंडी यूनिवर्सिटी में एक कॉलेज की प्रमुख प्रो. ऐनी एंडरसन ने। मौका था रिसर्च काउंसिल्स (आरसी) यूके के नई दिल्ली में दफ्तर की शुरुआत का।
उनके मुताबिक इस प्रोजेक्ट की शुरुआत की थी लंदन के इंस्टीटयूट ऑफ एजुकेशन ने एक प्राइवेट पार्टनर की मदद से। अब तो यह प्रोजेक्ट ब्रिटेन के कई स्कूलों में न सिर्फ चल रहा है, बल्कि काफी पसंद भी किया जा रहा है।
उनका कहना था कि, ‘आज कई सामाजिक और शैक्षिक शोधों में मोबाइल फोन गेम्स और कंप्यूटर गेम्स जैसी तकनीकों को ऐसे तरीके से इस्तेमाल करने पर जोर दिया जाता है, जिससे दूसरों को कुछ सिखाया जा सके। साथ ही, आरसी के तहत काम करने वाली एजुकेशन ऐंड सोशल रिसर्च काउंसिल (ईएसआरसी) ब्रिटेन में ऐसे कम से कम 30 प्रोजेक्ट चल रहे हैं।’
आज की तारीख में हिंदुस्तानी शहरों में रहने वाले तीन से चार साल के कई बच्चे अपने घरों में कंप्यूटर से घंटों चिपके रहते हैं। कंप्यूटरों पर वह अक्सर स्पाइडरमैन, बैटमैन और पॉवर रेंजरों जैसे बेहद मशहूर गेम की तलाश में जुटे होते हैं। जब उनको नए गेम मिल भी जाते हैं, तो भी वे कुछ ही दिनों में उनसे बोर हो जाते हैं। फिर शुरू होती उनकी नई गेम की मांग।
मांग भी ऐसे गेम की, जिसका नाम भी वे ठीक से नहीं ले सकते। इनका साथ वे केवल कार्टून और दोस्तों की खातिर छोड़ते हैं। शायद, इसी से पता चल जाता है कि आखिर क्यों वे स्कूल जाने और पढ़ने के नाम से इतना कतराते हैं। जाने-माने अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी ने नई दिल्ली में एक बार बातचीत के दौर मुंबई और वडोदरा में हुए किसी अध्ययन की बात की थी।
उस अध्ययन का मकसद उन तरीकों को जानना था कि कैसे पढ़ाने के तरीकों को अच्छा और बेहतर बनाया जा सके, जिससे स्कूल बीच में ही छोड़ने वाले बच्चों की तादाद में कमी आए और बच्चों के ज्ञान में भी इजाफा हो सके। उस शोध में दो तरीकों का इस्तेमाल किया था। एक में स्थानीय टीचरों को बच्चों पर खास ध्यान देने को कहा गया था।
वहीं दूसरे तरीके में चीजों को समझाने के लिए ऑडियो और वीडियो तकनीक का भी सहारा लिया गया। बनर्जी का कहना था कि, ‘नतीजों के मुताबिक केवल टीचर और सिर्फ तकनीक ही बच्चों को कुछ नहीं सिखा सकते। इन दोनों का मेल रहे तो बच्चे काफी अच्छी तरह से सीखते हैं।
बच्चों को पढ़ाई में शामिल करने वाली तकनीकों को शामिल करने और मोटा वेतन लेकर भी पढ़ाने में रुचि नहीं रखने वाले टीचरों की भूमिका को कम करने से, अपने मुल्क की शिक्षा व्यवस्था की तस्वीर ही बदल सकती है।’ एंडरसन का कहना है कि मिशन मेकर, टेक्नोलॉजिस्टों, उद्योग और सामाजिक वैज्ञानिकों की मिली-जुली कोशिश का नतीजा है।
ईएसआरसी के लिए इसे बनाया है शिक्षाविद कोरोलीन पेलेटियर ने। अब तो भारत और ब्रिटेन के बीच दोस्ती की यह राह और भी मजबूत होती जा रही है। रिसर्च काउंसिल्स यूके अब भारतीय वैज्ञानिकों के साथ मिलकर डिजिटल एक्सेस, स्वास्थ्य, अंतरिक्ष विज्ञान, ऊर्जा और पर्यावरण के बारे में शोध करने में जुटी हुई है। इसलिए तो उसने दक्षिण एशियाई मुल्कों के लिए 50 लाख पॉउन्ड की मोटी-ताजी रकम अलग करके रख दी है।
भारत के अलावा आरसी का ब्रिटेन से बाहर केवल दो मुल्कों में ही दफ्तर है, चीन और अमेरिका में। विज्ञान और तकनीकी विभाग के मुताबिक तो भारत सरकार ने 10 परियोजनाओं के लिए हरी झंडी दे दी है, जिसमें से कुछ का वास्ता शिक्षा से हो सकता है। अब इस मामले में आरसी के ब्रिटेन में स्थित मुख्यालय की हामी आनी है। वैसे, इसमें शामिल कंपनियों के बारे में अभी कुछ पता नहीं चल पाया है।
क्या इस गठबंधन की वजह से हिंदुस्तानी नीति-निर्माता लीक से हटकर सोच पाएंगे? आरसी के भारतीय दफ्तर के उद्धाटन के मौके पर विज्ञान और तकनीकी विभाग के प्रमुख मौजूद थे। साथ ही, मुल्क के प्रमुख शिक्षा शोध संस्थान, नैशनल यूनिवर्सिटी फॉर एजुकेशनल रिसर्च ऐंड प्लानिंग ने आरसी के साथ मिलकर उस आयोजन की मेजबानी की थी।
लेकिन ऊपर मौजूद सवाल का जवाब जानने के लिए आपको नैशनल यूनिवर्सिटी फॉर एजुकेशनल रिसर्च ऐंड प्लानिंग के शोध पत्रों को पढ़ाना होगा। इसमें उन तरीकों की चर्चा की गई है, जिनकी मदद से मुल्क में शिक्षा की हालत को सुधारने का प्रस्ताव है। इसने बच्चों को पढ़ाई से जोड़ने पर भी शोध किया है और इसके पास अंतरराष्ट्रीय सहयोग का विभाग भी है। लेकिन इससे सचमुच फायदा होगा, इसका कोई सबूत नहीं है। शायद ब्रिटिश सामाजिक वैज्ञानिक उनकी सोच बदल पाएं।