क्या हमें पवन ऊर्जा, सौर ऊर्जा और गोबरगैस जैसे ऊर्जा के नए स्रोतों की सचमुच जरूरत है, आज की तारीख में यह कोई सवाल नहीं है।
आज की तारीख में सवाल यह है कि इन तकनीकों को बाजार तक कैसे लेकर आया जाए? इस सवाल का जवाब इतना आसान भी नहीं है। आज भी नई सोच और उत्पादन का सबसे बड़ा स्रोत प्राइवेट सेक्टर ही है, लेकिन बाजार में किसी भी नई तकनीक के लिए जगह बनाने की जिम्मेदारी सरकार और सरकारी नीतियों की होती है।
यहां यह भी याद रखने की जरूरत है कि किसी नई तकनीक के आने के साथ-साथ एक बिल्कुल अलग तरह की शिक्षा भी जगह बनाती है। यही शिक्षा आगे चलकर नई सोच और नए खोजों को बढ़ावा देती है, फिर चाहे वह उस तकनीक के विकास में हो या फिर उसके इस्तेमाल में। पते की बात यही है।
अगर हम सरकार और प्राइवेट सेक्टर की भागीदारी को ठीक से नहीं बिठा पाए, अगर हम नए शोध, नियमों और जांच को बढ़ावा दे पाए तो हम कहीं के नहीं रहेंगे। तकनीक तो आएगी, लेकिन उसका इस्तेमाल मुनाफा कमाने के लिए होगा। एक बड़े बदलाव के लिए नहीं।
अब पवन ऊर्जा को ही ले लीजिए। पिछले कुछ सालों से केंद्र और राज्य सरकारें इस सेक्टर को बढ़ावा देने के लिए इसे मोटी वित्तीय मदद मुहैया करवा रहे हैं। लेकिन क्या इससे सचमुच कुछ भला हुआ है? मैं यह सवाल इसलिए पूछ रही हूं क्योंकि इस बारे में जारी सरकारी आंकड़ों को देखकर मैं और मेरे साथी सन्नाटे में आ गए थे।
31 मार्च, 2008 तक भारत में कुल ऊर्जा प्रतिष्ठानों में पवन ऊर्जा की हिस्सेदारी करीब 6 फीसदी की है। लेकिन हमने पाया कि कुल विद्युत उत्पादन में इसकी हिस्सेदारी केवल 1.6 फीसदी ही है। औसतन पवन ऊर्जा प्रतिष्ठानों का प्लांट लोड फैक्टर (पीएलएफ, क्षमता के अनुरूप उत्पादन करने की कार्यकुशलता) 2003-04 के 13.5 फीसदी से बढ़कर पिछले साल केवल 15 फीसदी के स्तर तक ही पहुंच पाया है।
पीएलएफ जितना ज्यादा होता है, उस प्लांट की कार्यकुशलता उतनी ज्यादा होती है। अपने मुल्क में तो गुजरात और आंध्र प्रदेश जैसे सूबे भी हैं, जहां पवन ऊर्जा संयंत्रों का पीएलएफ 10 फीसदी से भी कम है। दूसरी तरफ, पिछले कुछ सालों में महाराष्ट्र में पवन ऊर्जा के संयंत्रों की तादाद में तीन गुना से भी ज्यादा इजाफा हुआ है, लेकिन खुद राज्य सरकारों के आंकड़ों के मुताबिक पवन ऊर्जा संयंत्र पहले की तुलना में कम बिजली पैदा कर रहे हैं।
बिजली के भूखे इस राज्य में हवा से बिजली बनाने वाले संयंत्र 11.7 फीसदी पीएलएफ पर काम कर रहे हैं। यह सचमुच चौंकाने वाले आंकड़े हैं। हकीकत तो यह है कि दुनिया भर का औसत पीएलएफ करीब 25 से 30 फीसदी तक का है। दरअसल, हम इस तकनीक को एक ऐसी टेक्नोलॉजी के रूप में बढ़ावा देना चाहते हैं, जिसमें कारोबार की गुंजाइश हो। हम सरकार और प्राइवेट कंपनियों के बीच रिश्तों की परिभाषा नहीं लिखाना चाहते हैं।
असल में, हमने इस सेक्टर को बाजार की बुरी आदतों के साथ पनपने का मौका दिया। ऊपर से, वित्तीय मदद की चाशनी की मोटी परत भी इसके ऊपर चढ़ाई। आज की तारीख में पवन ऊर्जा के बाजार पर कुछेक कंपनियों का दबदबा है। साथ ही, इसके ऊपर किसी तरह का सरकारी नियंत्रण भी नहीं है। उन कंपनियों के काम करने का तरीका भी बेहद आसान है। वे निवेशकों के साथ समझौता करते उन्हें टरबाइन मुहैया करते हैं।
उसके बाद वही कंपनियों दूसरी मशीनरी भी मुहैया कराती हैं। फिर वे उस पवन ऊर्जा को चलाती भी हैं, जिसके लिए वे निवेशकों से मोटी रकम वसूलती हैं। इस तरह से काम करने की वजह से कोई यह नहीं जान पाता है कि एक पवन चक्की को चलाने में असल लागत कितनी आती है। इसी वजह से न तो कोई इस लागत में कमी करने में उत्सुक नहीं है और न ही इसकी कार्यकुशलता में इजाफा करने में।
नतीजतन, हमारे मुल्क में इसमें लगने वाली पूंजी और इसकी लागत काफी ज्यादा हो चुकी है। इसी वजह से तो दुनिया के बाकी हिस्सों से इतर भारत में विंड पॉवर प्लांट्स की कार्यकुशलता इतनी कम है। इस तरह के सेटअप की सरकार की तरफ से जांच काफी कम होती है। सरकारी शोध का आंकड़ा तो और भी गया-गुजरा है। जो कुछेक लोग इस गोरखधंधे के बारे में जानते भी हैं, उनकी गिनती भी काफी प्रभावशाली लोगों में होती है।
इस सेक्टर के जो कंसल्टेंट भी हैं, उनका या तो इसमें पैसा लगा हुआ है या फिर वे भी इस कारोबार से किसी न किसी रूप से जुड़े हुए हैं। इसीलिए तो जब हमने इस बारे में जानकारी मांगी तो इस सेक्टर की एक भी कंपनी की तरफ से जवाब नहीं आया। साथ ही, एक भी विश्लेषक ने इस बारे में ऑन रिकॉर्ड कुछ कहने के लिए तैयार नहीं था। यह वाकई काफी भयानक है।
खासतौर पर तब, जब आप किसी नई तकनीक के साथ लोगों का ज्ञान बढ़ने की उम्मीद करते हैं, तो यह बात और भी खतरनाक हो जाती है। यह बताती है कि सरकारी नीतियों में बदलाव की जरूरत है और उन्हें धारदार बनाने की जरूरत है। जहां तक बात है पवन ऊर्जा की तो हमें एक नई नीति की जरूरत है, जिसमें उत्पादन पर जोर दिया जाए और पूंजी पर सब्सिडी कम की जाए।
यह बात भी साफ है कि अगर सरकार और प्राइवेट क्षेत्र की साझेदारी की दिक्कतों को शुरुआत में ही खत्म नहीं किया गया तो स्वार्थों से ओत-प्रोत तत्व इसमें घुस आएंगे और सिर्फ मुनाफा ही कमाएंगे। उनकी वजह से फिर बदलाव भी करना काफी मुश्किल हो जाएगा। इसी वजह से तो पिछले महीने सरकार ने लंबे समय से अटके हुए पवन ऊर्जा के लिए उत्पादन के आधार पर प्रोत्साहन देने की योजना पर अपनी मुहर लगा दी।
लेकिन इसने मौजूदा नीति में बदलाव नहीं किया है, जिसमें पूंजी पर सब्सिडी दी जाती है। मतलब यह हुआ कि यह योजना एक विकल्प के रूप में ही रह गई है। निवेशक चाहें तो पूंजी पर सब्सिडी की जगह इसे चुन सकते हैं। इससे बदलाव की गुंजाइश बेहद कम है। कंपनियां अपना कारोबार पहले की तरह चलाती रहेगी और यह कारोबार ऊर्जा का नहीं, बल्कि मुनाफा कमाने का है।
हमें अब तकनीक को बढ़ाने के मामले में एक नई नीति की जरूरत है। एक ऐसी नीति जो पब्लिक-प्राइवेट-पब्लिक पार्टनरशिप पर आधारित हो। साथ ही, इसमें एक सरकारी नियंत्रक की जबरदस्त जरूरत है। इस कारोबार में लगी प्राइवेट कंपनियों को लोगों के प्रति जवाबदेह होना ही पड़ेगा क्योंकि उन्हें पैसा लोगों से ही मिलता है। इसके अलावा, सरकारी शोध कार्यों और सरकारी जांच को भी हर स्टेज पर हमें लाना होगा। याद रखिए, स्वच्छ तकनीक को पनपने के लिए स्वच्छ राजनीति की जरूरत पड़ती है।