कर विभाग द्वारा सताए जाने वाले लोगों के लिए फोर्ब्स पत्रिका के कर कष्ट एवं सुधार सूचकांक (टैक्स मिजरी ऐंड रिफॉर्म इंडेक्स) में भारत की रैकिंग में गिरावट इस बात की पुष्टि के लिए पर्याप्त है कि स्थिति बेहतर नहीं हो रही, बल्कि और भी बुरी हो गई है, बावजूद इसके कि कर सुधार कार्यक्रम को 15 साल से ज्यादा हो गए हैं।
इस सूची में भारत की रैंकिंग में भारी उछाल आया है (भारत का स्कोर 24 अंक बढ़ा है जबकि चीन का 7) और इसके कारण भी अनपेक्षित हैं। रैकिंग में हुई बढ़ोतरी को सामाजिक सुरक्षा अंशदान में हुई बढ़ोतरी से समझा जा सकता है। (नई पेंशन स्कीम के तहत नए भर्ती हुए नौकरशाहों को वैयक्तिक रूप से भविष्य निधि में अंशदान करना होगा, पहले उनके लिए ऐसा करना जरूरी नहीं था)।
कुछ ही पर्यवेक्षक इस कदम को प्रतिगामी करार देंगे क्योंकि वे इसे परिभाषित दीर्घकालिक अंशदान के मॉडल के तौर पर लेते हैं, जो परिभाषित लाभकारी मॉडल से अलग है। कहा जा सकता है कि फोर्ब्स इंडेक्स खास तौर पर इस साल लाभकारी संकेतक नहीं है।
सवाल यह है कि कर अधिकारियों से डीलिंग का मसला क्या बेहतर हुआ है या खराब। परिभाषा के तौर पर इलेक्ट्रॉनिक फाइलिंग की शुरुआत, करों की दर में कमी, दरों की संख्या में कमी और स्वचालित डिजिटल कामकाज से काफी बदलाव आना चाहिए था (ये सभी पिछले 15 साल में लागू किए गए हैं) लेकिन दुर्भाग्य से वर्तमान सरकार के कार्यकाल में नकद निकासी पर टैक्स लगाने की शुरुआत करने (अंतत: इसे वापस ले लिया गया) और फ्रिंज बेनिफिट टैक्स लगाकर टैक्स का दायरा बढ़ाया गया।
कुछ और नकारात्मक पहलू हैं- टैक्स से संबंधित मुकदमों का अंबार, पुराने कानून को बदलने की बाबत सरकार की शक्ति और सेवा कर जैसे नए टैक्स के बारे में यह अनिश्चितता कि वह किन चीजों पर लागू होगा। कहानी यहीं खत्म नहीं हो जाती क्योंकि कर अधिकारी रिफंड चेक के लिए रिश्वत मांगते हैं, टैक्स रिटर्न की फिर से जांच करने के लिए बेमतलब सवाल उठाने की बाबत कानूनी सीमा, कंपनियों से अतिरिक्त टैक्स जमा करने को कहा जाता है, लेकिन अधिकारी टैक्स डिमांड नोटिस जारी करने से इनकार करते हैं।
इस बीच, फिक्की और प्राइसवाटरहाउस कूपर्स के हाल के एक सर्वे में कहा गया है कि उन्होंने टैक्स के तौर पर कंपनियों का कुल अंशदान जानने की कोशिश की तो इसके दिलचस्प नतीजे सामने आए। जिन फर्मों का सर्वे किया गया वे सरकार को मिलने वाले कुल टैक्स का दस फीसदी देती हैं और उन्होंने कुल 23 टैक्स के बारे में बताया। इनमें से 11 टैक्स केंद्रीय थे जबकि 12 राज्यों और स्थानीय स्तर के थे, जो कि उन्होंने चुकाए।
सर्वे के मुताबिक, इसमें शामिल कंपनियों के हर एक रुपये पर (जिस पर टैक्स चुकाया जाना था) सरकार ने 1.80 रुपये बतौर टैक्स वसूल किया। इसका मतलब यह हुआ कि इसने सरकार के लिए भी टैक्स का बड़ा हिस्सा इकट्ठा किया, यानी आपूर्तिकर्ताओं, ग्राहकों और कर्मचारियों से वसूली गई टैक्स की रकम।
अध्ययन में कंपनियों की करदेयता का भी जिक्र था और यह कुल लाभ का 53 फीसदी थी। इसमें से 28 फीसदी कॉरपोरेट टैक्स और 25 फीसदी में उत्पाद, आयात शुल्क आदि शामिल हैं। इसे शामिल करते हुए 23 प्रकार के टैक्स के अनुपालन में आने वाली लागत कष्ट साध्य हो जाती है।
