आर्थिक संकट से निपटने के लिए सरकारें जो कुछ कर रही हैं, उनसे असहज सवाल उठ खड़े होते हैं।
अमेरिका में अत्यधिक कर्ज की समस्या पर नजर डालने के बाद पता चलता है कि 1980 में यह अमेरिकी जीडीपी के बराबर था, जो आज बढ़कर देश के जीडीपी का साढ़े तीन गुना हो गया है। यह इसी का परिणाम है कि अमेरिकी सरकार अपने साधनों केनीचे जी रही है और भारी भरकम राजकोषीय घाटा झेल रही है।
अमेरिकी गृहस्थी मॉर्गेज और क्रेडिट कार्ड केकर्र्जों पर जरूरत से ज्यादा सवार है। साथ ही अमेरिका का सालाना व्यापार घाटा जीडीपी के 5 फीसदी तक पहुंच गया है। अत्यधिक कर्ज से निपटने का सामान्य तरीका उपभोग में कमी लाना और इससे बचाई गई रकम का इस्तेमाल कर्ज का भुगतान करने में है।
यही बात अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष लगभग सभी गैर-अमेरिकी देशों से कह सकता है। समस्या यह है कि मंदी में सामान्यत: खर्च घटने की बजाय बढ़ जाता है। इस वजह से इस साल आधिकारिक तौर पर अनुमानित बजट घाटा जीडीपी के 8.5 फीसदी तक हो सकता है और ओबामा की योजना केतहत यह 14 फीसदी तक पहुंच सकता है, जो द्वितीय विश्व युध्द केबाद सबसे ज्यादा होगा।
निश्चित तौर पर यह कठिन समय है और ऐसे समय में आपको सामान्य नियम को अलग रखना पड़ेगा। दिन की समाप्ति पर अच्छी गृह व्यवस्था के तहत इसी नियम का पालन करना पड़ेगा, और अगर सरकार उधारी व करेंसी नोट को इसी पैमाने पर छापना जारी रखेगी तो समस्या फिर से आ खड़ी होगी।
व्यापार घाटे का क्या होगा? अमेरिकी वित्तीय फमॅ घरेलू संकट से निपटने के लिए चूंकि अंतरराष्ट्रीय बाजार से अपने हाथ खींच रही हैं, वह अमेरिका डॉलर ले गई है। इस तरह डॉलर को सोखने का मतलब यह है कि अमेरिकी मुद्रा ने दुनिया की दूसरी मुद्राओं के मुकाबले कुछ हासिल किया है।
पाउंड की कीमत करीब-करीब दो डॉलर के बराबर होती है, लेकिन फिलहाल यह 1.45 डॉलर के बराबर है। एक यूरो के बराबर 1.66 डॉलर होते थे, लेकिन फिलहाल यह 1.30 डॉलर से भी कम है। मजबूत मुद्रा का मतलब है सस्ते आयात और वैसी अमेरिकी कंपनियों के लिए मुश्किल जो निर्यात की कोशिश में जुटी है। दूसरे शब्दों में व्यापार घाटे के और भी खराब स्थिति में पहुंचने की आशंका है और ऐसे में अमेरिका का अंतरराष्ट्रीय कर्ज और बढ़ेगा।
यह घटनाक्रम पहले से ही असंतुलित दुनिया में असंतुलन को और बढ़ा रहा है, न कि उसे कम कर रहा है। असंतुलन के आरोप में चीन की हिस्सेदारी के पुराने तर्क का इस्तेमाल करते हुए ओबामा प्रशासन ने युआन के फिर से मूल्यांकन के संबंध में चीन पर दबाव बनाया है। सप्ताह की शुरुआत में चीन के प्रधानमंत्री ने इस विचार को बेहूदा बताते हुए इसे खारिज कर दिया है। इसलिए इस तिमाही में जितने आनंद का अनुमान था, उतना नहीं है।
शायद ऐसे समय में सबसे अच्छी खबर खुद मंदी है और जीडीपी इस साल 2.2 फीसदी सिकुड़ गया है। निश्चित रूप से कोई भी 9 फीसदी की बेरोजगारी दर के विचार को पसंद नहीं कर रहा, जैसा कि अनुमानित है क्योंकि यह ऐसा स्तर है जो खास तौर पर 1930 की आर्थिक मंदी में देखा गया था।
लेकिन अमेरिकी जिस तरह उपभोग को टाल रहे हैं, शॉपिंग मॉल और कार शोरूम से दूर जा रहे है, उससे पता चलता है कि आम लोग अपने खर्च में कटौती के प्रति संवेदनशील हैं ताकि कर्ज का बोझ जरूरत से ज्यादा न हो जाए। ऐसा कई साल तक चल सकता है क्योंकि कुल मिलाकर आप 25 साल से जमा पाप को रातों रात नहीं धो सकते।
लेकिन सरकारों को क्या करना चाहिए? व्यापारिक असंतुलन की चिंताओं को दूर करने के लिए विकासशील देशों को अपनी मुद्राओं को अवमूल्यित करना होगा और महंगाई को भी थोड़ी जगह देनी होगी। इससे स्वत: जीडीपी में इजाफा होगा और जमा हो चुके कर्ज आनुपातिक पैमाने पर घट जाएंगे, इस तरह इसे व्यवस्थित करना आसान हो जाएगा।
लेकिन अमेरिका आर्थिक महाशक्ति है, पूंजीवादियों का घर है और डॉलर दुनिया की सुरक्षित मुद्रा है, लिहाजा उसे तीसरी दुनिया के विकल्प को खारिज करना होगा। अमेरिका के लिए समय है अपना घर देखने का।
