वित्त मंत्रियों की बड़ी पुरानी आदत रही है कि बजट के दिन से पहले उम्मीदों को बहुत ज्यादा बढ़ा देते हैं, ताकि बजट का असर काफी हो।
केंद्रीय बैंकों के सर्वेसर्वाओं के लिए भी यह काफी अच्छा तरीका है। हालांकि, इसका इस्तेमाल सिर्फ बाजार तक अच्छी खबरों को पहुंचाने के लिए करना चाहिए। अगर इस बात को ध्यान में रखें, तो रिजर्व बैंक के नए गवर्नर को अभी काफी कुछ सीखना है।
अगर शुक्रवार को मौद्रिक नीति की तिमाही समीक्षा में उन्हें किसी बड़े बदलाव का ऐलान नहीं करना था, तो उन्हें पिछले सोमवार को रेपो रेट में एक फीसदी की कटौती करके बाजार की उम्मीदों को बढ़ाना भी नहीं चाहिए था।
अगर उन्हें कुछ करना ही था, तो उन्हें बाजार की उम्मीदों को सुनकर को फैसला लेना चाहिए था। इससे मौद्रिक नीति की समीक्षा बाजार के लिए एक सुखद अनुभव के तौर पर आता। इस पूरे वाकये को देखकर तो यही लगता है कि वे उम्मीदों पर खरे नहीं उतर पाए।
जब तक धुंध नहीं छंटती आप कह सकते हैं कि रिजर्व बैंक का काम बाजार का नहीं, बल्कि अर्थव्यवस्था का ध्यान रखना है। लेकिन आज की तारीख में बाजार किसी भी नीतिगत फैसले के गुणों को नापने के लिए बैरोमीटर बन चुका है। हालांकि, बाजार का मूड समीक्षा के आने पहले से ही नरम लग रहा था, लेकिन इसके आने के बाद तो जैसे बाजार का कबाड़ा ही निकल गया।
पहली नजर में कहा जा सकता है कि एशिया के दूसरे बाजारों की देखादेखी सेंसेक्स में भी गिरावट आई। मौद्रिक नीति में उम्मीद की कोई किरण नजर नहीं आने की वजह से ही गिरावट की रफ्तार और तेज हो गई। अगले कुछ दिनों या हफ्तों में जो हालत होने वाली है, उसमें रिजर्व बैंक को उतरने से अब कोई नहीं रोक सकता है। लेकिन यह डॉ. सुब्बाराव का पहला ऐलान था और लोगों को एक ऐसे फैसले की उम्मीद थी, जो उनकी हौंसला अफजाई कर सके।
डॉ. सुब्बाराव पहले ही कई इंटरव्यू में कह चुके थे कि वह अपने नए काम को सीख रहे हैं और इस वक्त आत्म संदेह से घिरे हुए हैं। यह बात पूरी तरह से सच हो सकती है और सच कहने के लिए उनकी तारीफ करनी चाहिए। लेकिन रिजर्व बैंक को यह तो लोगों को बताना ही चाहिए था कि वह चीजों से अच्छी तरह से वाकिफ है।
अगर रेपो रेट को सिर्फ एक फीसदी कम करने का फैसला खुद सुब्बाराव का था, तो उन्हें यह काम दो किस्तों में करना चाहिए था। वअसल दिक्कत यह है कि रिजर्व बैंक ने अपनी पुरानी नीति पर ही कायम रहना सही समझा। साथ ही, यह भी साफ नहीं है कि उसके दिमाग में समस्या के बारे में साफ तस्वीर है भी या नहीं। इसने विदेशी विनिमय बाजार में डॉलर बेचकर बाजार से नगदी सोख ली।
वह भी तब, जब सरकार की नीतियों की वजह से तेल और उर्वरक कंपनियों को बैंकों से भारी मात्रा में कर्ज लेना पड़ रहा था। बाजार में नगदी की कमी की असल वजह सरकार और रिजर्व बैंक ही थे। बाद में, उन्होंने बाजार को राहत देनी शुरू की, जो काफी नहीं था।
हालांकि, बैंक ने नगदी की कमी का अंदाजा होते हुए भी सिर के ऊपर से गुजरती कर्ज दर को काबू में करने के लिए यह कदम उठाया था। इस भ्रम को टाला जा सकता था, अगर सही फैसले लिए गए होते। आज भी वह विकास दर के बारे में कुछ ज्यादा उदारता से सोच रही है और महंगाई में काफी संकुचित तरीके से सोच रही है।