आज हमें जिन कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है उनमें से कई का हल एक मजबूत अप्रत्यक्ष कर प्रणाली में निहित है। इस विषय में बता रहे हैं अजय शाह और विजय केलकर
हम अकसर ऐसे जादुई उपायों को लेकर सतर्क रहते हैं जिनकी मदद से जटिल समस्याओं को हल करने की बात कही जाती है। परंतु भारत में इस समय जो समस्याएं नजर आ रही हैं उनमें से कई को एक अहम सुधार की मदद से दूर किया जा सकता है और वह है: एक सही डिजाइन वाला जीएसटी।
हाल के वर्षों के जीएसटी के अनुभव ने हमें यह समझाया है कि कुछ बुनियादी सुधारों की आवश्यकता है। मिसाल के तौर पर 12 फीसदी की समान दर। देश के भविष्य में शहरों की अहम और बुनियादी भूमिका है तथा उन्हें इस जीएसटी में दो फीसदी की हिस्सेदारी प्रोत्साहन राजस्व के रूप में दी जानी चाहिए। अप्रत्यक्ष कराधान की दिक्कतें देश में निवेश को प्रभावित कर रही हैं और इसका हल अप्रत्यक्ष कर व्यवस्था के सही हल में निहित है।
जीएसटी की इस बात के लिए काफी आलोचना की जाती है कि इससे होने वाली प्राप्तियां अपेक्षित नहीं रहीं। डिजाइन की समस्या ने भी इससे होने वाले लाभ को प्रभावित किया है। 18 और 28 फीसदी की कर दरें बहुत अधिक हैं। कुछ लोग 42 फीसदी आय कर के ऊपर 28 फीसदी जीएसटी को दुनिया में कर की सबसे ऊंची दर के रूप में देखते हैं।
ऐसे में 12 फीसदी की एकल दर कारगर हो सकती है जिसे सभी वस्तुओं और सेवाओं पर लागू किया जाए। इसके साथ ही प्रशासनिक व्यवस्था को सहज बनाना होगा जहां हर उत्पादक के नुकसान की सही भरपाई संभव हो। हमारा मानना है कि 12 फीसदी की दर से पर्याप्त कर राजस्व आएगा लेकिन अगर ऐसा न हो तो कुछ वर्ष बाद इसमें इजाफा किया जा सकता है।
कम दर होने से कर वंचना को मिलने वाला प्रोत्साहन भी कम होता है। एकल दर होने से वर्गीकरण के विवाद समाप्त हो जाएंगे। इन दोनों बातों से कर प्रशासन और लोगों के बीच विवाद कम होंगे। इसके अलावा जीएसटी परिचालन पर बुनियादी रूप से पुनर्विचार की आवश्यकता है ताकि हर भारतीय कंपनी को जिस विधिक/लेखा/आईटी सहयोग की जरूरत पड़ती है वह कम हो सके।
देश में निजी निवेश का माहौल सुधारने में बहुत रुचि ली जा रही है। कई वैश्विक कंपनियां चीन में अपना काम कम कर रही हैं, ऐसे में विदेशी निवेश आकर्षित करने पर भी ध्यान दिया जा रहा है। अप्रत्यक्ष कर के क्षेत्र में तमाम कमियां हैं जिसमें विभिन्न उप करों, शुल्क, ऐंटी डंपिंग शुल्क, विदेश व्यापार समझौतों और जीएसटी के मिश्रण से बना उलट शुल्क ढांचा भी शामिल है। कारोबारी संभावनाओं की दृष्टि से भारत एक अच्छी जगह है। परंतु हमारे देश की कर नीति और कर प्रशासन तथा अप्रत्यक्ष कराधान के कुछ पहलू ऐसे हैं जो निवेश को नुकसान पहुंचाते हैं।
अप्रत्यक्ष कर को लेकर जटिल और उतार-चढ़ाव वाला माहौल नीतिगत जोखिम पैदा करता है। गैर वित्तीय कंपनियों के लिए कर पश्चात औसत मार्जिन बिक्री का केवल 6 फीसदी है। कराधान में जो बदलाव बिक्री में एक फीसदी परिवर्तन लाता है वह कर पश्चात मुनाफे में 16.66 फीसदी का असर डालता है।
ऐसे में अप्रत्यक्ष कर में मामूली उतार-चढ़ाव का इक्विटी मिलने वाले प्रतिफल पर भारी असर होगा। भविष्य में अप्रत्यक्ष कर व्यवस्था में ऐसे उतार-चढ़ाव में नीतिगत जोखिम भी हैं क्योंकि अंक आधारित मूल्य दरों में परिवर्तन की लॉबीइंग को लेकर राजनीतिक अर्थव्यवस्था का गुणा गणित तैयार करते हैं।
जब पीएलआई को सामने रखा जाता है तो पीएलआई की दर एक और ऐसा आंकड़ा बन जाएगी जिसमें उतार-चढ़ाव आ सकता है। यह भी नीतिगत जोखिम का स्रोत बन जाएगी। जाहिर है इसका असर निवेश संबंधी निर्णयों पर भी पड़ेगा।
व्यापक अप्रत्यक्ष कर सुधार सबसे बेहतर निदान है। इसमें तीन विचार शामिल हैं। पहला, यह देश के हित में है कि सभी दरों को लगभग शून्य के स्तर पर ला दिया जाए। सीमा शुल्क की तीन दरें होनी चाहिए। शून्य प्रतिशत, एक प्रतिशत और दो प्रतिशत। सबसे अधिक दो प्रतिशत की दर उन कंपनियों पर लगनी चाहिए जो कच्चा माल आयात करती हैं और यह दर इस प्रकार लगनी चाहिए कि उनके शेयर प्रतिफल पर असर न हो।
दूसरा, सभी उपकर तथा अन्य अप्रत्यक्ष कर समाप्त कर दिए जाने चाहिए तथा केवल एकल दर वाला जीएसटी होना चाहिए। तीसरा, जीएसटी को आयात और निर्यात दोनों के साथ कारगर ढंग से काम करना चाहिए। सभी आयात पर जीएसटी लगना चाहिए और तमाम निर्यात पर शून्य दर होनी चाहिए तथा करदाताओं पर कार्यशील पूंजी आवश्यकता नहीं थोपी जानी चाहिए।
हम इतिहास के ऐसे विशिष्ट मोड़ पर हैं जहां वैश्विक कंपनियों को यह समझाकर लाभ अर्जित कर सकते हैं कि भारत में
विधि का शासन, मजबूत आर्थिक विचार प्रक्रिया तथा कम नीतिगत जोखिम है। इन कठिन समस्याओं को अनदेखा कर पीएलआई की बात करना लुभावना हो सकता है लेकिन यह नीतिगत जोखिम हल करने में मददगार नहीं हो सकती। जबकि निवेश निर्णयों में नीतिगत जोखिम की अहम भूमिका होती है। अप्रत्यक्ष कराधान को लेकर संपूर्ण सुधार के लिए दोनों समस्याओं को हल किया जाना आवश्यक है।
मजबूत जीएसटी डिजाइन का एक अहम घटक है सरकार के तीसरे स्तर यानी स्थानीय सरकार के लिए संसाधनों की बुनियाद तैयार करना। जीएसटी का दो फीसदी हिस्सा प्रासंगिक स्थानीय सरकार को जाना चाहिए। इससे तीसरे स्तर के लिए पर्याप्त संसाधन तैयार हो जाएंगे जो स्थानीय सरकार की सार्वजनिक बेहतरी के लिए काम करने की प्राथमिक भूमिका के अनुकूल है।
जीएसटी का एक हिस्सा जो शहरी सरकार को वापस मिलता है उसका असर शहरी सरकार के व्यवहार पर पड़ता है और उसके बेहतरी आती है। जीएसटी एक खपत आधारित कर है। जब किसी शहर में आर्थिक वृद्धि होती है तो उस शहर की खपत बढ़ती है और किसी शहर में खपत का दो फीसदी तो उसे मिलना ही चाहिए।
तब राजनेता और अधिकारी भी वृद्धि को लेकर अधिक रुचि दिखाएंगे क्योंकि यह उनके राजकोष से सीधे जुड़ा हुआ मामला होगा। उस स्थिति में उधारी की मदद से शहर की अधोसंरचना में सुधार करना आसान होगा क्योंकि बढ़ी हुई खपत कर्ज चुकता करने में सहायक होगी।
अगर जीएसटी में सही सुधार कर दिए जाएं तो यह देश की कई वर्तमान समस्याओं का इकलौता बड़ा और महत्त्वपूर्ण हल साबित हो सकता है। हम जीएसटी को लेकर 19 वर्ष का सफर तय कर चुके हैं। अब हम सबको मिलकर कोशिश करनी चाहिए कि हम इसे ठीक करने में अपना-अपना योगदान दें।
(लेखकद्वय पुणे इंटरनैशनल सेंटर से संबद्ध हैं)